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स्वाभिमान जाग उठा – संगीता त्रिपाठी 

छनाक…. आवाज सुन कर रमा जी भागी -भागी बाहर के कमरे में आई, जहाँ शीशे का गिलास कई भाग में टूटा पड़ा था। निगाहें कोने में गई, जहाँ पाखी आँखों में आँसू भरे थर -थर काँपती खड़ी थी। रमा जी समझ गई, आज फिर प्रसून और पाखी में झगड़ा हुआ।

  “हड़बड़ी में कोई काम ठीक नहीं होता तुमसे….,जब प्रसून को पसंद नहीं तेरा नौकरी करना तो नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती”खींझते हुये रमा जी ने कहा।

  पाखी ने कोई जवाब नहीं दिया। एक खामोश नजर रमा जी पर डाल कमरे में चली गई। उस नजर में जाने क्या था, रमा जी आहत हो गई। “ये लड़की भी ना, कुछ बोलेगी नहीं, मौन शब्द फेंक चली जाती है “चिढ़ते हुये रमा जी मन ही मन भुनभूनाई।

      तभी प्रियम और प्रीता बाहर से खेल कर आ गये, घर में फैले सन्नाटे को देख प्रियम बोला “आज फिर पापा ने माँ से झगड़ा किया “।

“चुप कर, पापा क्यों माँ से झगड़ा करेगा “रमा जी बोली,तभी पाखी के ऊपर बच्चों की निगाह गई,

 “अरे ये माँ के माथे पर चोट कैसा… खून भी बह रहा..”

  , अरे वो तो पाखी ही दीवार से टकरा गई थी तो दूध का गिलास हाथ से छूट गया था “रमा जी ने बेटे अंकुर की तरफ से सफाई देते कहा। बच्चों को समझा दिया,पर आज मन को नहीं समझा पा रही थी। बरसों पुरानी कहानी दोहराई जा रही बस पात्र बदल गये, अपनी सास की जगह वो खुद आ गई और उनकी जगह बहू पाखी आ गई। एक पीढ़ी बदली पर स्त्री की स्थिति नहीं बदली, चाहे पढ़ी -लिखी हो या अनपढ़, परिवार बचाने के लिये अपमान का गरल हमेशा पीती है। पीना ही पड़ता क्योंकि एक स्त्री कभी दूसरे का कष्ट नहीं समझती है, जिस पीड़ा से वो गुजरती है उसी पीड़ा से दूसरी को गुजरते देखती है पर चुप रहती है… आखिर क्यों…?सर को झटक रमा फिर टी. वी. देखने लग गई।



       ऑंखें सामने टी. वी. पर, दिमाग में विगत चलचित्र की भांति चलने लगा। कितना जिद किया था अंकुर ने पाखी से शादी करने के लिये। रमा जी ने साम -दंड -भेद सब अपना कर भी अंकुर का निर्णय बदल नहीं पाई। मोटा दहेज और खूबसूरत लड़की का लालच छोड़ साधारण परिवार की साँवली -सलोनी पाखी को बहू बनाना पड़ा। रमा जी के दिल में एक खालिश रह गई, जैसी बहू चाहती थी पाखी वैसी नहीं है। साधारण परिवार की पाखी असाधारण व्यक्तित्व की धनी थी। ताने सुन कर भी जवाब नहीं देती थी। पाखी की इस आदत का फायदा रमा जी ने खूब उठाया।पर जाने क्यों आज उसकी आँखों का भाव अंदर तक उनको बेध गया।

        अंकुर ने पाखी से शादी अपनी मर्जी से की थी , कुछ दिन तो अच्छे बीते, जो चीज हमें सरलता से मिल जाती, एक समय बाद वो बेशकीमती होकर भी हमारे लिये मूल्यहीन हो जाती। अंकुर ने जिन गुणों से रीझ कर पाखी से शादी की थी , अब वही उसे शूल की भांति चुभने लगे।कहीं भी जाओ, लोग पाखी को ही पूछते। लोग कहते -“तू भाग्यशाली है अंकुर जो तुझे पाखी जैसी पत्नी मिली “। सराहना के बोल, अपनी झोली में भर जब पाखी घर लौटती,हीन भावना से ग्रसित अंकुर उतना ही उसे प्रताड़ित करता। पाखी अपनी गलती ढूढ़ती रह जाती और अंकुर अपने प्रताड़ना की हदें पार कर जाता। छटनी में अंकुर की नौकरी चली गई थी,हाँ पाखी को प्रमोशन मिल गया। बस अब अंकुर के धैर्य ने जवाब दे दिया -“तुम नौकरी छोड़ दो “, की रट लगा ली। अंकुर की मनस्थिति समझ पाखी धैर्य से समझाती -“अंकुर आप परेशान ना हो, जल्दी ही आपकी नौकरी लग जायेगी फिर मै अपनी नौकरी छोड़ दूंगी, अभी तो मेरी नौकरी -हमारी जरूरत है”। पर अंकुर की ईर्ष्या ने उसकी बुद्धि हर ली थी। एक स्त्री इतनी सफल हो जाये कि पति से ज्यादा तवज्जो की हक़दार हो जाये, भला एक औसत पति को कहाँ मंजूर।हर बार पाखी अपमान को पी जाती, जब भी कोई बड़ा कदम उठाने को सोचती, प्रियम और प्रीता का चेहरा सामने आ जाता। अंदर की स्त्री को मार कर माँ को जिन्दा रखने के प्रयास में पाखी हर दिन संघर्ष करती, जीती और मरती पर जीतती माँ ही, स्त्री हार जाती।



             आज तो अंकुर ने सारी सीमा लाँघ दी।बात अब आत्मसम्मान पर आ गई,आज स्वाभिमान जाग उठा…, अपने स्वाभिमान को न टूटने देगी।आँसुओं से भरी आँखों को पोंछ,अटैची में कपड़े रख, दोनों बच्चों का हाथ पकड़, पाखी ने अपने सधे कदमों से उस दहलीज से पार कर लिये, जो आज तक उसकी सीमा रेखा बन हजारों बंदिशे लगा रखी थी,

जहाँ एक स्त्री, दूसरी की पीड़ा ना समझी, जब समझी तब देर हो चुकी थी।जहाँ प्यार पर ईर्ष्या और हीन भावना ने अपनी पकड़ गहरी कर ली, वहाँ एक स्त्री अपना अपमान कब तक बर्दाश्त करेंगी , कब तक समर्थ होते हुये भी अपने स्वाभिमान पर चोट झेलती रहेगी ।

पथराई आँखों से रमा जी बहू संग पोते -पोती को जाते देखा। “तुमने रोका क्यों नहीं “पति की आवाज सुन बोली -उसने ठीक किया,अंकुर ही नहीं मै भी उसकी अपराधिनी हूँ, हीरे की कीमत हमने नहीं समझी,तो कैसे रोक सकती हूँ, रोकने का अधिकार मै उसी दिन खो बैठी जिस दिन अंकुर की गलत बात का समर्थन किया था “। कह रमा जी ने मुँह फेर लिया।

अंकुर चुपचाप खड़ा था।पाखी के घर छोड़ने की उसे उम्मीद नहीं थी,माँ की बात सुन उसकी ऐंठ गायब हो गई।घर का सन्नाटा, बिना आवाज के बहुत कुछ कह गया,”सबसे बड़ा अपराधी तो मै हूँ, क्योंकि विश्वास और प्रेम की डोर से बांध कर मै लाया था, आज वही डोर ढीली जरूर पड़ी है पर मै उसे टूटने नहीं दूंगा “कह अंकुर हट गया। आखिर अपने को तराश कर ही तो पाखी के योग्य बनेगा..।और एक दिन पाखी जरूर लौट आयेगी।रिश्तों की गरिमा बनाये रखने के लिये आपसी सम्मान और प्रेम बहुत जरुरी है, साथ ही एक दूसरे के स्वाभिमान.की रक्षा ..।

                             —=संगीता त्रिपाठी 

   #स्वाभिमान 

 

 

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