सुख के दिन – निभा राजीव “निर्वी”

सुनिधि के घर में उत्सव का सा माहौल था। सुनिधि और उसके सास ससुर फूले नहीं समा रहे थे। आज ही यूपीएससी का परीक्षा फल घोषित हुआ था। सुनिधि के एकमात्र पुत्र नितिन ने सफलता के परचम लहरा दिए थे। सुनिधि के ससुर ने पूरे मोहल्ले को दावत दे डाली और सारा प्रबंध उनकी देखरेख में ही हो रहा था। सुनिधि की सासु मां अभी मंदिर गई हुई थी प्रसाद चढ़ाने। कितनी मनौतियों के बाद यह शुभ दिन आया था। काम निपटाते निपटाते सुनिधि की आंखों के सामने अतीत के पन्ने पलटने लगे…….

       कितना हंसता खेलता सुखी परिवार था उनका। मांजी, बाबूजी, सुनिधि, रितेश और उनका पुत्र नितिन। सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था मगर पता नहीं हंसते खेलते परिवार को किसकी नजर लग गई। एक दिन कार्यालय से आते समय रितेश की बाइक दुर्घटनाग्रस्त हो गई और दुर्घटना स्थल पर ही उसने दम तोड़ दिया। मांजी बाबूजी के ऊपर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और सुनिधि, उसकी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई।

        जैसे-तैसे रितेश का क्रिया कर्म संपन्न किया गया। एक तो दुख की घड़ी, उस पर से घर खर्चे की भी समस्या मुंह बाए खड़ी हो गई। बाबूजी की पैंशन भी बहुत मामूली थी। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। फिर दिल कड़ा करके सुनिधि ने निर्णय ले ही लिया और झिझकते हुए मांजी बाबूजी के पास नौकरी करने की इच्छा व्यक्त की ताकि नितिन की पढ़ाई और घर का खर्च भी सुचारू रूप से चल सके। कुछ देर तो मांजी और बाबूजी भी सोच में पड़ गए। बाबूजी की पलकें भींग गई। उन्होंने स्नेह से कहा,”-बेटा, मैं ज्यादा तो कुछ नहीं कर पाऊंगा पर मेरी पेंशन कम से कम इतनी तो है ही कि मैं तुझे और अपने पोते को दो वक्त की रोटी खिला सकूं। तू बाहर जाकर कहां दर-दर भटकेगी।” फिर माँजी ने ही बाबू जी से कहा,”-कर लेने दो इसे नौकरी। यह भी अपने बच्चे का पालन पोषण अच्छी तरह से अपने अनुसार कर सकेगी। साथ ही इसका दिल भी लगा रहेगा। मुझसे इसका उदास चेहरा और देखा नहीं जाता।” फिर बाबू जी ने भी स्नेह से सिर पर हाथ रखते हुए नौकरी की अनुमति दे दी।




               एक दिन सुनिधि कार्यालय से घर आई तो घर के दरवाजे के पास वाली खिड़की से आती आवाजें सुनकर वहीं रुक गई। अंदर शायद लता बुआ आई थी। “भाभी, विधवा बहू को इस तरह नौकरी के लिए बाहर भेजने की क्या जरूरत थी! अरे जमाना बहुत खराब है।कल को कुछ ऊंच-नीच हो गई तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी! अरे जवान जहान है, कब पैर फिसल जाए क्या भरोसा!भाई जी को थोड़ी बहुत पेंशन तो मिलती ही है। उसी में गुजारा कट जाता। दो टुकड़े खाती और पड़ी रहती अपने बच्चे के साथ आराम से। और साथ में तुम्हारी कुछ मदद भी हो जाती। वह तो सुबह सुबह सज संवर के ऑफिस चली जाती होगी और तुम बीच बेचारी रसोई घर में पिसती रहती होगी।अभी भी मैं आई तो तुम चावल पका रही थी। अरे भाभी, मैं तो कहती हूं, इसके पर काटो वरना फुर्र से उड़ते देर नहीं लगेगी। फिर पूरी जिंदगी सर धुनती रहोगी। एक तो वैसे ही इतनी मनहूस है कि मेरे भतीजे को खा गई उस पर से अब ना जाने यह नौकरी का कौन सा फितूर सवार हो गया है। ” लता बुआ बोल तो दबी आवाज में रही थी पर फिर भी आवाज बाहर तक आ रही थी।……

        सुनिधि कांप कर रह गई। अपने बच्चे के भविष्य को संवारने के लिए इस नौकरी के रूप में एक अवसर मिला था वह भी हाथ से गया समझो……..वह डूबते दिल के साथ अंदर प्रवेश करने ही वाली थी तभी उसकी सासू मां की बिफरती सी आवाज आई,”- बस करो जीजी, मेरी बहू ऐसी नहीं है। और मेरा बेटा सड़क दुर्घटना में नहीं रहा, इसमें उस बेचारी का क्या दोष है! यह तो केवल और केवल भाग्य का ही दोष है! उसके ऊपर भी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। वही जानती होगी कि वह अपने दिन कैसे काट रही है। और उसे नौकरी करने की अनुमति मैंने और तुम्हारे भाई जी ने ही दी थी। तुम्हारे भाई जी की पेंशन इतनी भी नहीं है कि हम अपने इकलौते पोते की महंगी पढ़ाई का खर्च सरलता से वहन कर सकें। अगर सुनिधि की नौकरी नहीं होती, अभी वह जहां पढ़ रहा है, हम शायद उसे वहां नहीं पढ़ा पाते। यह तो सुनिधि के हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि कितनी मुसीबतों के बाद भी उठ खड़ी हुई है और परिस्थितियों से जूझ रही है। रितेश की कंपनी से भी जो थोड़े बहुत पैसे मिले थे, वह भी बैंक में जमा करा दिए, ताकि कभी मुसीबत के समय किसी के आगे हाथ ना पसार ना पड़े। और तुमने जो मुझे चावल पकाते देखा वह भी मैंने ही उससे कहा, कि वह चावल मुझे बनाने दिया करे। वह बेचारी सुबह सवेरे अंधेरे मुंह जगकर पूरा खाना बनाती है, तब ऑफिस जाती है। मैंने ही उससे कहा था कि चावल मैं बना लिया करूंगी ताकि चावल थोड़े गर्म रहें। जब से ऑफिस से आती है, तब से फिर हम दोनों की सेवा में लग जाती है। अपने बच्चे का भी ख्याल रखती है। मेरी लाडली बहू पर कोई उंगली उठाए, यह मैं कतई बर्दाश्त नहीं करूंगी। और दुनिया वालों का क्या है वह कब और किससे खुश रहे हैं। लोग जो भी बोलते हैं बोलते रहें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे अपनी बहू पर पूरा भरोसा है। उसके संघर्ष में उसकी मां उसके साथ है।”




              भावनाओं के आवेग से सुनिधि का दिल भर आया। भीगी पलकों के साथ उसने हौले से दरवाजा खोल कर अंदर प्रवेश किया और लता बुआ के पैर छुए।….. लता बुआ झटके से उठ खड़ी हुई और मांजी से कहा “- तुम देख लो भाभी, तुम्हें क्या करना है।मुझे तो जो सही लगा वह मैंने कह दिया। हुंह….. मुझे क्या पड़ी है, मैं तो वैसे भी अपने काम से काम रखती हूं। जिसे जो करना हो करे। अच्छा मैं चलती हूं।”भुनभुनाती हुई लता बुआ चली गई। वह मां जी के गले लग कर सिसक पड़ी। मां जी उसके सिर पर स्नेह भरी थपकियां देतीं रहीं।

              उस दिन के बाद से सुनिधि ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसने अपने काम में जी जान से मेहनत की और अपना पूरा पूरा ध्यान नितिन पर दिया। एक वे दिन थे और एक आज का दिन है।

          तभी माँँजी के ऊंचे स्वर से उसकी तंद्रा टूटी। वह मंदिर से आ चुकी थी और उसे ही पुकार रहीं थीं।  सुनिधि के मन में ढेर सारा प्यार उमड़ आया उनके लिए। अगर उस दिन उन्होंने लता बुआ को कड़ा उत्तर नहीं दिया होता और उसके ऊपर दृृ़ढ़ता से भरोसा दिखाकर उसके साथ खड़ी नहीं हुई होती तो शायद आज यह दिन देखने को नहीं मिलता । वह दौड़ के उनके पास पहुंची, उनके पैर छुए और झट से प्रसाद के लिए अपनी हथेली आगे बढ़ा दी। आशीषों की वर्षा के साथ माँजी ने एक लड्डू उसकी हथेली पर टिका दिया। सुख के दिन फिर से लौट आए थे।

#भरोसा 

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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