संस्कारी दिव्यांग – विनोद प्रसाद 

अस्पताल के बेंच पर अकेला बैठा अरूण बार-बार ऑपरेशन थियेटर के बंद दरवाजे के खुलने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। भीतर उसकी पत्नी को प्रसव हेतु ले जाया गया था। बैठे-बैठे वह अतीत की गहराइयों में डूबता गया।

दुनिया वाले भले ही उसे दिव्यांग मानते थे, लेकिन अरूण ने शारीरिक अपंगता को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। बचपन में ही पोलियो ग्रस्त हो जाने के कारण उसके बांए पांव में जान नहीं थी। उसके माता-पिता भी बैकुंठधाम चले गए थे। गांव में कुछ लोग उसे देखते ही मुंह फेर लेते थे। एक-दो लोगों को तो उसने यहां तक कहते हुए सुना कि भाई पर बोझ है यह अभागा। कुछ कर तो नहीं सकता है, बड़ा होकर भीख ही मांगेगा।

तब दुख तो उसे बहुत हुआ था पर वह टूटा नहीं था। उसका आत्मबल जो उसके साथ था। बड़े भैया और भाभी ही उसके लिए  एकमात्र सहारा थे, जिन्हें वह देवता की तरह पूजता था। गांव के ही स्कूल में पढ़कर उसने मैट्रीक परीक्षा पास कर ली थी।

एक दिन घर के अन्दर प्रवेश करते ही भाभी की आवाज उसके कानों में पड़ी- “आपका अपाहिज भाई कुछ काम-धाम का तो है नहीं। निठल्ले को कब तक बैठा कर खिलाते रहेंगे। आखिर हमारे भी बाल-बच्चे हैं।” 

फुटपाथ पर छोटी सी दूकान से गृहस्थी  चलाने वाले सुरेश ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा- “जब तक जीवन है तब तक उसकी जिम्मेदारी हमें उठानी ही पड़ेगी। आखिर वह कहां जाएगा बेचारा।”

सहसा उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। जिस भैया भाभी के लिए उसके दिल में इतना अधिक सम्मान था वही उसके बारे में क्या सोचते थे।




मौका देखकर एक दिन वह भैया के साथ उनकी फुटपाथी दूकान पर आ गया। कुछ दिनों तक वह भी दूकान में भैया का हाथ बंटाता रहा और एक दिन भैया ने वह दूकान अरूण को सौंपते हुए कहा- “अब तुम ही इस दूकान को सम्हालो। मैं कुछ दूसरा काम कर लूंगा।”

शायद ईश्वर ने उसकी आत्मनिर्भरता का द्वार खोल दिया था। फिर अरूण ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। दूकान की हालत बहुत खस्ता थी। धीरे-धीरे उसने ईमानदारी से अपना सारा ध्यान दूकान की साख बढ़ाने पर केन्द्रित करने लगा। वह जानता था कि दूकान से ही उसके सारे सपने पूरे हो सकते थे।

कुछ ही वर्षों में अरूण की मेहनत और ईमानदारी ने रंग दिखाना शुरू कर दिया। एक तो दूकान में पर्याप्त सामान और दूसरे उसकी व्यवहार कुशलता से पुराने ग्राहकों के साथ नए ग्राहकों की संख्या में लगातार वृद्धि होती रही। उसकी दूकान के आगे ग्राहकों की भीड़ लगने लगी और वह सभी ग्राहकों को संतुष्ट करता रहता था। धीरे-धीरे उसकी आमदनी में इजाफा होने लगा। इस बीच घरेलू कामों के लिए उसने भैया को कई बार दस-बीस हजार की मदद भी की। चूंकि दूकान छोड़ने से उसके भैया बेकार हो गए थे इसलिए उसने पचास हजार की आर्थिक सहायता देकर भैया के लिए ऑटो खरीद दिया। शेष रकम बैंक ऋण से चुकता किया। 

एक पैर से लाचार होने के कारण दूकान का सामान जुटाने और घर आने -जाने में काफी परेशानी होती थी। कुछ दिनों बाद सुविधा के ख्याल से उसने अपने लिए तीन पहिया स्कूटी भी खरीद ली। अब स्कूटी से दूकान का सामान लाने और घर आने-जाने में उसे काफी राहत मिलती थी। उस पर बचपन में ताने मारने वाले अब उसे सम्मान की दृष्टि से देखने लगे। 




उसकी शादी की उम्र हो चुकी थी लेकिन इसके बावजूद भैया ने इस संबंध में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शायद उन्हें भय था कि शादी के बाद उनकी आमदनी का यह स्रोत बंद हो जाएगा। अंततः एक परिचित के सहयोग से उसने शादी भी कर ली। शादी में भैया-भाभी के साथ अन्य परिजन भी उपस्थित रहे।

अब वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर गया था। उसने आमदनी के पैसे से बचत शुरू कर दी। दो साल बाद उसके आंगन में एक कन्या की किलकारियां गूंजने लगी। वह अपने परिवार और व्यवसाय में पूरी तरह रम गया। 

जब दूसरा बच्चा होने को था तब उसने अपनी पत्नी को भाभी के पास छोड़ दिया ताकि उचित देखभाल हो सके। लेकिन भाभी ने उसकी देखभाल करने से साफ इन्कार कर दिया। मजबूरन उसे अपनी पत्नी को एक नजदीकी रिश्तेदार के यहां रखना पड़ा।

पत्नी को प्रसव पीड़ा होने पर वह उसे अस्पताल ले गया, जहां डाक्टर ने तुरन्त ऑपरेशन करने की सलाह दी।

इतने में ऑपरेशन थियेटर का दरवाजा खुला। डाक्टर बाहर निकली तो वह शीघ्रता से बैसाखी की मदद से डाक्टर के पास गया। डाक्टर बोलते हुए आगे बढ़ गई- “बधाई हो, बेटा पैदा हुआ है। जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ हैं।”

ईश्वर की असीम अनुकम्पा का धन्यवाद करने के लिए अरूण के दोनों हाथ जुड़ गए।

उसने मोबाइल से यह खुशखबरी सबसे पहले भैया को सुनाई, जिनके लिए उसके दिल में आज भी वही श्रद्धा और सम्मान था। क्योंकि वह संस्कार के बल पर पर रिश्तों को जीवित रखना चाहता था।

#संस्कार

– विनोद प्रसाद 

 पटना

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