सम्मान का स्वाद – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

काँधे पर झुकी उम्र, आँखों पर मोटे शीशों वाला चश्मा, और उँगलियों में अब भी वर्षों पुरानी सुई की पकड़—ये थे विष्णु प्रसाद। दिल्ली की एक पुरानी गली के कोने पर उनका छोटा-सा सिलाई ठेला था, जो वर्षों पहले एक सुनहरे सपने की तरह शुरू हुआ था। अब वहीं बैठकर वे फटी जेबें टाँकते, टूटे ज़िप बदलते और बच्चों के बैगों में नए पट्टे सीते थे।

सुई के हर धागे में उनकी ज़िंदगी का एक टुकड़ा बँधा होता। उनके हाथ अब भी सुई को उसी कुशलता से पकड़ते थे जैसे कोई वृद्ध मूर्तिकार अपनी अंतिम मूर्ति गढ़ते वक़्त पकड़ता है — कांपती उंगलियों में संचित अनुभव की स्थिरता। चेहरे की झुर्रियाँ उनकी मेहनत की लिखावट थीं और पीठ पर अब भी वर्षों की पीड़ा होते हुए भी स्वाभिमान की सीधी रेखा थी।

छत की काई लगी दीवार से टँगी घड़ी हर घंटे के साथ कुछ बीते पल गिरा देती थी — जैसे वह वक़्त के पंखों से झरते पुराने पत्ते हों। घर की दीवारें भी चुप थीं, पर उन पर हर बात लिखी जा रही थी। रसोई में एक स्त्री थी-सीता, जो खामोशी में पिघलती रही थी। दिन भर पसीने से गीले आंचल में वह रोटियाँ सेंकती, हर दिन बेटे की बहानों और अपने पति की थकी साँसों के बीच खुद को बाँधती रही।

बेटा विजय तीस की देहरी लांघ चुका था, पर जिम्मेदारियों के दरवाज़े से अब भी अनजान था। वह दिन भर घर से बाहर बैठकर खाली बातों की गठरी बाँधता और लौटता तो जेब में सिर्फ गुटखे की पन्नी होती। नौकरी एक नहीं टिकती थी—कभी बॉस से बहस, कभी टाइम पर न पहुँचना, कभी “सिस्टम ही खराब है” कहकर हाथ खड़े कर देना। हर बार नौकरी छोड़कर घर बैठ जाना जैसे उसकी आदत बन गई थी। 

बहू नीना, कभी जिन आँखों में सतरंगी सपने थे, अब वहाँ थके हुए दिन और बेस्वाद रातों की राख रह गई थी। हर सुबह उम्मीद लिए जगती और दोपहर तक खिन्न हो जाती। पोते स्कूल जाते, मगर फीस, यूनिफॉर्म, किताबें—सब बाबा की सिलाई से ही जुड़ी थीं।

और ऊपर से विष्णु प्रसाद की बेटी—रेखा। ब्याहता, मगर मायके के द्वार पर जब चाहे आ धमकती। कभी पति से झगड़ा, तो कभी बच्चों की फीस। हर बार भाई विजय की धौंस से माँ-बाप के पैसे झपट लेती और  पिता की ममता को हथियार बनाकर लौट जाती। विष्णु प्रसाद चुप रहते। जैसे कोई दीपक आँधी देखकर बाती समेट लेता है, वैसे ही उन्होंने हर सवाल अपने मौन में सिल दिया था।

सीता हर रात तकिए में मुँह छुपाकर रोतीं। विष्णु प्रसाद पत्नी का क्रंदन खामोश होकर देखते और अगली सुबह फिर से सुई धागा लेकर ठेले पर बैठ जाते। किसी से कोई शिकायत नहीं, कोई तंज नहीं कहते। लेकिन भीतर-भीतर धीरे-धीरे बुझते जा रहे थे या कोई मनन करते जा रहे थे।

एक दिन, जब दोपहर की चिलचिलाती धूप गली की दीवारों को तपाने लगी थी, आसमान पर तपते सूरज के नीचे जैसे धरती तक घुटने लगी थी। उसी समय रेखा फिर आ धमकी— इस बार अपना पूरा साजो-सामान लेकर और साथ में था उसका बेरोज़गार पति।

रेखा के बहाने भी वही पुराने—”घर में झगड़ा हुआ है, कुछ दिन ठहरना है।”

“पापा, कुछ दिन के लिए रहने दे दीजिए,” रेखा ने कहा।

बेटा विजय खड़ा था, जैसे पहले से तयशुदा अभिनय हो, “पापा… बहन है। कुछ दिन बाद लौट जाएगी।”

विष्णु प्रसाद की नज़र खामोशी से सीता की ओर गई। सीता की आँखों में कोई शिकायत नहीं थी, बस थकावट उभर आई थी — जैसे वह दीवार पर टँगी वह तस्वीर हो, जो बरसों से एक ही जगह चुपचाप टँगी है, मगर कोई उसे अब देखता नहीं है। वो चुपचाप जाकर खाने की तैयारी में जुट गई, लेकिन वही हुआ जिसका उसे अंदेशा था,

रात को रोटियाँ कम पड़ गईं। बहू नीना ने बच्चों को सुला दिया, खुद भूखी रही। सीता ने अपनी रोटी चुपचाप पति की थाली में खिसका दी। विष्णु प्रसाद ने खाना नहीं खाया — वे खिड़की से बाहर देख रहे थे, जैसे अंधेरे में अपने भीतर की रौशनी तलाश रहे हों और उन्होंने बस इतना कहा, “कल से मैं थोड़ा जल्दी निकलूँगा… काम बढ़ गया है।”

कुछ दिन बाद… विजय फिर दोस्तों के साथ निकला, गुटखा की पन्नियाँ उड़ाईं, ठहाके मारे और खाली जेब में आत्म-सम्मान की जगह चूरन की पुड़िया डालकर लौट आया।

शाम ढलने को थी, जब विजय दोस्तों के संग लौटते हुए गली में पहुँचा था। बाज़ार में चाट-पकौड़ी खाकर बेफिक्र होकर जैसे ही घर के पास आया, तो सामने का दृश्य देखकर उसके कदम वहीं थम गए।

दरवाज़े के बाहर भीड़ जमा थी। मोहल्ले वाले कानों ही कानों में कुछ फुसफुसा रहे थे। रेखा और उसका पति बाहर खड़े थे—हैरान, अपमानित, मौन। नीना और दोनों बच्चे एक ओर थैले-कपड़े और किताबों के ढेर संग खड़े थे।

“क्या हुआ?” विजय ने घबरा कर पूछा।

भीड़ में से किसी ने कहा, “आपके पिताजी ने सबको घर से बाहर कर दिया है। कह रहे हैं, सब अपने-अपने घर जाओ।”

विजय दौड़कर दरवाज़े पर पहुँचा, ज़ोर से आवाज़ दी—”पापा! ये क्या कर रहे हैं आप?”

अंदर से जो आवाज़ आई, वह न तो ऊँची थी, न गुस्से से भरी। पर उसमें एक ऐसी दृढ़ता थी, जिसने पूरी गली को खामोश कर दिया, “हमने ये घर ईंट-सीमेंट से नहीं, अपने पसीने और स्वाभिमान से बनाया है, बेटे। अब ये बोझ नहीं सह पा रहा। आज पहली बार इस घर ने मुझसे कहा—बस बहुत हुआ। तुमने पिता को कमाने की मशीन समझा, बहन ने ममता को दोहन की ज़मीन समझ लिया। लेकिन अब हम नहीं चाहेंगे कि हमारी मेहनत हमारे ही स्वाभिमान को निगल जाए। बाहर जाओ, रोटी कमाओ। अगर मेहनत करनी है तो दरवाज़ा खुला है, वरना यह घर अब सिर्फ सम्मान के निवासियों का होगा।”

अब हमारी मेहनत की चुपड़ी रोटी खाने से अच्छा है कि तुम सब अपनी मेहनत की सूखी रोटी खाओ, मगर सम्मान से खाओ।”

भीड़ में जैसे सन्नाटा पसर गया। विजय को लगा किसी ने ज़ोर से तमाचा मारा हो—मगर यह थप्पड़ नहीं था, यह उसके मर चुके स्वभिमान पर करारी चोट थी।

नीना ने पति से कुछ नहीं कहा। उसने बच्चों का हाथ पकड़ा और पास की दीवार से टेक लगाकर बैठ गई। रेखा हकबकाई खड़ी थी—शायद पहली बार पिता की आँखों में वह नाराज़गी देखी थी, जो वर्षों से जम कर कठोर बर्फ सा हो गया था।

सीता ने अंदर से दरवाज़े की जाली खोली। आँखें नम थीं, मगर चेहरा भावहीन हुआ पड़ा था, “माफ़ करना, हमने तुम्हें सिखाने के बजाय खुद को ज़्यादा सीखा दिया…चुप रहना, सहना, देना सब कुछ। अब तुमलोग को सिखना है- खुद करना, अपना घर बनाना, अपनी मेहनत से थाली सजाना। हमारे पास देने के अब सिर्फ दुआएँ हैं और वे तभी असर करेंगी जब तुम उनका मूल्य समझो।”

उस रात विजय दरवाज़े के बाहर ही बैठा रहा। नीना बच्चों को पड़ोस की एक खाली कोठरी में ले गई। किसी ने दिल दिखाया और मदद दे दी थी। रेखा और उसका पति किसी रिश्तेदार के यहाँ वापस लौट गए थे।

सुबह होते ही विजय ने नीना को देखा, जो बच्चों के बाल सँवार रही थी और चुपचाप अपनी उधड़ी साड़ी को सिल रही थी, शायद किसी घर में काम मांगने की तैयारी कर रही थी। पहली बार विजय को खुद पर शर्म आई और उसने खुद जाकर अखबार लिया, नौकरियों के विज्ञापन देखे। लेकिन थक-हार कर पिता के पायताने आ गया।

बाजार की एक दुकान पर अब एक युवक दर्ज़ी का काम सीख रहा था। दिनभर मशीन चलाता, दोपहर को माँ के भेजे खाने में नमक कम होता, मगर अब कोई शिकायत नहीं करता।

शाम को घर लौटता, तो पिता के साथ बैठकर चुपचाप मशीन के पास काम देखता। नीना, जो पहले सिर्फ चौके तक सीमित थी, अब पास के स्कूल में सफ़ाई का काम करने लगी थी। उसके बच्चों के यूनिफॉर्म अब साफ़ होते थे और उसकी आँखों में गर्व की चमक होती थी।

अब वही पुराना ठेला था, वही पुराने विष्णु प्रसाद थे, मगर इस बार उनके पास दो कुर्सियाँ थीं। दूसरी पर पुराने कपड़े सुधारता हुआ विजय बैठा था।

गुज़रते हुए एक ग्राहक ने पूछा, “ये नया लड़का कौन है, काका?”

विष्णु प्रसाद ने हँसकर कहा, “मेरा बेटा है। अब सुई की धार और आत्मसम्मान के टाँके एक साथ चलाना सीख रहा है।”

विजय ने नजरें झुका लीं, मगर उसकी उँगलियाँ अब सधे हुए हाथों का अनुसरण कर रही थीं। वह जान चुका था कि घर केवल दीवारों से नहीं बनता, वह उस रोटी से बनता है जो मेहनत से पकाई गई हो और जिसमें नमक के साथ आत्म-सम्मान भी घुला हो।

उस रात सीता ने रसोई में गरम रोटियाँ बनाई, चटनी रखी और चार थालियाँ सजा दीं और विष्णु प्रसाद ने सबको एक साथ बिठाकर खाना परोसा। ऐसा खाना देखकर खाना छोड़ उठ जाने वाला विजय पिता के बगल में बैठा ज़िंदगी की सिलाई भी सीख रहा था।

आज रोटियों के साथ कोई ताने नहीं थे, कोई तिरस्कार नहीं था। भले ही वे रोटियाँ घी में चुपड़ी नहीं थी, लेकिन सम्मान का स्वाद उसके हर निवाले में था।

आरती झा आद्या 

दिल्ली

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