“मैं भी इन गुब्बारों की तरह मुक्त गगन में उड़ना चाहती थी पर चाहकर भी नहीं कर पाई।जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने ऐसा जकड़ रखा है कि आसमान तो बहुत दूर घर से भी बाहर निकलना हो तो सोचना पड़ता था “काश! मैं भी एक गुब्बारा होती, कोई मुझे अपने हाथों से आजाद कर देता और मैं खुले आसमान में उड़ती रहती।” सरला पोते मनीष के हाथों मे थामे गुब्बारों को देख कर सोच रही थी।
“दादी!पापा आपको बुला रहे।”पोते मनीष ने कहा ।
“आती हूँ।”सरलाजी धीरे धीरे चलते हुए बेटे के कमरे तक पहुँचीं।उनके घुटनों में दर्द रहता था जिस वजह से वे हमेशा परेशान रहती थीं पर अभी भी घर की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थी, क्योंकि बेटा-बहू दोनों ही नौकरी करते थे।घर के काम-काज के लिए नौकरानी आती थी पर… पाँच वर्षीय पोते की देखभाल उन्ही को करनी पड़ती थी ।
सुबह स्कूल के लिए तैयार करना, टिफिन बनाना, स्कूल से वापस आने पर खाना खिलाना, सुलाना फिर.. होमवर्क करवाना इत्यादि । पहले अपने बच्चों की परवरिश अब… पोते की । उन्हें बुरा नहीं लगता पर… उमर हो चली जिम्मेदारिया निभाते-निभाते…बचपन से ही लिखने का और घूमने का शौक था उन्हें पर… घर-परिवार की जिम्मेदारियों के कभी संभव ना हो पाया ।
“क्यों बुलाया बेटा?” संजय अपने फाइल में गुम था।सरला जी की आवाज सुनकर वह चौंक गया। “अरे माँ!आ गई। हाँ!मैंने बुलाया था।कल मैं और नेहा मीटिंग के लिए बैंगलोर जा रहे और थोड़ा घूमने का भी प्लान है तो आप मनीष को देख लीजिएगा।उसका स्कूल मिस नहीं होना चाहिए। एग्जामस आ रहे उसके। अच्छा हम थोड़ा शॉपिंग के लिए जा रहे।खाना लेते आएँगे ,आप हमारे ले जाने के लिए कुछ नाश्ता बना दीजिएगा।चलो नेहा! चलो मनीष!
सरलाजी के जवाब का इंतजार किए बिना सभी निकल गए। सरला जी सभी को देखते रह गईं।
अभी तो वे गुब्बारे की तरह उड़ना चाह रही थीं पर यहाँ तो उन्हें जिम्मेदारी के धागे से घर में बाँध दिया गया।
वे चुपचाप किचन में जाकर नाश्ते बनाने लगीं। हाथ मैदा गूँधने में लगे थे और आँखों से आँसू बहने लगे,तभी एक आवाज आई।
“कितना काम करती हो!कभी तो आराम कर लिया करो सरला!” सरला जी चौंक गईं।
“अरे आप!कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही?”
“सपना नहीं है सरला.. पर सच भी नहीं है क्योंकि मैं तो तुम्हे कब का अकेले छोड़ कर चला गया हूँ पर ये भी सच है कि … मैं हर पल तुम्हारे साथ हूँ इसलिए तुम्हारा साथ देने आ गया।जाओ आराम करो।”
“पर आपने सुना नहीं?”
“सब सुना इसलिए तो कह रहा हूँ कि …जाओ आराम करो। बहुत कर लिए जीवन में समझौते… कभी मायके और ससुराल के लिए , कभी मेरे लिए तो कभी बच्चों के लिए, ख़ुद के लिए कभी सोचा नहीं, पर अब नहीं…जीवन में #समझौते अब नहीं…खुद को एक गुब्बारे की तरह उड़ने दो।”
सरला जी चौंक गईं। “ये तो मेरे दिल की बात ..आप कैसे जान गए?”
“कहा न !तुम्हारे साथ हूँ।बहुत जिम्मेदारियाँ तुमने निभाईं ,अब नहीं।कल ही संजय से कहो कि अब तुम अपनी और अपने घर की जिम्मेदारी सँभालो और मुझे अपनी बची जिन्दगी से कुछ साल अपने लिए दे दो। मैं भी मदद करूँगी पर जिम्मेदारी तुम्हारी है और तुम ड़रती क्यों हो? तुम्हारे नाम पर घर है,पेंशन आ रही फिर क्या दिक्कत है,आराम से ऐश करो।अच्छा चलता हूँ!आराम करो।”
“मत जाइए न!आपके अलावा कौन है मेरा?सुनिए….।”
पर… मिस्टर सिन्हा जी जा चुके थे ।लेकिन सरला जी को हिम्मत और हौसला दे कर,जिनकी उन्हें इस समय जरूरत थी।
सरला जी ने किचन की लाइट बंद कर दी और मैदे को फ्रिज में रखकर भूखे पेट सोने चली गईं।
सुबह सरला जी सूटकेस के साथ कहीं जाने को तैयार थीं।
“माँ!कल आप सो गईं?खाना भी नहीं खाया और कहाँ जा रहीं आप?आज तो हमे निकलना है।”
“नहीं बेटा!मुझे भी निकलना है।तेरी मौसी के यहाँ दिल्ली जा रही और वहाँ से चारों धाम के लिए निकल जाऊँगी।बहुत जिम्मेदारी निभा ली ,अब तो मुझे अपनी जिन्दगी जीने दो।पता नहीं कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए ,बची खुची जिन्दगी के कुछ साल तो अपने लिए जी लूँ।तुम लोग चले जाओगे तो क्या मनीष का मन पढ़ाई में लगेगा?इससे अच्छा है तुम लोग उसे साथ ले जाओ।अच्छा मैं निकलती हूँ,फोन करती रहूँगी।”सरलाजी निकल गईं।
संजय और नेहा देखते रह गए और माथे पर पसीने की बूँदे थीं क्योंकि उन्हें अब आगे का सोचना था कि वे क्या और कैसे करेंगे क्योंकि सरलाजी के रहते उन्हें कभी घर और मनीष की चिंता ही नहीं थी और उन्होंने कभी भी अपनी माँ की पसंद-नापसंद या माँ क्या चाहती है??? जानना ज़रूरी नहीं समझा, बस…अपना अधिकार समझ सब जिम्मेदारियाँ उन पर डालते गए।
आज… उनकी अहमियत समझकर भी वे कुछ नहीं कर सकते थे।
और उधर सरला जी ने मन ही मन कहा…” बाक़ी बचे जीवन में # अब कोई समझौता नहीं “।बहुत जिम्मेदारी निभा ली हमने ,कुछ साल तो खुद के लिए जीना है बस!
संध्या सिन्हा