समधन जी, आपको मेरा दर्द तब महसूस हुआ; जब आपने खुद वही दर्द सहा!- चेतना अग्रवाल

“हेमा बेटा, अपनी सास से होशियार रहना… बहुत सीधी बनती है। अपना ये सीधापन दिखा कर तुम दोनों को अपने जाल में फँसा लेगी। तुम इसकी सेवा ही करते रह जाओगे सारी जिंदगी। किसी तरह दामाद जी से कहकर अपनी रसोई अलग कर ले।” सुलोचना जी फोन पर अपनी बेटी को समझा रही थी। “हाँ माँ, तुम चिंता मत करो। तुम्हारा दामाद मेरी मुट्ठी में है। वो मेरी बात का ही विश्वास करते हैं। जल्दी ही हम अलग घर लेने वाले हैं।” हेमा ने अपनी माँ को भरोसा दिलाया। लक्ष्मी जी और प्रशांत जी का एक ही बेटा है, जतिन… उसकी शादी उसकी पसंद की लड़की हेमा से हुई है। शादी के समय तो हेमा और उसकी माँ के बहुत से वादे थे कि हेमा घर को जोड़कर चलने वाली लड़की है। वो हमेशा अपने सास-ससुर को अपने माता-पिता जैसे मानकर उनकी सेवा करेगी। हेमा के इस अच्छे स्वभाव पर मुग्ध होकर लक्ष्मी जी इस शादी के लिए राजी हो गई। उन्हें तो हेमा में अपनी बेटी नजर आने लगी थी।

उन्हें लगने लगा था कि हेमा के आने से उनके जीवन में बेटी की कमी पूरी हो गई। लक्ष्मी जी ने अपने आप से किये वादे को निभाया भी…. हेमा को कभी बहू नहीं समझा… कभी उससे ज्यादा काम नहीं कराये। सुबह लक्ष्मी जी ही सबका नाश्ता बना देती, खाना बनाने के लिए भी वो कभी हेमा से नहीं कहती। सारे दिन के काम वो अकेले ही करती रहती। इस पर भी हेमा जैसे खुश नहीं थी। उसे तो सास-ससुर की मौजूदगी ही नहीं सुहाती थी। जतिन के साथ शादी तो उसके लिए एक मकसद की तरह ही था। वो तो उसके पैसे पर रानी बनकर राज करना चाहती थी। इसीलिए हेमा ने जतिन को अपने रूप के जाल में फ़साना शुरू कर दिया। अब तो जतिन को हेमा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता था। धीरे-धीरे हेमा ने जतिन से अपने सास-ससुर की शिकायतें शुरू कर दी। “सारा दिन दोनों एक तरफ बैठकर गुटर गूँ करते रहते हैं, सारा काम मुझे अकेली को करना पड़ता है। मैं तो अपनी माँ के घर जा नहीं सकती, तुम तो अपनी माँ के साथ ही रहते हो। मुझे खर्च के लिए एक भी पैसे के लिए तुम्हारे मम्मी-पापा के आगे हाथ फैलाना पड़ता है।” वगैरह-वगैरह… ऐसी ही ना जाने रोज कितनी ही बातें होती थी, जो हेमा जतिन से नमक-मिर्च लगाकर कहती थी। लक्ष्मी जी कभी-कभी हेमा को समझाती कि बेटा तुम हमेशा इतना नाराज क्यों रहती हो। उस पर भी हेमा उन्हें झिड़क देती।




अब यूँ अच्छा बनने का दिखावा मत करो। सब आपको वजह से है, हम जल्दी ही दूसरे घर में रहने चले जायेंगे। एक दिन लक्ष्मी जी ने हेमा को अपनो माँ से बात करते हुए सुन लिया। उन्हें बहुत दुख हुआ कि एक माँ अपनी बेटी का घर तोड़ने पर लगी है। लक्ष्मी जी ने सीधे हेमा से कहा, “समधन जी ये सही नहीं कर रही हैं। वो तुम्हें मेरे खिलाफ भड़का कर क्या साबित करना चाहती हैं। मत भूलना कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती। मेरा जी दुखाकर तुम भी चैन से नहीं रह पाओगे।” उस दीन से हेमा लक्ष्मी जी के साथ और ज्यादा बुरा व्यवहार करने लगी। और एक दिन वो पल भी आ ही गया जिस दिन जतिन और हेमा घर छोड़कर चले गये। लक्ष्मी जी का दिल टूट गया। वो तो अपनी उम्र से पहले ही बूढ़ी लगने लगी थी। उन्हें अपने बेटे से ऐसी उम्मीद नहीं थी। खैर किसी को जबरदस्ती अपने पास रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। लेकिन उनके मुँह से हाय जरूर निकल रही थी।

बेटी के अलग घर लेकर रहने से सुलोचना जी बहुत खुश थी। अब तो हेमा के भाई-बहन बेरोक-टोक उसके घर आते थे। हेमा का भी एक ही भाई था। चार बहन और एक भाई… सबसे छोटा… चारों बहनों का दुलारा… एक-एक कर चारों बहनों की शादी हो गई। अब तक शिवम भी बड़ा हो गया था। अब घर में शिवम के रिश्ते की बात चलने लगी। लेकिन सुलोचना जी की ज्यादा मीन-मेक निकालने की आदत की वजह से उन्हें कोई लड़की पसंद नहीं आती थी। वैसे भी उन्होंने अपनी बेटी के ससुराल वालों को जैसा दुखी किया था, तो वो यही सोचती थी कि कहीं ऐसा हो लड़की ना आ जाये। शिवम की उम्र निकलती जा रही थी, लेकिन सुलोचना जी कोई लड़की पसंद नहीं आ रही थी। इस साल शिवम 32 साल का हो गया या। लेकिन अभी तक सुलोचना जी को बहू का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ था। एक दिन सुलोचना जी के भाई ने उन्हें एक रिश्ते बताया। लेकिन लड़की पहली शादी से तलाकशुदा थी और उसके एक लड़की भी थी।




उम्र अधिक होने की वजह से कोई अच्छा रिश्ता तो मिल नहीं रहा था तो इसी लड़की से शिवम की शादी कर दी गई। अभी शिवम और नेहा की शादी को 15दिन भी ना हुए थे कि नेहा और सुलोचना जी में कहा-सुनी शुरू हो गई। नेहा तो पहले से जानती थी कि ऐसे टेढ़े लोगो को कैसे मैनेज करना है। आखिर इतने साल उसने भी ऐसे ही लोगों के साथ काटे थे। नेहा नौकरी भी करती थी तो पीछे से उसकी बेटी को सुलोचना जी ही सँभालती। एक दिन सुलोचना जी की सहेली उनसे मिलने आई, “अरे सुलोचना, बच्ची को तुम सँभालती हो। कौन सा तुम्हारी सगी पोती है, बहू का सही है… अपनी बच्ची को तुम्हारे सिर पर बैठाकर खुद नौकरी पर चली जाती है।” सहेली ने सुलोचना जी पर आगे में घी डालने का काम किया। उस दिन शाम को जब शिवम और नेहा घर आये तो सुलोचना जी ने अपना फैसला सुना दिया, “अब बच्चे पालने की मेरी उम्र नहीं है। तुम इसका कुछ और इंतजाम करके जाया करो, वरना नौकरी छोड़ दो। मैं तुम्हारी नौकर नहीं… सुलोचना जी की बात सुनकर नेहा ने उसी समय हंगामा कर दिया, “अब मैं इस घर में नहीं रहूँगी।” शिवम ने भी उस दिन नेहा का साथ दिया और उसी दिन घर छोड़कर दूसरे घर में शिफ्ट हो गये। पीछे सुलोचना जी अकेली रह गई।

आज उनके पास कोई नहीं… आज उन्हें लक्ष्मी जी का दर्द समझ आ रहा था। सुलोचना जी ने उसी समय लक्ष्मी जी को फोन किया और उनसे अपने किये इस अपराध की क्षमा माँगी।” लक्ष्मी जी बोली, “जिस दिन मेरा बेटा जतिन और बहू घर छोड़कर गये थे तो मैं भी बहुत रोई थी। जबकि मेरे पास तो रोने का भी कोई सहारा नहीं था। समधन जी इसीलिए कहते हैं कि जाके पाँव न फटी बिवाई, से क्या जाने पीर पराई!!” आपने मेरे बेटे-बहू को मुझसे अलग किया, जबकि आप भी जानती थी कि आप मेरे साथ कितना गलत कर रही हैं। भगवान ने भी पहले आपको बहू का सुख मिलने को तरसाया। फिर अपने से बड़ी उम्र की लड़की से शादी करनी पड़ी, जो पहले से ही सास-बहू के झगड़ों में पारंगत थी। और शादी होते ही उसने रंग दिखा दिया। वो भी आपके बेटे को आपसे अलग ले गई। तब आपको मेरा दर्द महसूस हुआ। जब आपके खुद के ऊपर वही दुख पड़ा।” आज सुलोचना जी को अपनी गलती महसूस हो रही थी। लेकिन अब क्या हो सकता था, अब तो वो अपनी बेटी को गलत शिक्षा दे चुकी थी, जिसकी भरपाई उनकी बहू ने वही शिक्षा पाकर कर दी। दोस्तों ये एक सच्ची घटना पर लिखी कहानी है। लोग दूसरे के दुख को तब तक नहीं समझते, जब तक उनके साथ ऐसा नहीं होता। आपको मेरी कहानी कैसी लगी। लाइक और कमेन्ट करके बताइए। मेरी कहानी मौलिक और स्वरचित है। धन्यवाद चेतना अग्रवाल

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