रज्जी ! : उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

     आज रज्जी ने बुझे मन से घर में प्रवेश किया। हमेशा ही घर में चहकते हुए प्रवेश करने वाली अपनी गृह सहायिका रज्जी के उतरे चेहरे को देखकर जब सरिता जी ने उससे उदासी का कारण पूछा तो उसने बताया कि नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाली उसकी आठवीं से नौंवी में पहुंची छोटी बेटी के स्कूल से आए एक फोन से उसका मन बहुत परेशान हो गया है।

दरअसल स्कूल वाले अब उसे एक वर्ष के लिए ‘पंजाब’ से बाहर दूसरे राज्य ‘मध्य प्रदेश’के एक स्कूल में भेज रहे हैं और उसकी बेटी ने रो-रो कर अपना बुरा हाल कर लिया है, क्योंकि वह मेरे से अलग इतनी दूर नहीं जाना चाहती है। 

       रज्जी स्वयं भी यूं अचानक अपनी बेटी को, प्रदेश से बाहर भेजने का कारण समझ नहीं पा रही थी। अतः सोच-सोच कर परेशान थी कि हर जगह का अपना-अपना रहन-सहन होता है। न जाने उस स्कूल का माहौल कैसा होगा ? बेटी का मन वहां लग पाएगा या नहीं और सबसे बड़ी बात कि उसकी बेटी वहाँ सुरक्षित भी रहेगी या नहीं । फिर ,एक साल तक इतनी दूर वह अपनी बेटी को मिलने कैसे जाया करेगी ?

   सरिता जी ने उसे ढांढस बंधाया और इस विषय में सारी जानकारी लेने की दृष्टि से उसकी बेटी के स्कूल में फोन मिलाया। जब प्रिंसीपल ने सर्वप्रथम उनसे, रज्जी की बेटी से उनका संबंध पूछा तो उन्होंने रज्जी को अपनी ‘मेड’ बताकर ‘गृह सहायिका’ के रूप में परिचय दे दिया। रज्जी उनके पास ही खड़ी थी।

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यह जान कर कि माइग्रेशन की नियमावली के तहत यह निर्णय लिया गया है, सरिता जी सारी बात समझ गईं और उन्होंने रज्जी को तसल्ली दी कि घबराने की जरूरत नहीं है । इसमें उसका भला ही होगा क्योंकि इससे उसकी बेटी को अपरिचितों के समक्ष खुलने के और अवसर मिलेंगे, जिससे उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वह वहां से अधिक समझदार हो कर लौटेगी।

    लेकिन अचानक न जाने क्यों, रज्जी के सामने ही रज्जी का अपनी ‘मेड’ के रूप में परिचय देने से उनके मन में एक शंका पैदा हो गई। साफ- सुृथरे पहरावे वाली रज्जी उनके घर में पिछले सात-आठ वर्ष से काम कर रही है।वह स्वाभिमान से लबालब भरी है। साधारण रूप से

दूसरे घरेलू सहायकों की तरह न खाने-पीने का कोई लालच, न कभी अपने लिए किसी विशेष वस्तु अथवा वस्त्र की मांग। यहां तक कि विशेष अवसरों पर दी गई मिठाई और उपहारों को स्वीकार करते समय भी मुस्कुराते हुए उसका तकिया कलाम ”आंटी जी ! रहने देना था..” ही होता है।

     और तो और कुछ माह पूर्व ही उसने अपनी पगार से थोड़े-थोड़े पैसे कटवा कर ऋण पर पुुरानी स्कूटी खरीदी है ताकि वह अपना समय बचा कर एक-दो घरों का काम और पकड़ सके और अपने बच्चों को और भी अच्छा जीवन दे सके।

अतः उसके व्यवहार तथा रहन-सहन को देखकर ही न जाने क्यों सरिता जी के मन में शंका हुई कि पता नहीं इस स्वाभिमानी रज्जी ने बेटी के स्कूल में अपने काम का सही परिचय दिया भी है या नहीं और उन्होंने उसे पूछ ही लिया कि बेेटी के अध्यापकों और प्रिंसीपल को पता है न कि तुम झाड़ू- चौका- बर्तन का काम करके अपनी दोनोंं बेटियों को पढ़ा रही हो।       

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      लेकिन प्रत्युत्तर में उसका तर्क सुन कर सरिता जी स्वयं ही शर्मिंंदा हो गई , “हां आंटी जी, सब पता है उनको ! आपने ऐसा क्यों पूछा मुझसे? मैंने अपना काम क्यों नहीं बताना था उनको ? इसी काम की बदौलत तो मैं अपनी रोजी-रोटी कमाती हूं । इसी मेहनत की रोटी से मेरी बेटियाँ आज यहां तक पहुंच गई हैं। फिर, स्कूल वालों को भी तो पता लगना चाहिए न  कि पढ़ाई सिर्फ़ पढ़े- लिखे और पैसे वालों के

बच्चों के हिस्से की चीज नहीं है। हम गरीब लोग भी इसे पाने लिए अपने जीवन की जंग लड़ रहे हैं। हम भी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए रात-दिन मेहनत करते हैं। फिर भी , एक बात तो पक्की है आंटी जी, कि मैं अपनी बेटियों को, अपने जैसे, घर-घर घूमते हुए झाड़ू-चौका-बर्तन नहीं करने दूंगी। वे पढ़-लिखकर किसी अच्छी जगह नौकरी करेंगी और आज स्कूल से मिली सारी जानकारी ने तो मेरी उम्मीद और हौंसला और भी ज्यादा बढ़ा दिया है।” 

        सरिता जी रज्जी के चेहरे पर आई कठोर परिश्रम और आशा की चमक को मुंह बाए देखती रह गईं।  रज्जी के स्वरों से वे यह समझने का प्रयास कर रही थीं कि इनमें अमीरी-गरीबी में बंटे समाज के प्रति उसका गुस्सा बोल रहा है या अपनी अनपढ़ता के दर्द को वह बेटियों को पढ़ा कर मिटाना चाहती है या फिर असल में अपने बेबाक-अंदाज में वह  शिक्षा के प्रति अपनी जागरुकता को ही स्पष्ट कर रही है। 

   खैर …जो भी हो ! सरिता जी इस बात से खुश थीं कि यह तो स्पष्ट था कि रज्जी इस भेदभाव वाले समाज के विरुद्ध एक खतरनाक जंग लड़ रही है और अपनी इस जंग के बल पर वह अपने वर्ग में परिवर्तन का पूरा दमखम रखती है।

     उन्हें लगा कि समाज के लिए यह शुभ संकेत है।

 #सम्मान की सूखी रोटी 

 उमा महाजन 

कपूरथला 

पंजाब

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