जगदीश बाबू को पकौड़ियाँ बहुत पसंद थी ।सभी को पसंद होती है पर उन्हें कुछ ज्यादा। जब भी घर में कढी बनती तो बसंती देवी को सख्त हिदायत थी,पहले एक प्लेट पकोड़ी जगदीश बाबू के लिए।
कई बार बसंती देवी हंस कर बोलती,
“देख लो, सोमेश के बाबूजी,तुम्हारी यह आदत कब जायेगी।”
अब तो बीपी की भी शिकायत हो गई।ज्यादा तला-भुना मत खाया करो। एक दो पकौड़ी ठीक हैं कढ़ी के साथ… पर यह प्लेट भरके खाना… ठीक नहीं। पिछली बार डा. साहब ने भी मना किया था।”
” अरे ,यह सब तो उनके पैसे कमाने के तरीके हैं। तुम समझती नहीं, यदि वो हमे बीमारी के नुकसान नहीं बताएगा तो कौन उनको पैसा देगा। वह हमे मौत से डराते हैं। जीना हैं तो बिंदास जियो। कुछ न होता एक प्लेट पकौड़ी खाने से।”
जगदीश बाबू ने कहा और झट से पकौड़ी की प्लेट ली
और गपागप चटनी के साथ एक के बाद एक पेट में समाती गई।
“भई, कुछ भी कहो, जो आनंद तुम्हरे हाथ की पकौडियो में हैं वह किसी चीज में नहीं।”
यह सुनते ही बसंती देवी इस उम्र में भी शरमा जाती।
“बस ,रहने दो, आप भी।”
जगदीश बाबू के चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव आ जाता था।
छोटी मोटी, नोंकझोंक के साथ जिंदगी की गाड़ी चलती जा रही थी।
फिर वही हुआ, जो अक्सर होता हैं, सारा दिन जगदीश बाबू को सेहत का ज्ञान देने वाली बसंती देवी अचानक से हल्का सा बुखार आया और चल बसी। किसी को कुछ समझ में नहीं आया, क्या हुआ? डॉक्टर तो यही बोलते हैं साइलेंट हार्ट अटैक आया है। जगदीश बाबू की तो जैसे दुनिया ही रुक गई।
दोनों बच्चों की शादी हो चुकी और दोनों अपने-अपने परिवार के साथ शहर से दूर रहते हैं। तेरहवीं का दिन आया और अगले दिन बिटिया भी अपनी ससुराल चली गई और बेटा सोमेश अपने जाने की तैयारी कर रहा था।
“बाबूजी मैं सोच रहा हूं कुछ दिन आप हमारे साथ चलिए। यहां अकेले रहना तो मुश्किल हो जाएगा। मैं भी बार-बार आपको देखने नहीं आ सकता।”
सोमेश ने अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए बोला।
“कैसे इस घर आंगन को छोड़कर कैसे जाऊं? मैं तो तुम्हारी मां के बिना कभी एक दिन भी नहीं रहा। तुम बोल रहे हो शहर को ही छोड़ कर चले जाओ।”
जगदीश बाबू ने साफ नकार दिया।
सोमेश की पत्नी सविता ने बच्चों का हवाला दिया और बहुत प्यार से समझाया
“बाबूजी हम सब भी तो आपके अपने हैं। हमारे साथ रहोगे तो आपका मन बहल जाएगा। बच्चों के साथ आपको भी अच्छा लगेगा।”
खैर जगदीश बाबू भी मन मार कर अपना कपड़े रख बच्चों के साथ चल दिए। यह जरूर है इस घर से बसंती देवी की यादें जुड़ी है। वह भारी मन से सोमेश के साथ दिल्ली चले गए।
सोमेश बाबू ने जगदीश बाबू ने बच्चों के साथ अपने आप को व्यस्त कर लिया। उनको पढ़ाते ,उनके साथ खेलते और शाम को पार्क जाते। जिंदगी की रेल फिर से पटरी पर चलने लगी। कभी-कभी सावित्री की बातों से जगदीश बाबू परेशान हो जाते, उन्हें बसंती देवी की याद आ जाती। पर घर की शांति को देखते हुए चुप रह जाते।
आज जैसे ही सुबह सैर करके लौटे,तो रसोई घर में से कढी की खुशबू आ रही थी। जगदीश बाबू का मन मचल उठा। सोचने लगे कढ़ी बनी है तो पकौड़ियां भी बनी होगी।
कहते हैं ना बुढ़ापे में मन बच्चा सा बन जाता है। चल दिए रसोईघर की ओर।
तभी सावित्री जगदीश बाबू को देखकर बोली
“आपकी चाय रखी है बिस्कुट के साथ पी लीजिए। मैं तैयार हो रही हूं मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है।”
पर जगदीश बाबू को बिस्कुट कहां खाने थे उन्हें तो पकौड़ियों की खुशबू ने परेशान कर रखा था। पकौड़ियों के साथ बसंती देवी के साथ बीते पल भी तो याद आ जाते थे।
जगदीश बाबू ने एक दो डिब्बे खोलकर देखें तो उन्हें पकौड़ियां मिल गई। बिना किसी से कुछ पूछे उन्होंने एक प्लेट में चटनी रखी और पकौड़ियां ले बालकनी में बैठकर खूब मजे से खाई। पकौड़ियों के साथ बसंती देवी की यादों में खो गए।
तभी रसोई घर से कुछ शोर सुनाई दिया। जगदीश बाबू ने सोचा कुछ महरी से बात हो रही होगी।
सोमेश आया और गुस्से से बोला, क्या पिताजी, इस उम्र में भी, आप बच्चों जैसी हरकते करते हो? क्या हो गया आपको?”
जगदीश बाबू हैरान परेशान देख रहे थे और उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था।
“बेटा हुआ क्या?, क्या किया मैने?”
अच्छा जी अब आपको यह भी नहीं पता। जब सारी पकौड़ियां चटनी के साथ खा रहे थे तब भी कुछ नहीं याद।”पीछे से सावित्री ने आकर अपने मन की भड़ास निकाल।
“पकौड़ियां ही तो खाई है बेटा, कोई अपराध तो नहीं किया मैने!”जगदीश बाबू की आंखों में आंसू और वह अपनी सफाई दे रहे थे।
” आपको पता है वह पकौड़िया मैंने कढ़ी के लिए रखी थी। मुझे और सोमेश दोनों को ऑफिस के लिए देर हो रही है। टिफिन के लिए क्या मैं दोबारा से पकौड़िया बनाऊँ एक बार पूछ ही लिया होता।”
सावित्री ने गुस्से में बोला।
“पिताजी, आपको पता हैं, इतना तला हुआ खाना आपको मना हैं। कुछ तो अपनी उम्र का लिहाज कर लिया करो। तंग आ गया हूं आपसे।”सोमेश लगभग चिल्लाते हुए बोला
जगदीश बाबू कुछ नहीं बोल रहे, केवल आंखों से आंसू… आज बसंती देवी बहुत याद आ रही थी। मना तो वह भी करती थी,परंतु मनुहार से। ऐसे कभी जलील नही किया।
जगदीश बाबू ने कमरे में जाकर अपना सामान समेटा और मोबाइल से कैब बुक की, बस स्टैंड जाने के लिए।
” अब यह नया ड्रामा… मुझे तो पहले ही ऑफिस के लिए देर हो रही हैं, अभी बैठिए, शाम को आकर बात करते हैं।”सोमेश ने बात को संभालने की कोशिश की। पर तब तक देर हो चुकी थी।
” बेटा,इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, पकौड़ियों खाई है तो कीमत तो चुकानी पड़ेगी। जा रहा हूं तुम्हारी मां की यादों के संग जी लूंगा।”
कहकर जगदीश बाबू कैब की तरफ बढ़ गए।
रेखा मित्तल
चंडीगढ़