नौका-दुर्घटना –  मुकुन्द लाल 

  जयमंती के घर में ऐसा लग रहा था मानों लोगों को खुशियों का खजाना हाथ लग गया हो। घर का माहौल उमंग-उत्साह से लबरेज था।

  उस घर में शादी की लगभग सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी। पूजा-भंडार से सारी सामग्रियांँ आ चुकी थी। पड़ोस के दो लड़के आम के पत्ते और हरी दूब लाने के लिए बाग की ओर निकल गये थे। 

  घर का वातावरण हास-परिहास, हंँसी-ठिठोली और रोमांच में डूबा हुआ था। 

  दो बच्चों की माँ जयमंती की शादी अपने ही पति से दुबारा कराने की रस्म अपने ही घर में कराने का सारा प्रबन्ध हो चुका था। हरी दूल्हा का वस्त्र धारण करके पंडितजी के आने का इंतजार कर रहा था। 

  गंगा में हुई नौका-दुर्घटना में हरी का नाम भी मृतकों की सूची में शामिल होने की सूचना मिलते ही उसके घर में कोहराम मच गया। घर का परिवेश रुदन-क्रंदन से कंपित होने लगा। उस नौका पर हरी भी सफर कर रहा था। गंगा के तट पर लगने वाले मेले में वह भी गया था। 

  गांव में हरी की मृत्यु की खबर आग की तरह फैल गई, जिसने भी सुना वह उसके घर की ओर शोकाकुल परिवार को दिलासा व सांत्वना देने के लिए दौड़ पड़ा। उसकी पत्नी जयमंती का बुरा हाल था। वह फूट-फूटकर रो रही थी। देखते-देखते उसकी कलाइयांँ चूड़ी विहीन हो गई थी। मांग का सिन्दूर धुल गया। उसके विलाप की मर्मस्पर्शी आवाजों से लोगों का कलेजा मुंँह को आ रहा था, उनकी आंँखें भींग आई थी। ग्रामीणों, पड़ोसियों और उसके परिजनों का दल उसे धीरज बंधा रहा था लेकिन पीड़िता पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। उसका विलाप जारी था। उसकी आंँखों से आंँसू निरंतर बह रहे थे। अपनी माँ को रोता देख उसके दोनों बच्चे नील और मीरा भी फूट-फूटकर रोने लगे। जयमंती का भरा-पूरा संसार उजड़ गया था। 

  उसके सास-ससुर बुजुर्ग थे।  थोड़ी दूरी तय करना भी उनके लिए बहुत मुश्किल था। ऐसी परिस्थिति में उसके संबंधियों और उसके परिजनों का दल दुर्घटना स्थल की ओर प्रस्थान कर गया। वहांँ पहुंँचने पर उन लोगों को एक शव दिया गया यह कहकर कि यह हरी का शव है। शव का चेहरा विकृत हो गया था। उसके संबंधियों ने उसका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया फिर मृत्यु प्रमाणपत्र लेकर गांव लौट आया। 

  जयमंती की लहलहाती गृहस्थी उजड़ गई थी। उसको एक-एक पल काटना पहाड़ की तरह मालूम पड़ता था। उसके जीवन की बगिया उजड़ गई थी। उसका चमन वीरान हो गया था। गांव और पास-पड़ोस की दकियानूसी औरतों के तानों-उलाहनों व व्यंग्य भरी बातों से उसका दिल छलनी हो जाता था। उनके कड़वे संवाद उसके कलेजे में नश्तर की तरह चुभते थे फिर भी वह कोई जवाब नहीं देती थी अपितु विलख-विलख कर रोने लगती थी। 



  कुछ लोग कहते कि अपनी मेहरारू(पत्नी) की ढिलाई के कारण ही उसका जब मन होता शैर-सपाटा के लिए निकल जाता। उसकी पत्नी के दिमाग को लकवा मार दिया था जो इतनी ठंड में तीर्थाटन करने की छूट दे दी थी बिना सोचे समझे। 

  उसी झुंड में से कोई दूसरा कहता कि यह सब बूढ़े-बुजुर्ग की गलती का नतीजा है, औरत बेचारी क्या करेगी, औरत को तो मर्द गाजर-मूली समझता है, उसकी बात तो मानना बहुत दूर की बातें हैं। 

  उसकी किस्मत में दुख भोगना लिखा हुआ था सो उसके ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। इस विपत्ति के वज्रपात ने उसके गृहस्थ-जीवन को तहस-नहस करके रख दिया। 

  वक्त के साथ सब कुछ बदलने लगा था। 

  महीना लगते-लगते नई-नवेली दुल्हन की तरह सज-धज कर, श्रृंँगार करके जीवन व्यतीत करने वाली जयमंती सफेद वस्त्रों में लिपटी श्रृंँगार विहीन और सादा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो गई थी। उसका दुख सागर की तरह अथाह तो था ही, किन्तु उसे अब अपने बच्चों के भविष्य की चिंता  भी सताने लगी थी। दोनों बच्चों के मुरझाये हुए चेहरों को देखकर उसका दिल हाहाकार कर उठता था। मर्माहत हो उठता था उसका अंतर्मन। 

  उसे अपने ही घर में उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा था। उसके जेठ को अपने खेतों में अकेले खटना पड़ रहा था। खेती-बारी और परिवार का सारा बोझ उसके मर्द के सिर पर आ जाने के कारण जेठानी मौका मिलते ही उसे प्रताड़ित करने से नहीं चूकती थी। उसकी बातों का कोई जवाब नहीं देती थी परन्तु उसकी आंँखें बरसने लगती थी। ऐसे बर्ताव उसके दुख को कई गुणा बढ़ा देते थे। 

  जिन्दगी के सफर में अपने पति के छोड़कर चले जाने की दुखद घटना का असर जयमंती पर ऐसा पड़ा कि तीन माह का समय उसे तीस साल के समय को व्यतीत करने जैसा लग रहा था। 



  ऐसी ही परिस्थितियों में उस दिन तनावों और चिन्ताओं से ग्रस्त वह अपने घर की कोठरी से निकलकर आंँगन में आई तो अचानक उसने अपने पति हरी को घर में प्रवेश करने वाले दरवाजे पर खड़ा देखा, उसे पहले अपनी आंँखों पर भरोसा नहीं हुआ लेकिन हरी अपनी पत्नी के सामने कुछ दूरी पर जीवित खड़ा था। पलक झपकते ही वह दौड़कर दरवाजे पर पहुंँच गई। उसके मलीन चेहरे पर खुशियों की तरंगें झिलमिलाने लगी। उसके लिए यह चमत्कार जैसा था। क्षण-भर में ही उसका भ्रम दूर हो गया। वह तेजी के साथ अपने पति का चरणस्पर्श करने के लिए झुकी ही थी कि हरी ने उसे उठाकर अपने गले से लगा लिया। 

  दोनों की आंँखों से आंँसू बहने लगे थे। 

  दरअसल हरी की दुर्घटना में मौत नहीं हुई थी। नौका-दुर्घटना के समय वह नाव पर से छलांग लगाकर बच गया था। वह तैरकर एक अन्य नाव तक पहुंँचा, जिसपर सवार होकर वह गंगा के किनारे तक पहुंँच गया। इस दुर्घटना में उसके सारे कपड़े-लत्ते और रुपये-पैसे तो गंगा में डूब ही गये। एक पुराने छोटे से मोबाइल से भी हाथ धो देना पङा। इसके बाद वह पटना जंक्शन पहुंँचा। जहाँ पर कई ट्रेनें खड़ी थी। एक ट्रेन पर वह सवार हो गया। इस जद्दोजहद में वह बहुत थक तो गया ही था, इसके साथ ही वह दिग्भ्रमित भी हो गया था। ट्रेन की सीट पर बैठते ही उसे नींद आ गई। जब उसकी नींद खुली तो वह बंगाल रेल पुलिस के घेरे में था। हरी को बिना टिकट यात्रा करने के जुर्म में जेल भेज दिया गया। कई सप्ताहों के बाद उसी जेल में पटना का एक ट्रक-ड्राइवर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने के जुर्म में आया। उसकी राम-कहानी सुनने के बाद उसने अपने मालिक से कहकर उसे रिहा करवाया। उसका मालिक रिहाई के बाद उसे अपने साथ अपना घर लेते गया। वहाँ से भाड़ा आदि देकर उसे विदा किया। 

                   उसके परिवार के लोगों ने निर्णय लिया कि जयमंती की शादी दुबारा हरी के साथ करवाई जाएगी। 

  इसी निर्णय के तहत शादी की तैयारियाँ जोरों पर थी। 

  पंडितजी के आने के बाद शादी पारम्परिक रीति-रिवाज के अनुसार हर्ष व उल्लास के वातावरण संपन्न करवाई गई। 

  तीन माह से उजड़ी हुई जयमंती की मांग पुनः सिंदूर की आभा से दमक उठी। 

#कभी धूप कभी छाँव

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                हजारीबाग (झारखंड) 

                 23-12-2022

 

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