बहुत समय पहले की बात है। एक छोटा सा गांव था जिसमें एक बुज़ुर्ग दंपत्ति रहते थे – रामू काका और उनकी पत्नी। उनका कोई संतान नहीं था। वे बेहद साधारण जीवन जीते थे। गांव के लोग उनका बहुत सम्मान करते थे, क्योंकि वे सच्चे और ईमानदार इंसान थे।
एक दिन गांव में एक युवक आया – थका-मांदा, भूखा-प्यासा। उसने दरवाज़ा खटखटाया और कहा, “काका, मैं बहुत दूर से आया हूं, कई दिनों से भूखा हूं। क्या मुझे थोड़ा भोजन मिल सकता है?”
रामू काका ने मुस्कुरा कर कहा, “आओ बेटा, अंदर आओ। खाना तो ज़रूर मिलेगा।”
रामू काका की पत्नी ने प्रेम से खाना बनाया – रोटी, दाल, और थोड़ा नमक। युवक ने भोजन किया और आंखों में आँसू भर लाया।
“काका, ये नमक बहुत स्वादिष्ट है… आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं एक दिन इसका कर्ज़ ज़रूर चुकाऊंगा,” युवक ने कहा।
रामू काका हँसते हुए बोले, “बेटा, यह तो इंसानियत का फ़र्ज़ है। इसमें कोई कर्ज़ नहीं।”
वर्षों बीत गए। गांव पर एक दिन डाकुओं ने हमला कर दिया। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। उसी समय, एक सिपाही गाँव आया – घोड़े पर सवार, हथियारों से लैस। वह सैनिकों के एक दल का नेतृत्व कर रहा था। उसने डाकुओं का सामना किया और गांव को बचा लिया।
जब सब कुछ शांत हुआ, सिपाही ने रामू काका के घर आकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। रामू काका चौंक गए, “बेटा, तुम कौन हो?”
सिपाही मुस्कराया, “काका, क्या आपको याद है, एक दिन एक भूखा युवक आपके द्वार पर आया था और आपने उसे रोटी-दाल और नमक खिलाया था? वह मैं था। आज मैंने आपका और इस गांव का ‘नमक का कर्ज़’ चुकाया है।”
रामू काका की आंखें भर आईं। उन्होंने सिपाही को गले लगा लिया।
जो इंसान दूसरों की मदद करता है, उसका उपकार कभी व्यर्थ नहीं जाता। “नमक का कर्ज़” एक प्रतीक है उस एहसान और स्नेह का, जिसे सच्चे इंसान अपने जीवन में कभी नहीं भूलते।
प्रीती श्रीवास्तव