नजरिया – डॉ उर्मिला सिन्हा

  मन खिन्न था … धीरे-धीरे बड़े होते हुए बेटा बेटी .. उनकी चाहतें,जिद, उटपटांग  हरकतें उन्हें परेशान कर  डालती है।

  “पराठा , पूड़ी सब्जी ,खीर,सेव‌ई कोई खाने की वस्तु है….”नाश्ते के प्लेट को हाथ नहीं लगाते आज के  बच्चे।

    भले कालेज के कैंटीन में पिज्जा,बर्गर, फास्ट फूड, अगड़म -बगड़म खाकर अपनी भूख मिटाते हों ।लेकिन  मां के हाथों  परिश्रम  का बना हुआ   भोजन  देख  मुंह बनाने में शर्म नहीं आती।

   मां अपने दिल का दर्द किसे दिखाये।

वे भी चिढ़कर नाश्ता डस्टबिन में डाल देती … दुःख होता था  अन्न का दुरुपयोग करते। फिर

दोपहर में “यह क्या दाल-चावल .. कुछ अच्छा नहीं बना सकती …”।

“अच्छा से मतलब “वे शांत रहती  उत्तर उन्हें भी मालूम नहीं होता…

बस मुंह बनाकर खा लेते … फिर चाकलेट, चिप्स, शीतल पेय ..नाना प्रकारेण पाकेट वाली अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थ  मां को दिखाकर खाते।  मानों दाल-चावल  खाकर उन्होंने मां पर एहसान किया हो। दिनभर जुगाली….!

  फलस्वरूप स्वास्थ्यकर भोजन रूचिकर नहीं लगता था ।वे इसे खूब समझती थीं।

 अन्न की कीमत क्या है? इसे लाड़-प्यार,ऐश‌-आराम, सुविधाजनक स्थिति में पले हुए बच्चों को क्या मालूम…?

  दुःखी मन से बालकनी में आ खड़ी हुई … सामने छोटे-छोटे बच्चे जो मुश्किल से दस-बारह वर्ष के रहे होंगे. ..इस तपती दोपहरी में सिर पर ईंट उठाये , इमारत निर्माण में मज़दूरी कर



रहे हैं …पिचके गाल, सूखे होंठ…सींक-सलाई से  हाथ-पांव ,फटे-चिथडे़ कपड़े शरीर पर धारण किये हुये।

   उनके हृदय से आह निकल पड़ी….दो जून की रोटी के लिए बचपना छीन गया … यहां सुविधा-संपन्न घरों के बच्चे बात-बात पर रसोई की तौहीन करते हैं … यह जानने का प्रयास नहीं करते कि उनके पिता को  इसे कमाने में कितना पसीना बहाना पड़ता है.  .. मां रसोई में रच-रचकर कितने प्रेम से तैयार करती है …यह भोजन स्वास्थ्य के लिए कितना पौष्टिक और अनुकूल है।न पिता के  परिश्रम का  भान है न मां के  रसोई में  मरने खपने का दर्द।

    उस छोटे बाल मजदूर की चुस्ती फुर्ती पर फिदा वे निहारे जा रही थी। कितना अंतर है।

“क्या देख रही हो..”बेटा-बेटी कालेज से आ चुके थे।

 वे चौंक पड़ी। आदतन पैर रसोई की ओर मुड़ चले।

  “प्लीज़ … अब बोरिंग ..खाने के …लिए मत  कहना …हम अपने दोस्त के पार्टी से ऐश करके आ रहे हैं…”बच्चों ने कंधे उचकाये .. मुंह चटपटाये।

  बच्चों की ढीठता , उच्छ्रंखलता ने उन्हें आज आहत नहीं किया । वे कुछ नहीं बोली …पकी हुई खाद्य सामग्री डिब्बों में भर थैले में डाल … कुछ अन्य वस्तुएं समेट तपती दुपहरी में निर्माणाधीन इमारत के पास जा पहुंची।

 एक अपरिचित महिला को थैले के साथ सामने देख मजदूरों का कुनबा एक-दूसरे की ओर देखने लगा… शायद उनके लंच का समय हो गया था।

 सभी हाथ-पैर धोकर मोटी रोटी ,कच्चा प्याज , नमक-मिर्च के साथ खाने की तैयारी में थे।उनके हाथ एक अपरिचिता को देख ठिठक गये।

“घबड़ाओ नहीं .. .मैं सामने ही रहती हूं यह भोजन आपलोगों के लिए लाई हूं …चाहो तो स्वीकार कर लो …कुछ कपड़े भी लाई हूं इन बच्चों के लिए और आप लोगों के लिए भी!”

“क्यों तकलीफ किया…”उन्हें शब्द सूझ नहीं रहा था। इस बिन बुलाये मेहमान का स्वागत कैसे करे।



   यह वही कपड़े थे जिसे उनके बच्चों ने एकाध बार पहनकर फेंक दिया था…वे कपड़े थे जो इनके किसी काम का नहीं । जबकि सामने वाले के लिए बहुत उपयोगी…जबकि  इन मजदूरों के लिए  आश्चर्य ही था।

   फिर तो सिलसिला चल पड़ा । भोजन, वस्त्र बच्चों को बुलाकर पढ़ाना … बच्चों की बेरुखी ने उनकी नजरिया ही बदल डाला ।उन्होंने अपने  दिल के दर्द को  अवसर में बदल डाला। किसी के साथ दिल से जुड़ने में कितना सुकून है इसका रसास्वादन उन्हें मिल चुका था।

  धीरे धीरेउनके साथ कालोनी के लोग भी जुड़ते चले गये … एक आन्दोलन सा चल पड़ा।

  आश्चर्य… उनके बच्चों को भी अपनी गलती समझ में आ गई । उन्होंने भी इस सामाजिक कार्य की महत्ता को समझा। उनकी सोच बदल चुकी थी  न अब खाने की ज़िद और न पहनने की ।थोड़े परिपक्व भी हो चले थे।

  अपनी मां की तरह उनकी भी नज़रिया बदल चुकी थी। ईंट ढोते बाल-मजदूर अब सिर्फ मजदूर नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व बन चुके हैं.. सिर्फ भोजन.. .पानी.. .ही नहीं   …उनको इस योग्य बनाना होगा जिससे बड़े होकर मुख्य धारा में शामिल हो सकें!

 वे सिर्फ ईंटें ही नहीं ढोते थे  बल्कि  कालोनी  वासियों द्वारा चलाये जाने वाले रात्रि पाठशाला में पढ़ते भी थे। उनके बेटा-बेटी  की आंखें खुल चुकी थीं ।अपने मां के दर्द को समझने लगे थे।

   श्रमिकों ने उन्हें ” माताजी” की उपाधि दी…काश ! उनकी तरह सोच .. .नज़रिया सबकी हो!

 फिर बाल-मजदूरी समस्या नहीं रहेगी  ।एक  सामाजिक  परिवर्तन  होगा।मानवीयता सामाजिक दायित्व का  अनुपम उदाहरण सबके सामने था।

       एक नारा सा चल पड़ा,”एक-दूसरे का सहारा बनें

न कोई बाल मजदूर होगा

न कोई मजबूर होगा

 मिल-बांटकर खायेंगे

  सबकी ख़ुशी मनायेंगे।।”

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना 

#दर्द 

डॉ उर्मिला सिन्हा ©®

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