दर्द की पराकाष्ठा – शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

पावस ऋतु ढलान पर थी शरद की दस्तक से हवा में नमी व्याप्त होने लगी थी।

मंद-मंद पवन का झौंका भाव-विभोर कर जाता है। उस पर पूनम की रात हो तो समस्त वसुधा प्रेममयी हो जाती है। ऐसे सुरम्य-वातावरण में भी किसी के अंतस में लावा फूट रहा हो तो, प्रकृति भी गमगीन होने लगती है। विशु के साथ भी कुछ ऐसा ही है।

पूर्णिमा की एक भी रात ऐसी नहीं निकलती, जब विशु ने छत पर आकर चाँद को न निहारा हो।

आज भी विशु छत पर, टकटकी लगाए चाँद को अपलक देख रही है। चाँद पूरे यौवन पर हो तब बेहद खूब सूरत लगता है।

एक भूल ने चाँद की जैसे उसके दामन में भी दाग लगा दिया था।

तभी उसकी अंतरंग मित्र जुही चुपके से आकर उसकी बगल में खड़ी हो जाती है। कुछ देर बाद मौन तोड़ते हुए कहती है ।

“कहाँ खोई है मेरी जान?”

अचकचाकर विशु—-।

“कहीं नहीं,बस ऐसे ही।”

“ऐसे ही नहीं,कोई तो वजह है। तू हर पूर्णिमा को चाँद को निहारना नहीं भूलती,चाहे कुछ भी हो।”

“देख कितना मनोहारी दृश्य है।

सम्पूर्ण- प्रकृति दुधिया- चाँदनी में सराबोर होकर आह्लादित हो रही है।”

“बात टालने की कोशिश न की जाए तो बेहतर है। आज तो मैं जानकर ही रहूँगी कि मेरी प्यारी -सखी अपने सीने में कौनसा दर्द समेटे हुए है?”

“आ बैठ!”

“जुही! मनुष्य रुक सकता है लेकिन समय अपनी गति से अनवरत चलता रहता है।

जो घटना घटित हुई थी वो 20 साल पहले की है,पर मैं आज भी वहीं खड़ी हूँ। कभी वो लौट आए ?”

“वो, कौन?”

“मेरी चाहत, मेरी जान।” विशु ने कहा तो—-

“तेरी जान,कहाँ खो गई?”



“अमावस की काली परछाई पड़ गई उस पर। चल छोड़ यह सब बातें, रात गहराने लगी है।

दोनों अपने कमरे में सोने चली जाती है। नींद तो आने वाली नहीं है क्योंकि नींद ने तो, विशु की आँखों से तभी कट्टी कर ली थी , जब रजत ने मुँह फेर लिया था।

शनै:-शनै: अतीत दस्तक देने लगा।

उसे वो सब याद आने लगा जिसको वो भूल जाना चाहती है।

विशु तो आज गगन को नाप रही है। धरती पर तो उसके पाँव ठहर ही नहीं रहे हैं।

बार- बार फोन बज रहा है, बधाईयों का अंबार लगा है, उसको मिले सम्मान को अपने अखबार की शोभा बनाया है।

सब ओर उसी के चर्चे हो रहे है।

दिन भर की व्यस्तता में से कुछ पल चुरा कर उसने मुहँ में पहला कौर डाला ही था कि फिर मोबाइल बज उठा…..।

जैसे ही स्क्रीन पर नजर पड़ी, नाम पढ़़कर …..।

बात तो करनी ही पड़ेगी।

“हैलो”

“कैसी हो?”

“अच्छी हूँ।”

” तुम्हारे नाम के बहुत चर्चे हो रहे है।”

“जी! सब आपकी…..।”

“कैसी बातें करती हो? विशु! मैंने कुछ नहीं किया। तुमने अपनी योग्यता से प्राप्त किया है।” जगत जी कुछ इश्किया अंदाज में बोले।

“यह सब आपसे बेहतर कौन जानता है?”

चार दिन पहले का घटनाक्रम विशु की आँखों में उतर आया।

दिन में लग-भग ग्यारह बजे मोबाइल पर जगत जी का फोन आया था।

“आप विशु जी बोल रही है?”

” हाँ, जी! कहिए।”

” राश्ट्रीय-स्तर के सम्मान के लिए तीन नाम चुने गए हैं। यह सम्मान आपको मिल सकता है, यदि आप मेरी एक शर्त मान सके तो।”

“जी! बताइये, कौनसी शर्त?”

“वो एक दिन पहले ही आना होगा आपको, क्योंकि इतने बड़े सम्मान के लिए आपको भी कुछ तो सहयोग करना होगा।”



“आर्थिक सहयोग करना होगा क्या?”

“अरे! आप भी कैसी ओछी बातें करती हो, हम किसी से कोई राशि नहीं लेते हैं।”

“जी! ठीक है, मैं आ जाऊँगी।”

सम्मान समारोह के एक दिन पहले ही विशु गंतव्य पर पहुँच जाती है।

विशु को देखकर ,जगत जी के मन- उपवन की कली- कली खिल गई। अपने मनोभावों पर तनिक अंकुश रखते हुए—-

“आइये आपका कमरा दिखा दूँ।”

“आप क्यों कष्ट कर रहे हैं? मैं चली जाऊँगी।”

“विशु! कष्ट कैसा? तुम हमारी मेहमान हो। हमारा भी कुछ फर्ज बनता है।” जगत जी आप से तुम पर आ गए।

कमरे में अपना बैग रख, और फ्रेश होकर विशु एक पत्रिका पढ़़ रही थी कि जगत जी आ गए।

“शाम का समय हो गया है चलिए भोजन कर आते हैं। आज आपको मेरी ओर से पार्टी।” जगत जी शिकारी अंदाज में बोले।

पर विशु समझ न पाई उसपर तो सम्मान का नशा चढ़ा था।

भोजन का लुफ्त उठाते हुए…..

“विशु! मैं तुमसे एक सहयोग चाहता हूँ।”

“बोलिए, क्या सहयोग कर सकती हूँ।”

“आप आज की रात बस मेरे साथ…..।”

“अरे! ऐसे कैसे हो सकता है यह कैसी शर्त है?”

सोच लीजिए…..

सम्मान चाहिए तो।”

कुछ देर वहाँ मौन पसर गया।

“जल्दी बताइये अपना निर्णय, नहीं तो दूसरे प्रत्याक्षी को बुलवाया जाए।” जगत जी सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए बोले।

“मुझे आपकी शर्त मंजूर है।”

“ठीक है तो चलिए अब हमारे रंगमहल में।”

दूसरे दिन विशु एक भव्य समारोह में सम्मानित होकर, आज सुर्खियों में है।

अपने कन्धे पर किसी का स्पर्श महसूस कर विशु अचकचा जाती है।

“मेरी चाँद! कहाँ खोई हो?”

रजत प्यार से चाँद कहकर ही तो बुलाते है।

“कहीं नहीं…..।”

“बधाई हो! बहुत बड़ी उपलब्धि मिली है। आज सबकी जुबान पर तुम्हारा ही नाम है।”

“जी!” कहकर विशु मन ही मन सोचने‌ लगी।



“आपको क्या मालूम कि इस उपलब्धि के लिए मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है? आपके चाँद में, मैंने अपने ही हाथों दाग लगा दिया है। लेकिन अब पछ्ताने से कुछ नहीं होने वाला।”

“मन कहाँ विचरण कर रहा है ?”

“जी! कहीं नहीं यहीं हूँ।”

“तो फिर गरमा- गरम अदरक वाली चाय पिला दो।”

अभी लाई…..

चाय उबलते देखकर विशु का मन आशंकाओं से घिरने लगा, मन में झंझावत चलने लगा…..

यदि कभी रजत को पता लग गया और चाय की तरह जीवन में भी उबाल आ गया तो…..

दिमाग कहने लगा “यह सब तो पहले ही सोचना था। चिड़िया चुग गई खेत फिर पछताने से क्या?”

“विशु! और कितनी देर लगाओगी चाय बनाने में?”

“जी! बन गई।” रजत की आवाज ने विचारों की शृँखला को तोड़ दिया।

चाय का एक घूँट पीते ही…..

रजत बोला:- “फीकी चाय, विशु! तबियत ठीक नहीं है क्या?”

“ठीक है।”

“तो फिर क्या हुआ?” रजत झल्ला उठा।

“वो….. कहकर विशु, रजत के सीने से लगकर बर्फ की मानिंद पिघलने लगी।

“वो क्या?”

“मुझसे एक भूल हो गई।”

“कौनसी भूल?”

रजत के पूछने पर विशु ने पूरा घटनाक्रम खुलकर बता दिया। कौनसी शर्त मानने पर उसको सम्मान मिला था।

उसी क्षण विस्वास-भरे रिश्ते में गाँठ पड़ गई।

वो फ़िर कभी नहीं खुली।

✍स्व रचित व मौलिक

शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

भीलवाड़ा राज

 

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