आज सुबह उनकी गृह सहायिका बुधिया ने अपने दाएँ हाथ में एक लिफाफा लटकाए हुए प्रसन्नता से अत्यंत चहकते हुए घर में प्रवेश किया, ‘बीबी जी! देखिए ! आज मैं आप लोगों के लिए थोड़े से घीया कद्दू लेकर आई हूँ। बिल्कुल ताजे और नरम हैं। मैंने कुछ देर पहले ही उतारे हैं। असल में एक दिन मैंने यूं ही घीया के कुछ बीज हमारे घर के साथ जुड़ते खाली प्लॉट में डाल दिए थे। मजे की बात कि बीज और वहां की धरती दोनों ही उपजाऊ थे।
अतः अपने आप ही जब बीज अंकुरित हो गए, तो मैंने नियमित रूप से उनकी देखभाल करनी शुरू कर दी सो,अब तो वहां खूब सारे नरम घीया उग आए हैं । उन्हें देखकर मेरा तो मन ही खिल उठा। कुछ तो उसी समय उतार कर मैंने अपने आस-पड़ोस में बांट दिये और परसों मैं थोड़े से ‘शर्मा बीबी’ जी के लिए ले लाई थी। वे भी हरे-भरे ताजे घीए देखकर बहुत खुश हुईं थीं।’
उसका उत्साह अभी भी बल्लियों उछल रहा था। अतः हंसते हुए पुन: बोली, ‘कल हमने खुद इसकी सब्जी बनाई थी, सचमुच बहुत स्वाद बनी थी। अब तक मेरे बच्चे घीया की सब्जी की तरफ देखते भी नहीं थे, लेकिन घर के घीया की सब्जी उन्होंने भी उँगलियाँ चाट-चाट कर खूब चटखारे ले-लेकर खाई। इसीलिए मैंने सोचा आज थोड़े से आप लोगों के लिए भी ले जाऊँ।’
रसोई घर में कार्यरत सरिता ने अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए ,खुशी से लबालब बुधिया को ‘वाह जी वाह ! तुम्हारी तो मौज हो गई। हींग लगी न फिटकरी और रंग भी चोखा आ गया’ कहते हुए लिफाफा डाइनिंग टेबल पर रख देने को कहा।
बुधिया भी ‘हां जी!’ कहकर जोर से खिलखिलाई और उसने बड़े प्यार से अपने हाथ का लिफाफा डाइनिंग टेबल पर रख दिया । तत्पश्चात् वह अपने नियमानुसार घर की सफाई आरंभ करने के लिए सबसे पहले छत वाले हिस्से में चली गई।
उसके छत पर जाते ही रसोई घर के निकट बैठी सरिता की दादी सास ने सरिता को आंखें तरेरते हुए धीमे स्वरों में फटकार लगाई, ‘ बहूरिया ! इस घर की कोई मान-मर्यादा भी है या नहीं? तुम्हें घर के कुछ नियम-कायदे याद हैं या सब भूल चुकी हो ? क्या इस घर में अब एक काम वाली के घर से आई हुई सब्जी बनेगी ? हमारे घरों में कामगारों का लाया हुआ नहीं खाया जाता है । हम लोग इन लोगों का पेट भरने के लिए होते हैं, इनका कमाया खाने के लिए नहीं ।
मात्र 10-20 रुपए की सब्जी के लिए उम्र भर का इनका एहसान ! न भई न, अभी वह जैसे ही नीचे आएगी, तो किसी भी बहाने से घीया उसे वापिस लौटा देना। वैसे भी करोना की पुनः फैलती इस महामारी में न जाने कहाँ से उठा लाई है ? तुम्हारे बाबूजी को पता चला न तो सचमुच सब्जी उठाकर बरतन समेत तो बाहर फेंकेंगे ही , रसोई दूषित कर देने के कारण घर की हम स्त्रियों को भी कहीं का न छोड़ेंगे।’
बेचारी सरिता एकदम सकपका गई । जब तक वह परिस्थिति को कुछ समझ पाती कि समीप के कमरे में खड़ी सब कुछ देख-सुन रही उसकी ननद, दादी माँ के तीखे स्वर सुनकर तुरंत उनके निकट आ गई और उन्हें शांत करते हुए बोली, ‘दादी, यहां बात एहसान की नहीं, प्रेम की है। आपने बुधिया के छलकते आनंद की ओर गौर नहीं किया न ? बुधिया का सरल प्रेम यदि मोल-भाव करना जानता तो वह सारे घीया उतार कर बाजार में किसी दुकानदार को बेच आती और पैसा कमा लेती ,
किंतु इनका भार उठाकर यदि वह इन्हें सबको बांटती फिर रही है,तो सिर्फ ‘देने का सुख’ पाने के लिए और जहाँ तक आपको कोरोना का भय है, तो हम इन्हें भी नमक वाले गरम पानी से अच्छी तरह साफ कर लेंगे न,ठीक वैसे ही जैसे बाहर से आने वाली बाकी सभी सब्जियों को साफ करते हैं। और हां दादी, आखिर कब तक हम अपने आप को तथाकथित ‘बड़ा’ समझने वाले लोग जाति, निम्न वर्ग-उच्च वर्ग , अमीर-गरीब, ऊंच-नीच के नाम पर इन मेहनती लोगों का तिरस्कार करते रहेंगे ?
जबकि यथाशक्ति शिक्षा प्राप्त करके अब ये लोग भी जागरुक होने लगे हैं। दूसरों से सिर्फ ‘लेने’ का भाव छोड़ कर अब उनमें भी ‘देने’ का भाव जागने लगा है। अतः यह केवल बुधिया का सरल प्रेम है, ‘देने के सुख’ को पाने की चाह मात्र है, जो अनमोल है।’
ननद द्वारा अपने ही मन की बात सुनकर सरिता ने अति स्नेहिल नेत्रों से पहले ननद और फिर सहमी दृष्टि से दादी माँ की ओर देखा। दादी माँ अब नि:शब्द होकर, अपने होठों पर हल्की स्मित लिए बहू और पोती को निहार रही थीं। दादी मां की मुस्कान से सरिता के मुख पर भी एक मधुर मुस्कान आ गई और दादी मां का संकेत पाकर उसने घीया का लिफाफा उठाकर फ्रिज में रख दिया।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
#तिरस्कार कब तक?