मोगरे के फूल – रवीन्द्र कान्त त्यागी

किसी सीनेमाई प्रेमी प्रेमिका की तरह दरियाए लिद्दर को पार करके हम दोनों देवदार के घने जंगल में पहुँच गए हैं। एक छोटी सी जलधारा बर्फ के छोटे छोटे टुकड़ों को अपने साथ बहाती, पत्थरों से अठखेलियाँ करती हुई, अपनी बड़ी बहन लिद्दर में विलीन हो जाने को बेताब देवदार और चीड़ आच्छादित ढलानों से नीचे दौड़ी चली जा रही थी। ऐसी भी क्या जल्दी है प्यारी सी जलधारा। क्यूँ अपना अस्तित्व विलीन करने को उतारू हो तुम।

“यही मेरी नियति है। मिलन मिलन और मिलन। मेरा दरियाए लिद्दर में, दरिया का झेलम में और झेलम का सब को जोड़ते हुए अपने गंतव्य महासागर में मिलन। मिलन और समर्पण ही जीवन का सत्य भी है और अतुल्य आनंद भी।” मानो गदरे की उत्तुंग लहरें कह रही थीं।

“इसे पार करें विमला। बड़ा मजा आयेगा।”

“न बाबा ना। देख नहीं रहे पानी कितना ठंडा है। छोटे छोटे बर्फ के टुकड़े तैर रहे हैं।”

“अरे आओ ना। देखो वह जो बड़ा सा पत्थर है उसपर पाँव जमाकर आगे कूद जाएंगे। आओ थोड़ी देर और गहरे डूब जाएँ इस मधुबन के अंधेरे उजाले में। फिर तो महानगर की गर्मी और प्रदूषण…। देखो पहले मैं उस पार जाता हूँ।” और मैंने उस बड़े पत्थर पर पाँव जमाकर दूसरी तरफ कूदने का प्रयास किया कि पाँव लड़खड़ा गए। छपाक से मेरा दूसरा पाँव गदरे के भीतर जा टिका। ऐसा लगा मानो किसी ने ठंडी सुईंयां पाँव में चुभा दी हों। जूते में पानी भर गया। वो खिखिलाकर हंसने लगी। इस पहाड़ी निर्झर नीरधारा से भी खूबसूरत हंसी।

“वापस आ जाओ। चलो वापस चलते हैं। यहाँ मुझे डर लग रहा है। देखो यहाँ दूर दूर तक कोई इंसान नजर नहीं आता। कोई बदमाश लुटेरा या जंगली जानवर…।”

“अरे तुम बेकार डर रही हो बिमली। ये काश्मीर है। यहाँ के लोग बड़े भोले और मेहमान नवाज होते हैं। आओ मैं तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ। थोड़ा और ऊपर चलेंगे जहां नीचे सड़क पर दौड़ते वाहनों की आवाज भी सुनाई न दे। कितना अच्छा लग रहा है यहाँ।” मैंने एक पानी में डूबते उतरते प्रस्तर खंड पर पाँव जमाते हुए हाथ आगे बढ़ाया। वो डरती काँपती सी गदरे के इस ओर कूद पड़ी। मैंने उसे बाहों में भर लिया।

“क्या कर रहे हो। देखो दूर पहाड़ के ढलान पर कई घर बने हैं। कोई न कोई हमें देख रहा होगा।” लज्जा से उसके गाल गुलाबी हो गए।

तभी अचानक बर्फ के छोटे छोटे फाहे आसमान से गिरने लगे। प्रकृति मानो एक अनोखा उत्सव माना कर अपनी गोद में हमारा स्वागत रही थी। थोड़ी दूर तक का भी दिखाना बंद हो गया था। चिनार और चीड़ की पत्तियों पर मखमली रुई सी इकट्ठी होने लगी थी। किसी ड़ाल से कोई पक्षी फरफराकर उड़ जाता तो हिमकणों की रेत सी बरस जाती। मैं तो वनदेवी के आलोकिक सौन्दर्य के सम्मोहन में डूब डूब जाना चाहता था।

ठंडी हवा की शीतलता गरम कपड़ों को चीरती हुई पसलियों को छूने लगी थी। जंगल की नीरवता और प्रकृति सा रहस्यमयी सा मौन हृदय में एक सिहरन सी उत्पन्न कर रहा था।

“सुनो, मुझे ठंड लग रही है।” उसने काँपते हुए कहा।

“हाँ बिमली ठंड बढ़ गई है। चलो वापस चलते है। देखो गदरे का पानी भी एकदम घट गया है। शायद ठंड बढ़ने पर ऊपर बर्फ पिगलनी बंद हो गई होगी।”



“मुझे घबराहट सी हो रही है प्रखर। सांस घुट रहा है।”

“अरे घबराने की तो कोई बात ही नहीं है बिमली। कितने आनंद के पल हैं। इन्हे अपनी पलकों में समेट लें। जिंदगी भर के लिए।”

“मैं ठीक नहीं हूँ प्रखर। सांस खिंचकर आ रही है। लगता है गिर पड़ूँगी।” उस ने लड़खड़ाते हुए कहा।

मैंने उसे दोनों हाथों से थाम लिए और घबराहट में सहायता के लिए इधर उधर देखने लगा।

तभी एक आदमी अपना टट्टू लिए पतली से पगडंडी से ऊपर चढ़ता हुआ दिखाई दिया। मैंने उसे आवाज दी तो वो भागा हुआ नजदीक आया।

“मेमसाब को सर्दी लगा है बाबू। ये हमारा कंबल ओढा दो।”

“सुनो, तुम इन्हे अपने खच्चर पर नीचे होटल तक छोड़ दोगे क्या भैया।”

“अबी घर जाने का टेम है बाबूजी पर आप मेमान हैं। मेम साब बीमार हैं इसलिए आप को मना नई करेगा।” और हम दोनों ने मिलकर टट्टू वाले के कंबल में लपेटकर विमला को टट्टू पर बिठा दिया था। उस दिन पहली बार पता चला था कि मेरे पत्नी विमला को एक्यूट ब्रोंकाइटिस है।

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“सो गए क्या। देखो बौटल में फ्लूड खत्म हो रहा है। नर्स को बुला दो।”

“ओह, चालीस साल पुराने सपने में डूब गया था बिमली। तुम्हें याद है जब हम पहलगाम गए थे और तुम्हें ठंड लगने लगी थी। कितना मजा आया था न उस टूअर में।”

बिमली के पपड़ी जमे सफ़ेद होठों पर दर्दभरी मुस्कान की एक हल्की सी रेखा दिखाई दी और विलुप्त हो गई।

“उम्र गुजर गई बिमली। कश्मीर भी अब उस जमाने वाला कश्मीर कहाँ रहा। अब तो नाम सुनकर ही डर लगता है। इंसानी मुहब्बत वाला कश्मीर अब एके 47 वाला काश्मीर बन गया है। चिनार और देवदार की महक की जगह बारूद की गंध …।” मैंने नर्स को बुलाने की घंटी का बटन दबाते हुए कहा।

“तबीयत ठीक नहीं लग रही तो डॉक्टर को बुला देता हूँ। बारह बज गए। हस्पताल के इस बियाबान में समय का पता ही नहीं चलता विमला।”

“समय … समय अब कहाँ रहा प्रखर।”

“मन कमजोर मत करो। सब ठीक हो जाएगा डॉक्टर को बुलाता हूँ, या नर्स से तुम्हारा ऑक्सीज़न लेवल बढ़वा देता हूँ। अब तो मैं भी सब सीख गया हूँ … सब।” प्रखर ने नकली हंसी हँसते हुए कहा।

“नहीं, अब और नहीं। … पास आओ ना।”

“तुम्हारे पास ही तो हूँ। सोने की कोशिश करो। आज नर्स ने नींद की दवा नहीं दी क्या?”

“नहीं, या शायद अब किसी दवा से कुछ नहीं होता। जिंदगी हो गई गोलियां निगलते निगलते। देह बिंधवाते। अब … बस करने को मन करता है।”

“बावली हो गई हो क्या। मुझे अकेला छोड़कर जाना चाहती हो।”



“सुनो, पास आओ। मेरा सर अपनी गोद में रख लो। मेरे बालों में उंगलिया फिराओ। मुझे तुम्हारे पास होने का अहसास करने दो। बहुत पास।”

“ये हस्पताल है बिमली। अभी नर्स आने वाले होगी। क्या कहेगी। इस उम्र में …।”

“कहने दो कुछ भी। प्लीज … मेरे पास आओ। मुझे अपनी बाहों में ले लो।”

“देखो, तुम्हें ऑक्सीज़न लगी है। हाथ में फ्लूड। निडिल जरा सी भी हिल गई तो …।”

“मेरे पास आओ प्रखर। इतने पास … इतने पास कि …।”

प्रखर हॉस्पिटल की बैड पर विमला का सर अपनी गोद में लेकर बैठ गया और उस के बालों में उँगलियाँ फिराने लगा। विमला ने स्नेहासिक्त अधमुँदी पलकों से उसकी ओर देखा।

“सुनो, दिन में तुम घर गए थे तो चीनी और हल्दी पाउडर लेते गए थे न। खत्म हो रहे हैं। और नल की टोंटी ठीक से बंद कर दी थी न। उस में पानी टपकता रहता है। रोशनदान में कबूतरों ने दोबारा घौंसला तो नहीं बनाया। ताले … ताले तो ठीक से … बंद कर …।”

“छोड़ो न बिमली। सोने की कोशिश करो। जब तक जिंदगी है, ये सब तो चलता ही रहेगा।”

“मुझ से दूर मत … मत जाना। मैं … मैं तुम से बहुत प्यार …।” बिमला की आँखों के कोर भीग गए।

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही। प्रखर ने सोचा बिमली सो गई है। प्रखर ने धीरे से विमला के माथे पर हाथ रखा। बिमली ने उनींदी सी, थकी उदास सी और डूबती सी पलकें खोल कर उन के चेहरे को गौर से देखा। कुछ पल शांत रहकर अजीब सी निगाहों से देखती रही। न जाने क्या था उस निगाह में। वेदना थी या अनुराग। जीने की अभिलाषा थी या अंतिम विदाई। फिर डूबती सी आवाज में कहा “सुनो, मेरे जाने के बाद तुम बेटे के पास अमेरिका चले जाना। मेरे … हमारे घरौंदे को बेच डालना और हमारी बिटिया को फोन करते रहना। अमेरिका जाकर उसे भूल मत जाना।” बोलते हुए उस की सांसें फूल रही थीं।

“बेकार की बातें मत करो। तुम ठीक हो जाओगी। फिर … साथ ही चलेंगे अमेरिका। बेटे के पास। तुम अपने पोते को खूब खिलाना। नियाग्रा फॉल दिखाऊँगा मैं तुम्हें। और सुनो। अभी हमें रामेश्वरम भी जाना है। चारों धाम की यात्रा अभी पूर्ण कहाँ हुई है हमारी। खूब घूमेंगे। पूरा दक्षिण भारत घूमेंगे। मदुरई, तिरुपती और और … ।” प्रतिउत्तर न मिलने पर वे बोलते बोलते रुक गए और एक भयावह आशंका के साथ पत्नी का चेहरा देखने लगे। खुली हुई आँखें उन्ही के चेहरे पर स्थिर हो गई थीं।

“क्या सोच रही हो। कुछ बोलती क्यूँ नहीं।” वो धीरे से फुसफुसाया।

उसने प्रखर का हाथ पकड़ते हुए डूबते से स्वर में कहा “अ अ अब बस। जाने दो।” और चुप हो गई।

“हिम्मत … हिम्मत रखो बिमली … सब ठीक …।”



कोई उत्तर नहीं। शंका से प्रखर ने टप टप नसों में जा रही डिप की तरफ देखा। ऊपर नीचे उछलती नाचती रेखाओं वाले मौनीटर को देखा। बूंदें टपकनी बंद हो गई थीं। मौनीटर की वक्र रेखा सीधी हो गई थी। बिमली के चेहरे पर एक असीम शांति और मानो तृप्ति नजर आ रही थी।

प्रखर धीरे से बिमली का सर एक ओर रखकर उठा और नर्स को बुलाने के लिए घंटी बजाई। नर्स ने एक बार नब्ज पर हाथ रखा। ऑक्सीज़न मास्क हटाकर नाक के आगे उंगली लगाई और खुली पलकों पर हाथ रखकर उन्हे नीचे झुका दिया। कुछ परेशान सी होकर डॉक्टर को फोन करने लगी।

“क्या … क्या कहानी खत्म हो गई सिस्टर।”

“मे बी। बट आय कैन नॉट डिक्लेयर सर। डॉक्टर इस कमिंग।” और नर्स चली गई।

प्रखर ने विमला का चेहरा अपने दोनों हाथों से ढककर कहा “जाओ प्रिये। अपनी अनंत यात्रा पर जाओ। बहुत सह लिया तुम ने नुकीली सूंईयों का दंश। नसों में रक्त से अधिक बहती दवाओं का कसैला अहसास। साँसों की घुटन। फेफड़ों को चीर डालने को आतुर दम धोंटती खांसी और न जाने क्या क्या। सारे कष्टों से दूर चली जाओ अपनी अनंत यात्रा पर प्रिये।

वहीं मिलूंगा मैं तुम्हें एक बार फिर। बादलों के उस पार दूसरी दुनिया में जहां न कोई व्याधि होगी न लिप्सा। न कामना होगी न वासना। न स्पर्धा होगी न अभिलाषा। और मिलना तुम मुझे अंजुली में मोगरे के फूल लेकर। उस दूसरे जहां में जहां बस प्रेम ही प्रेम होगा। करोगी न मेरी प्रतीक्षा।”

उनकी आँखों से जार जार आँसू बहकर विमली के चेहरे पर गिर रहे थे। फिर उन्होने कांपते हाथों से जेब से रुमाल निकाला और अपने चेहरे को साफ किया। हस्पताल की बेड से उठकर कुर्सी पर पीठ लगाकर बैठ गए। कुछ पल आँखें बंद करके बैठे रहे। फिर अमेरिका में अपने बेटे को फोन मिलाया।

“तुम्हारी मम्मी अब नहीं रहीं अभय।”

“ओह गॉड। पापा मैं शाम की फ्लाइट की टिकट …।”

“नहीं, उस की कोई आवश्यकता नहीं है। क्या कर लोगे आकर। वैसे भी मैं दो दिन प्रतीक्षा नहीं कर सकता। डॉक्टर्स ने पहले ही बता दिया था कि अब किसी भी पल …।”

“पापा, मैं अपनी माँ के एक बार अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकता।”

“क्यूँ नहीं बेटा। स्काइप है न। मैं तुम्हें सारी प्रक्रिया वीडियो कॉल पर दिखा दूँगा। मृत्यु एक अखंड सत्य है बेटे। मिलना … बिछड़ना। यही इस दुनिया की रीत है। तुम्हारी भावनाएं अपनी जगह हैं किन्तु अतीत के लिए वर्तमान को बाधित नहीं होना चाहिए।”

“अचानक आप अकेले पड़ गए होंगे और मैं …।

“अकेला कहाँ हूँ। जीवन भर इस शहर में रहकर एक समाज बनाया है। बस अब … मिट्टी ही तो है।”

कल का सूरज डूबे हुए बारह घंटे हो गए थे। आज का सूरज नई लालिमा और जीवन का जोश बिखेरते हुए क्षैतिज के उस पार से उदय हो रहा था। प्रखर रॉय निर्विकार भाव से विद्युत शवदाह गृह वालों को फोन कर रहे थे।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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