“नीतिका! तुम हर वक्त यह क्यों चाहती हो कि सब तुम्हारी ही बात माने। यह याद रखो कि घर की मालकिन और बड़ी मैं हूँ न कि तुम।” मंगला अपनी छोटी बहू नीतिका को जोर-जोर से डाँटे जा रही थी।
” माँ! यह भी कोई कहने की बात है? आप ही इस घर की बड़ी है और मैं यह कभी नहीं सोचती कि हमेशा मेरी ही बात मानी जाए पर अगर कोई मुझे कुछ सलाह लेता है तो मैं अपना विचार अवश्य रख देती हूँ।” नीतिका ने अपना पक्ष रखा।
“पर तुम कुछ न कुछ ऐसा कह देती हो कि सभी तुम्हारी बात मानते हैं। बड़ी बहू की कभी हिम्मत नहीं हुई कि मुझसे ऊपर होकर कोई बात कहे और तेरे आते ही सब लोग तुझे ही पूछने लगे हैं, मेरी तो अब इस घर में कोई हैसियत ही नहीं रह गई है।”मंगला की चीख-चिल्लाहट सुनकर परिवार के सभी लोग बैठक में आ गए जहाँ मंगला, नीतिका को डॉटे जा रही थी।
“मंगला! तुम यह क्या बेसिरर-पैर की बातें कर रही हो?आज तक इस घर में हम सभी तुम्हारी राय को मानते रहे क्योंकि घर में कोई और ज़िम्मेदारी लेने लायक नहीं था। बड़ी बहू गाँव की है और कम पढ़ी-लिखी है और उसने कभी घर की ज़िम्मेदारियों के प्रति कोई रुचि भी नहीं दिखाई पर छोटी बहू पढ़ी-लिखी और समझदार है, आज के माहौल के हिसाब से हर चीज का प्रबंध करना जानती है, मेहमानों एवं रिश्तेदारों से हर विषय पर बातचीत कर लेती है जिसकी वजह से अन्य रिश्तेदार भी उसकी सलाह लेते हैं पर न जाने तुम क्यों अपनी बहू की दुश्मन बनी रहती हो।” मंगला के पति रामकिशोर ने मंगला को डाँटते हुए कहा।
” हाँ! हाँ! मैं ही बुरी हूँ। तुम भी मुझे ही डाँटो।अपनी बहू को कुछ मत कहना। यह बड़ी बहू तो घर के बाहर पड़े कूड़े जैसी है जिसे सिर्फ रोटी-कपड़े के अलावा कुछ काम नहीं आता और यह छोटी बहू सब की दादी है जो पूरे परिवार पर अपना कब्ज़ा करना चाहती है। हे राम! एक भी बहू मेरे मन की नहीं आई। मेरी तो तक़दीर ही फूट गई जो ऐसी बहुएँ मुझे मिलीं। एक सिरे से बेवकूफ़ है और एक हद दर्जे की चालाक।” मंगूल का प्रलाप ज़ारी था।
” माँ! तक़दीर तुम्हारी नहीं हमारी फूटी है। तुम किसी भी बात से कभी खुश होती ही नहीं। गरिमा के कुछ न करने से तुम्हें दिक्कत है और नीतिका की समझदारी से भी तुम्हें परेशानी है। दरअसल कमी तुम्हारे दृष्टिकोण की है कि तुम्हें हर बात में कमी खोजने की आदत पड़ गई है।” बड़े बेटे नकुल ने कहा।
” हाँ! हाँ!अब तो सबको मुझ में ही कमी दिखेगी। जब तक मैं इस परिवार के लिए सब कुछ कर रही थी तब तक सब माँ, मंगला करते थे, अब सब अपने मन के हो गए हैं।”मंगला कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं थी। उसे अपना अस्तित्व एवं सत्ता हिलती दिख रही थी जिसका सारा ठीकरा वह नीतिका के सिर पर फोड़ रही थी।
मंगल की इसको कुटिलता को सभी लोग समझ चुके थे, इसलिए अब मंगला की किसी भी बात पर प्रतिक्रिया देना छोड़ चुके थे। मंगला अब रिश्तेदारों से भी बार-बार यही कहती कि मेरी तो तक़दीर फूट गई कि ऐसी बहू मिली पर रिश्तेदार मुँह दबाकर उसकी बात सुनते और आपस में कहते कि बुरी बहू से निभाना और अच्छी बहू की कदर करना सबके बस की बात नहीं है।
स्वरचित
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश