मन की गांठ : प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’ : Moral Stories in Hindi

जैसे ही डोरवैल बजी सविता ने दरवाजा खोला, दरवाजे पर उसकी ननद नीरू खड़ी थी जिसे देखकर सविता चौंक गई क्योंकि आज वह 3 साल बाद आईं थी और वह भी बिना किसी पूर्व सूचना के, 3 साल पहले उनसे दोनों भाइयों सविता के पति पंकज और देवर धीरज का मनमुटाव हो गया था जिसके कारण बोलचाल तक बंद थी लेकिन आज अचानक….

“आप…..” सविता के मुंह से हिचकिचाहट से निकला

“भाभी, अंदर नहीं बुलाओगी….” 

नीरू के इस तरह कहने पर सविता बिना कुछ कहे दरवाजे से साइड हट गई। सामने ही आंगन में पंकज बैठा हुआ कुछ आवश्यक कार्य कर रहा था जिससे उसका अभी तक ध्यान नहीं गया था।

“पंकज ……मेरे भाई….” जैसे ही अंदर आकर नीरू ने उसे देखकर बोला तब उसका ध्यान अपनी बहन नीरू पर गया। उसे भी जरा सा अंदाजा नहीं था कि आज उसकी बहन अचानक यूं आ जाएगी।

“आप…..अब क्या लेने आईं हैं आप…. बाबू जी की संपत्ति में से तो हिस्सा आप ले ही चुकीं और रही मां की बात तो वो मैं खुशी खुशी निभा रहा हूं… न मुझे आपसे कोई शिकायत है और न ही धीरज से कि आप लोग क्यों नहीं मां के प्रति फर्ज निभा रहे….फिर आज आप अचानक यहां…..” 

“मैं कुछ लेने नहीं आई भाई…..केवल तुम्हारे मन में बाबूजी के जाने के बाद जो मेरे प्रति नफरत की गांठ लग गई है उसे ही खोलने आई हूं….”

पंकज अभी भी आश्चर्य से देख रहा था ” मतलब….”

“तुमको पता है भाई कि कि धीरज ने दिल्ली जाकर पढ़ाई की और वहीं से प्लेसमेंट मिलने पर एक अच्छी कंपनी में जॉब कर ली और अपने मनपसंद की लड़की से शादी कर वहीं सैटल हो गया….उसे परिवार से कभी कोई मतलब नहीं रहा …..कभी बाबू जी ने किसी बात पर आपत्ति जताई भी तो भी कभी नहीं सुनी….हमेशा अपनी मनमर्जी की….इस वजह से बाबूजी उससे थोड़ा नाराज रहते थे….जब तक जॉब नहीं थी तब तक तो भी वह घर भी आता रहता था छुट्टियों में और मां बाबू जी से ठीक से बातें भी करता था भले ही काम अपनी मर्जी का ही करता लेकिन बताता जरूर था लेकिन जॉब के बाद तो वह बिल्कुल ही बदल गया सबसे दूरी सी बना कर रहता….उसे किसी की भावनाओं से कोई मतलब नहीं था…. किसी को कुछ समझना ही नहीं…. जहां तक कि मां और बाबूजी की भी नहीं….और हमेशा अपना हिस्से की मांग करता रहता था….वो तो बाबूजी थे कि उसकी बात नहीं मानते थे क्योंकि उनका कहना था कि जब वही उनकी नहीं सुनता तो वो क्यों सुनें….इसीलिए वो कहते रहते थे कि मैं कुछ नहीं देने वाला और मेरे जीते जी इस घर के हिस्से भी नहीं होंगे ……और आप तो जानते ही हो भाई कि 3 साल पहले बाबूजी के जाने के बाद तेरहवीं होते ही उसने संपत्ति के बंटवारे को लेकर कितना हंगामा किया था…..तभी मां जी ने मुझसे मेरा हिस्सा लेने के लिए कहा था….जबकि मुझे तो संपत्ति में से कोई हिस्सा नहीं चाहिए था….मुझे तो बस आप लोगों का प्यार और साथ चाहिए था…..”कहते हुए नीरू सुबकने लगी, उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े।

“क्या!…ये आप क्या रही हो दीदी….” पंकज ने उसकी तरफ आश्चर्य से देखते हुए पूछा।

“हां भाई, ये बात सच है कि मुझे कोई हिस्सा नहीं चाहिए था…..न उस समय और न अब….आपको याद होगा भाई कि जब घर और संपत्ति के बंटवारे की बात हो रही थी तो मां ने घर के दो हिस्से और तीसरे में गहने किए थे….मैं मां के गहनों के लिए नहीं घर के हिस्से के लिए आप लोगों से लड़ गई थी कि मुझे वही चाहिए…और मां जी ने फिर वो गहने धीरज को ये कहते हुए दिए थे कि तू तो वैसे भी अपने हिस्से को बेचकर दिल्ली में घर लेगा इससे तो अच्छा इन गहनों को ही ले ले तब उसने गहने ले लिए और यहां से चला गया….आपको याद होगा कि मां जी ने आपके हिस्से को आपके नाम कर दिया लेकिन मैंने उस समय ये कह कर दूसरे हिस्से को मां जी के नाम ही रहने दिया कि फिर कभी बाद में करवा लूंगी अभी आप रह लीजिए….”

 “हां, याद है अच्छी तरह और फिर उसमें आगे के कमरे को मां के रहने के लिए कहकर बाकी का घर आप किराए पर उठा कर चलीं गईं…..और इसी बात पर मैं आपसे नाराज हुआ था कि खाली कमरा या घर बूढ़ी मां की देखरेख नहीं कर सकता…उसके लिए किसी का होना जरूरी है….वो कौन उठाएगा तो आप मुझ पर डाल गईं ये कहकर कि तो क्या तुम लोग इतना भी नहीं करोगे….तब मैंने गुस्से में आपसे ये भी कहा था कि तो एक कमरा देकर ही क्यों अहसान कर रही हो,,हम अपने ही हिस्से में रख भी लेंगे ….आखिर मेरी मां हैं…. तब आप गुस्से में ये कहकर चली गई कि तो फिर ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी….(कुछ सोचते हुए) तो क्या आज आप उसी हिस्से को अपने नाम करवाने आईं हैं….”

” नहीं मेरे भाई, मैंने कहा न कि मुझे कुछ नहीं चाहिए….बस उस समय मां जी को डर था कि कहीं आप दोनों अपना अपना हिस्सा लेकर उनको लाचारों वाली जिंदगी जीने के लिए विवश न कर दो….या फिर दो हिस्सों के बाद कहीं आपके मन में ये न आए कि संपति तो छोटे ने बराबर ले ली पर मां की जिम्मेदारी पूरी की पूरी आप पर ही डाल दी इसीलिए मां ने मुझसे तीसरा हिस्सा लेने के लिए बोला जिससे वो स्वाभिमान के साथ बिना किसी पर बोझ बने जी सकें और वो किरायेदार भी उन्होंने ही रखवाए जिससे उनका खर्चा निकल सके…वो चाहती तो तीसरा हिस्सा अपना ही कहकर ले सकती थीं लेकिन यदि ऐसा करतीं तो फिर उनके बाद उस हिस्से के पीछे भी धीरज तुमसे लड़ सकता था इसलिए उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपना हिस्सा मांग लूं और अब आप देख ही रहे हो कि धीरज ने इतना समय होने के बाद आज तक यहां किसी को नहीं पूछा….अब उसे पता है कि यदि पूछेगा तो कहीं मां की थोड़ी बहुत जिम्मेदारी उस पर न आ जाए और वैसे तो कुछ है नहीं लेने को….लेकिन भाई आज भी मैं ये हिस्सा अपने नाम करवाने नहीं आईं हूं वो तो आप ही का है…..”

“ये सब बताने की तुझे क्या पड़ी आज और वो भी मुझसे बिना पूछे…..” कहते हुए उनकी बूढ़ी मां लाठी के सहारे वहां गईं जो कि घर के पीछे बने आंगन में धूप में बैठी हुई थीं।

“मां, आज आप मुझे मत रोको ….बहुत साल हो गए हैं भाई से बिछुड़े हुए….और वैसे भी जब कभी आपको लगे कि ये आपका ध्यान नहीं रख रहे तब आप उस मेरे वाले हिस्से के घर में चली जाना….” कहते हुए वो अपनी मां के गले लगकर रोने लगी।

फिर कुछ देर बाद “आज तक मैं ये सोचती रही कि कैसे और कब भाई कि गलतफहमी दूर करूं और फिर hm पहले की तरह मिलजुल कर रहें….लेकिन आज समय आ गया है भाई….आपके भांजे की शादी पक्की हो गई है जो एक माह बाद है….अगर आपके मन की गांठ खुल गई हो तो आप मुझे फोन करके बता देना… मैं भात का न्यौता देने आ जाऊंगी वैसे तो निमंत्रण कार्ड आएगा ही यदि आप भात न भी लाओ तब भी…..और हां भाई ये लीजिए उस घर के अब तक के किराए के रुपए जिसे आप मेरे हिस्से का समझते आए हो (कहते हुए एक पैकेट भाई को पकड़ा देती है)….”

“(रुपए लौटते हुए) नहीं दीदी ये आप ही रखिए…और हां हम अपने भांजे की शादी में जरूर आएंगे….और कोई कार्य हो तो वो भी आप निसंकोच बताइए….आपका छोटा भाई आपकी सेवा में हाजिर है…”

“नहीं भाई इन रुपयों को लौटाकर तुम मुझे और अधिक शर्मिंदा मत करो इन्हें रख लो ये तुम्हारी ही अमानत है जो अब तक मेरे पास रही….बस आप मेरे दरवाजे की शोभा बढ़ाने आ जाना ….मै समझूंगी कि तुमने मेरी मजबूरी समझ मुझे माफ कर दिया….”

आज अपने भाई के मन में लगी गांठ खोल नीरू का मन भी बहुत हल्का महसूस कर रहा था…उसकी आंखों से प्रसन्नता के आंसू बह रहे थे जिन्हें देख भाई भाभी भी द्रवित हो गए।

प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’

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