*मैंने यह तो नहीं चाहा था* – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

शालीन आज बहुत खुश था। उसे लग रहा था उसे खुशियों का खजाना मिल गया है, जिस माँ के मुख से बेटा सुनने के लिए उसके कान तरस रहै थे, उन्हीं माँ की आज चिट्ठी आई थी। वह मन ही मन गुन रहा था कि ‘मेरी माँ की चिट्ठी आई है……. मेरी माँ ने मुझे याद किया है………।आज इतने वर्षों बाद, मेरी माँ ने मुझे बेटा कहा है।

‘हर्षातिरेक से शालीन की आँखें भर आई। आज पूरे १० वर्ष बाद, वह अपने पैतृक गाँव जा रहा था। वह कितना रोया था, जब उसे लोगों से पता चला था, कि उसके भाई बहन की शादी हो गई है।

जिस माँ ने उसे उसके भाई बहिन की शादी में नहीं बुलाया, आज उनकी  चिट्ठी पढ़कर उसे आश्चर्य मिश्रित  खुशी हो रही थी। वह बहुत खुश था कि उसकी माँ ने उसको बुलाया है। उसने विद्यालय में छुट्टी की अर्जी दी और गाँव की बस में बैठ गया।

बस उसके गाँव की ओर भाग रही थी, और उसका मन  अतीत की ओर। उसे याद आया जब वह ७ साल का था और उसका छोटा भाई राजन‌ हुआ था। गोरागट्ट, गोल मटोल। उसकी इच्छा होती कि वह अपने भाई के साथ खेलें, मगर माँ हमेशा डांट कर भगा देती, और कोई काम बता देती। २ साल बाद नन्हीं परी सी खुशी घर में आई।

घर में रौनक आ गई थी, मगर माँ शालीन को बच्चों के साथ खेलने नहीं देती। राजन और खुशी जब बड़े हुए, तो उन्हें बड़े प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा, शालीन को इस बात का दु:ख नहीं था, वह अपने भाई – बहिन से बहुत प्यार करता था। उसे दर्द सिर्फ यही था कि उसकी माँ उसे प्यार नहीं करती थी। उसके पिताजी बहुत कम बोलते थे,

जब  अकेले होते तब उसको बहुत प्यार करते मगर… शायद वे भी विवश थे। शालीन  की पढ़ाई पूरी होने के बाद उसकी विद्यालय में शिक्षक की नौकरी लग गई, तभी से गाँव से दूर इस शहर में अकेले जिंदगी बसर कर रहा था। एक दो बार गाँव गया, मगर माँ ने इतनी लड़ाई की, कि वापस शहर आ गया। १० वर्ष पूर्व पिताजी की मृत्यु पर गाँव गया था,

मगर माँ ने पिता के अन्तिम संस्कार की हर रस्म से उसे दूर रखा। सारी रस्में राजन ने करवाई। १३ दिन बाद शालीन शहर आ गया। उसका अपना गाँव पराया हो गया था।

शालीन विचारों में खोया हुआ था, उसका गाँव कब आ गया उसे पता ही नहीं चला। बस से उतर कर वह तेज कदमों से अपने घर की ओर चल दिया।घर के बाहर का माहौल  देख वह स्तब्ध रह गया। उसकी माँ का पार्थिव शरीर घर के आँगन में रखा हुआ था। सारे आस- पड़ोस के लोग उसके चारों ओर खड़े थे,सबकी आँखें नम थी।

उसे देखते ही माधव काका उसके पास आए, उसके कंधे पर हाथ रखा और सबसे बोले अब देर न करो शालीन आ गया है, निर्मला बहिन की अन्तिम यात्रा की तैयारी करो। शालीन कुछ समझ ही नहीं पा रहा था, कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया, उसे चारों ओर अंधेरा नजर आ रहा था।आते समय उसके मन में जो खुशी थी वह दु:ख के दरिया में बदल गई थी।

वह सिर पकड़कर धम्म से नीचे गिर गया। जैसे-तैसे उसने अपने आप को सम्हाला, चारों तरफ नजर दौड़ाई ,उसकी नजरें उसके भाई बहनों को ढूंढ रही थी,मगर वे वहाँ नहीं दिखे।उसने रोते-रोते माधव काका से उनके बारे में पूछा, तो उन्होंने एक लम्बी साँस ली, और कहा उनका नाम मत लो बेटा,उनके कारण ही निर्मला बहिन की यह हालत हुई है।

राजन लगभग ८ साल से यहाँ नहीं आया है, वह अपनी पत्नी के साथ महानगर में बस गया है, खुशी ने अपनी पसन्द से शादी की और पति के साथ विदेश में जाकर बस ग‌ई।बेचारी  निर्मला बहिन ने अकेले बड़ी मुश्किल से अपना जीवन बिताया है। दो साल से वे बहुत ज्यादा बिमार थी, सारी खेती बंटाई पर दे दी थी।

उनके आगे विमल और किरण का नाम लेने पर भड़क जाती थी। पिछले दो सालों में वे सिर्फ तुमको याद करती थी, रोती थी और कहती थी – ‘ मैंने शालीन को कभी नहीं अपनाया, उसे कभी प्यार नहीं किया,उस बेचारे की माँ मर गई थी ,और वह तो मुझे ही माँ मानता था। शायद मेरे ही कर्मों का दोष है कि मेरे बच्चे मुझसे दूर हो ग‌ए।

हमने क‌ई बार कहा कि बच्चों को खबर कर दें, मगर वे कसम डालकर रोक लेती कहती राजन और खुशी से मिलने की इच्छा नहीं है, और शालीन से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं है।

परसों जब तबियत ज्यादा खराब हो गई तो तुम्हें यहाँ बुलाने के लिए खबर की। राजन और खुशी को बुलाने से मना कर दिया, उन्होंने कहा कि अगर वे आ भी जाए तो उन्हें मेरे शरीर को छूने मत देना,आज से मेरा एक ही बेटा है शालीन मुझे अग्नि देने का अधिकार उसी को है।’
शालीन की आँखो से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहै थे।

उसने अपनी माँ की पार्थिव देह को देखा, उसके मस्तक को चूमा, उनका हाथ अपने मस्तक पर रखा।वह बार-बार यही कह रहा था कि माँ तू अकेली दु:ख झेलती रही, मुझे पहले क्यों नहीं बुलाया। उसने माँ  का अन्तिम संस्कार पूरे विधि विधान से किया।सारा कार्यक्रम  हो जाने के बाद वकील ने मकान और जमीन के सारे दस्तावेज शालीन  को लाकर दिए,

जिसमें निर्मला जी ने अपनी सारी संपत्ती का इकलौता वारिस शालीन को घोषित किया था। इस तरह शायद निर्मला जी ने अपनी गल्ती का प्रायश्चित किया ।उन दस्तावेजों को देखकर

शालीन फफक कर रो पड़ा, वह कभी माँ पिताजी की  तस्वीर देख रहा था, कभी खाली वीरान घर को, एक सन्नाटा पसरा था, उसके चारों ओर,और वह सोच रहा था, सब साथ छोड़ कर चले गए अब क्या करूँ इन दस्तावेजों का ? हे ईश्वर! मैंने इसकी कामना तो कभी की ही नहीं थी। मैनें यह तो नहीं चाहा था।

प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक

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