लालच – सुनीता मुखर्जी “श्रुति” : Moral Stories in Hindi

अक्षरा..!! इतनी जल्दी-जल्दी घर मत आया करो..!

ऐसा नहीं है तुम्हारे आने से मुझे अच्छा नहीं लगता, लेकिन इतना दूर से आने- जाने में बहुत पैसा खर्च होता है। वह पैसा कहीं और काम आएगा। मांँ सुनंदा बोली। अक्षरा ने कहा मांँ साल में दो बार ही तो आती हूँ, मुझे भी तो मन करता है अपने घर आने के लिए। हमारे सभी दोस्त छुट्टी लेकर अपने-अपने घर जाते हैं। 

कुछ साल पहले ही अक्षरा की दिल्ली में नौकरी लगी थी। सरकारी नौकरी होने के कारण घर के सभी सदस्य बहुत खुश थे। अक्षरा इतनी दूर जाने के कारण दुखी थी।  झारखंड के एक छोटे से गांव में पली बड़ी अक्षरा अपने राज्य से बाहर नहीं जाना चाहती थी। मांँ सुंनदा ने समझाया… “दूर है तो क्या हुआ, सरकारी नौकरी बहुत ही नसीब वालों को मिलती है।”

मांँ के सामने अक्षरा ज्यादा कुछ नहीं बोल पाई बस चुप हो गई। 

घर में सात सदस्य थे। मम्मी पापा, तीन भाई, बहन एवं दादा- दादी यही परिवार के सदस्य थे। अक्षरा तीनो भाई बहन में बड़ी थी।  गांव में थोड़ी जमीन थी उसी से पूरे परिवार का भरण- पोषण चलता था। अक्षरा पढ़ाई लिखाई में होशियार थी। पढ़ाई के साथ – साथ नौकरी के लिए भी कोशिश कर रही थी। एक दिन अक्षरा की नौकरी का कॉल लेटर आ गया। पूरा घर खुशी से फूला नहीं समा रहा था।

हालांकि कोई ऊँचा ओहदा तो नहीं था, लेकिन सरकारी नौकरी थी इसलिए सभी खुश थे। सबकी अपनी-अपनी आशाएं अक्षरा के साथ जुड़ गई। 

अक्षरा ने दिल्ली जाकर नौकरी ज्वाइन कर ली। मेस का पैसा एवं थोड़ा बहुत अपने लिए रखकर पूरा पैसा घर भेज देती। मांँ उन पैसों से जरूरत की चीजों के अलावा बैंक में जमा कर देती।

सबसे पहले मांँ ने पक्का घर बनाने की योजना बनाई, और घर बनवाना शुरू कर दिया। बेटी से बोला तुम लोन अप्लाई कर दो….! तनख्वाह से तो घर बनने से रहा…!!

अक्षरा ने लोन अप्लाई कर दिया और एक साल के अन्दर घर बन गया। 

लोन धीरे-धीरे चुकने लगा। अक्षरा नौकरी कर रही थी लेकिन उसके पास कोई ढंग के कपड़े नहीं थे। वह अपने दोस्तों को अपनी पसंद के कपड़े और मस्ती करते हुए देखती तो मन मसोज कर रह जाती।

लगभग लोन चुकाने में 6 साल लगे। मांँ बोली तुम्हारा एक ही तो भाई है उसके लिए कोई दुकान करवा देते हैं। अक्षरा ने सहमति में सिर हिलाया।

अक्षरा के सभी दोस्त उससे घर में पूरा पैसा देने के लिए मना करते थे। वे समझा रहे थे कि तुम्हारी भी तो अपनी जिंदगी है, अपने लिए कुछ रखो..! लेकिन अक्षरा कहती – मैं क्या करूंँ.??  घर में पैसे की बहुत जरूरत है। मैं ही सिर्फ कमाने वाली हूंँ।

कुछ दिन के बाद भाई को राशन की एक दुकान करवा दी गई। 

अक्षरा की सभी सहेलियों के विवाह हो गए थे। सभी अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो गई। अक्षरा अकेली थी। 

एक दिन मांँ ने अक्षरा को फोन किया, कि तुम्हारी छोटी बहन चैताली का एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया है। हम लोगों ने सब कुछ देख लिया है,बहुत अच्छा घर परिवार है। अक्षरा के दिल पर ठेस लगी उसने सोचा मैं तो घर की बड़ी बेटी हूंँ। चैताली तो मुझसे चार-पांच साल छोटी है, उसका विवाह मेरे से पहले मांँ कैसे कर सकती है..? 

अक्षरा ने कहा… चैताली तो हम सबसे छोटी है..!

हांँ उसका विवाह कर देते हैं, नहीं तो तुम्हारे विवाह के बाद उसके लिए बहुत दिक्कत होगी, पैसा कहांँ से लाएंगे..? हो सकता है तुम्हारे ससुराल वाले पैसा न देने दे। इसीलिए सोच रही हूंँ तुमसे पहले उसका विवाह कर देते हैं। 

अक्षरा के दिल में कुछ खटक सा गया। उसे अपने दोस्तों की बात याद आ रही थी…. “घर में ही सब पैसा मत दे कुछ अपने लिए भी रख..!”

लेकिन अफसोस अब तो उसके हाथ में कुछ भी नहीं था।

छोटी बहन के विवाह के लिए उसे फिर लोन लेना पड़ा। वह उसके विवाह के लिए छुट्टी लेकर आ गई। सभी की नजर अक्षरा के ऊपर थी। मांँ से सभी एक ही प्रश्न कर रहे थे, बड़ी बेटी के विवाह से पहले छोटी का विवाह कुछ अटपटा सा लग रहा है।

मांँ तुरंत मुस्कुराते हुए जवाब देती, अक्षरा का कहना है कि छोटी बहन के विवाह के बाद ही वह अपना विवाह करेंगी??

अक्षरा पूरे विवाह समारोह को संभालते हुए अंदर ही अंदर दुखी भी थी कि मांँ मुझे बहुत प्यार करती है और फिर मेरे लिए उनके मन में क्या है?

शायद उनके लिए मैं पैसा कमाने की एक मशीन बन गई हूँ।

कुछ दिन के बाद वापस दिल्ली आ गई। इस बार छुट्टी से आने के बाद उसका चेहरा बुझा- बुझा सा था। जैसे वह किसी उधेड़बुन के साथ जी रही हो।

“क्या बात है अक्षरा..! घर में सब कुछ ठीक-ठाक है..? इस बार छुट्टी से आने के बाद बहुत उदास लग रही हो।”

सहकर्मी अमित्र ने पूछा।

अक्षरा ने बात टालते हुए कहा, बस कुछ नहीं तबीयत ठीक नहीं लग रही।

अक्षरा तुम्हें मैं बहुत अच्छे से जानता हूंँ कि तुम अपना दुख दर्द किसी को नहीं बताती हो..! लेकिन यह उदासी तबीयत खराब वाली नहीं है। बात कुछ और ही है, अमित्र ने दोबारा पूछा।

शाम को ऑफिस खत्म होने के बाद अमित्र ने अक्षरा से कहा चलो सामने वाले रेस्टोरेंट में चलते हैं।

अक्षरा अपनी महिला मित्र के अलावा कभी किसी अन्य के साथ रेस्टोरेंट नहीं गई थी। इसलिए थोड़ा संकोच कर रही थी, लेकिन आज वह अमित्र के कहने के अंदाज से अपने आप को रेस्टोरेंट जाने के लिए रोक नहीं पाई।

रेस्टोरेंट में बज रहे गाने की धीमी-धीमी धुन पर अमित्र गर्दन हिलाने लगा। उसे देखकर अक्षरा हौले से मुस्कुराई।

चलो भगवान का शुक्र है उदासी पर मुस्कुराहट ने जीत पा ली…! अमित्र ने मजाकिया अंदाज से कहा।

वहां के माहौल से अक्षरा अनभिज्ञ थी, फिर भी उसे बहुत अच्छा लग रहा था। 

इधर-उधर की बातों के बाद अमित्र ने सीधे-सीधे उससे पूछा- तुम अपनी बात बताओ..! हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ। तुम ऐसा नहीं सोचना कि मैं ऑफिस में तुम्हारी बातों का ढिंढोरा पीटूंगा।

अक्षरा, अमित्र को काफी समय से जानती थी वह बहुत ही अच्छा लड़का है। धीरे-धीरे उसने अपनी सब बातें उसे बताकर हल्का महसूस कर रही थी। अमित्र ने कहा तुम्हारी समस्याओं का हल है। तुम घर में पैसा देना बिल्कुल बंद कर दो।

एक दिन मांँ अक्षरा से फोन पर बात करते हुए बोली – सुना है अक्षरा! तुम्हारा पे कमीशन होने वाला है उसमें तो अच्छी खासी रकम मिलेगी। उसके लिए हम सोच रहे है उन पैसों से गहने बनवाकर रख लिए जाए, जो आड़े वक्त में काम आएंगे ।

अक्षरा ने कुछ जवाब नहीं दिया। 

अब और नहीं माँ.. ! अक्षरा मन ही मन बुदबुदाई।

अमित्र अक्सर अक्षरा से ऑफिस खत्म होने के बाद  मिलने लगा। अक्षरा को भी अमित्र का साथ अच्छा लगता था। वह अपनी सभी बातें खुलकर उसके साथ साझा करती और अमित्र भी उसकी समस्याओं का हल करने में मदद करता। 

अक्षरा अब खिली-खिली सी रहने लगी उसके अंदर का सब गुबार निकल गया था। 

एक दिन अमित्र ने अक्षरा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। अक्षरा सोचने लगी कि इससे विवाह न करने वाली कोई बात ही नहीं है। सब कुछ तो ठीक-ठाक है, कई वर्षों से जानती हूंँ। दोनों ने रजिस्ट्री मैरिज करने के बाद मंदिर में विवाह कर लिया।

दो महीने से अक्षरा ने घर में कोई पैसा नहीं भेजा। उसकी मांँ जब भी फोन करती अक्षरा रिसीव नहीं करती थी।  सुनंदा परेशान रहने लगी आखिर क्या बात है अक्षरा फोन क्यों नहीं उठाती है..?

एक दिन अक्षरा अमित्र के साथ गांव आयी। सुनंदा, अक्षरा को देखकर हैरान रह गई। बोली यह कौन है, और यह तू सिंदूर लगाई है..? हांँ मांँ तुम्हारे सभी प्रश्नों के मैं उत्तर देती हूंँ। यह मेरे पति अमित्र है। कुछ दिन पूर्व हमने विवाह कर लिया है। हमारी छोटी सी दुनिया है इसमें मैं बहुत सुखी और खुश हूंँ।

ऐसे कैसे तूने दूसरी जाति के लड़के से विवाह कर लिया। हम यहां गांव वालों के सामने कैसे मुंँह दिखाएंगे??

अब इन सब प्रश्नों का कोई औचित्य ही नहीं है क्योंकि अब मैं और अमित्र पति-पत्नी है।

माँ अब हम दुनियादारी थोड़ा-थोड़ा समझने लगे हैं।

हम तो सिर्फ तुमसे आशीर्वाद लेने आए थे। मांँ बोली मेरा आशीर्वाद तुझे कभी नहीं मिलेगा तूने मेरा बहुत दिल दुखाया है। अक्षरा ने कहा ठीक है मांँ..! अब हम चलते हैं दोबारा गांव कभी नहीं आएंगे‌।

अक्षरा को आया देख अंदर से दादा-दादी दौड़े आए उन्होंने अक्षरा और उसके पति अमित्र को ढेर सारी दुआओं के साथ आशीर्वाद दिया।

– सुनीता मुखर्जी “श्रुति”

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

हल्दिया, पश्चिम बंगाल

#समझौता अब नहीं

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