लालच के दलदल : “मातृ देवो भव” : Moral Stories in Hindi

अथाह अचल सम्पत्ति की मालकिन प्रभावती देवी आज वृद्धा आश्रम के बगीचे में बैठी सामने खड़ी ऊँची ऊँची दीवारों को एकटक घन्टों ताकती रही जिन दीवारों के उस पार देखना सम्भव ही नहीं था। वैसे भी उस पार देखने की जरूरत ही क्या है..? यह वृद्धा आश्रम अच्छा संसाधन जो सुरक्षित, सहायक और सामाजिक रूप से जुड़ा वातावरण तो यहां है ही, इसमें भोजन, स्वास्थ्य सेवा मनोरंजन सभी गतिविधियां शामिल ही हैं।

यहां अधिकतर वही लोग आते जो बेसहारा जिनकी देखभाल करने वाला कोई न हो, परिवार से परित्यक्त किये हुए लेकिन प्रभा देवी ने अपने सुकून के दो पलों के लिए खुद अपना आश्रय इसे बनाया।और लोगों को भी सम्मान से इसे अपनाने रहने की प्रेरणा दी।

पति की मृत्यु के बाद अथाह जमीन जायदाद खेती बाड़ी का काम, बहिखातो को देखने की जिम्मेदारी वो बखुबी निभाती रही यथा सम्भव सब करती दो बेटे दोनों का अच्छे से पालन पोषण उनको बड़ा किया उनका विवाह कर घर बसा अपना फर्ज पूरा करने में पीछे नहीं रही। शुरू शुरू में सभी ठीक चलता रहा बहु बेटे पोते पोतियों के साथ समय अच्छा गुजरता घर को फलता-फूलता हरा-भरा देख प्रभा देवी बहुत खुश रहती हलाकि बेटे भी व्यवसाय संभालते मगर शेयर मार्केट में ही लगे रहते अपने व्यवसाय में अधिक निपुण नहीं… मगर सर पर जिम्मेदारी आती तो इंसान निभा ही लेता सोचकर धीरे-धीरे व्यवसाय प्रभा जी बच्चों को सोंपने का सोचने लगी ।

 लेकिन एक दूसरे से अधिक पाने का लालच बहुओं में सम्पत्ति हथियाने की खींचतानी चलने लगी। और सब हथिया वो अपने एकल परिवार का सपना देखने लगी। उनका एक ही उद्देश्य प्रभा देवी की सारी सम्पत्ति अपने कब्जे में करना। कौन ज्यादा हथिया ले इसी चक्कर में रहतीं, उन्होंने अपने अपने पतियों को सिखाना पढ़ाना शुरू कर दिया बड़ी बहू बोली ये देवर देवरानी आजकल माँ के आगे पीछे घूमते सारी सम्पत्ति हड़पने की योजना बना रहे वो कहती देखो ….

 “ कल मैंने खुद सूना देवरानी के मायके वाले आये हुए और कुछ कोर्ट कचहरी की बात कर रहे देखों जी सतर्क हो जाएं आप भी, कुछ सम्पत्ति अपने नाम लिखवा लो इससे पहले देवरानी सारी सम्पत्ति हडप ले..अब मैंने जो देखा सूना बता दिया अब आपको जो करना जल्दी ही कीजिए ऐसा न हो हम सड़क पर ही आ जाये “ ‌।

सब सुनकर बड़ा बेटे के तो कान ही खड़े हो जाते हैं। असंतुष्टि की वजह से वो लालच के दलदल में प्रवेश कर अपनी सुख शान्ति सब गायब कर बैठता है। वो अपनी इज्जत शोहरत सब खोने लगता है।

“ वैसे भी लालच की वजह से इंसान कब सन्तुष्ट हो पाता है..? लालच तो ऐसी बला जो सभी महत्व गुणों को खत्म कर रख देती है” ।

अधिक हड़पने की लालसा छोटे भाई की देखा देखी बड़ा बेटा भी माँ की काफी सम्पत्ति धोखे से अपने नाम लिखवा लेता है। प्रभा देवी सब देखती रहती ऐसा नहीं की वो कुछ समझती नहीं, मगर उनका दिल कहता कैसे उन्होंने इन बच्चों के लिए अपनी सारी उम्र ही लगा दी पति के स्वर्गवास के बाद दोनो छोटे बच्चों को संभाला खुद को हिम्मत बंधाई टूटने नहीं दिया। 

दिल कहता ये अथाह सम्पत्ति सब इन दोनों के लिए ही तो है…माँ का तो जन्म ही बच्चों के साथ होता‌ है वरना तो पहले वो एक अकेली महिला ही तो रहती…उसके त्याग की महानता समझने के लिए किस की जरूरत है भला। वो नित्य कसौटियों से गुजरती हुई उम्मीदों और जरुरतों पर सदा खरी उतरने का प्रयास करती रही है। वो जब भी बच्चों को देखती बचपन के पड़ाव के बारे में सोचने पर विवश हो जाती उसको याद आने लगती उनकी शरारतें मासूमियत आज ये बड़े क्या हो गये…?  अपनी  ही माँ की ममता को टोकना शुरू कर दिया उसकी थपकियों को भी भूला बैठे।

आज वो जिस चौखट पर खड़ी…जहां उसके बच्चे बड़े हो गये लेकिन उसके लिए तो आज भी वो बच्चे नन्ही सी जान ही हैं । उसका दिल चीत्कार उठा आखिर क्या कमी रख छोड़ी उसने उनके हर सपने पूरे किए हर जरूरत का ध्यान रखा..? अपनी इच्छाओं का त्याग कर परिवार की खुशियों को प्राथमिकता दी आज बहुओं के आ जाने से माँ की ममता का रंग फीका नजर आने लगा इन बच्चों को.. मैंने जीवन के हर पहलू को सही तरीके से जीने की जो शिक्षा दी आज वो उस कला को ही भूल बैठे”..!!

प्रभा जी के पास जो ऊपर से नजर आती सम्पत्ति सभी बेटों ने अपने नाम करवा ली उन्होंने भी चुपचाप कर दी जो खानदानी जेवर तो वें पहले ही लाड़ प्यार में बहुओं को सौप चुकी थी। बहुओं ने भी जब देखा सब हड़प  लिया गया तो सास की अवहेलना,उपेक्षा परित्याग का सहारा लेने लगीं ।  वो कभी उनके खाने में नमक मिला देतीं कभी मीठा तेज कर देतीं । 

प्रभा जी उनके इरादों से वाकिफ हो ही गई  थी। इससे पहले कि वो निकालें उससे पहले ही घर छोड़ने का फैसला कर लिया बच्चों बहुओं को यह अहसास करवाती वो खाली हाथ ही है…

लेकिन कुछ सम्पत्ति जो सबकी नजर से अज्ञात प्रभा देवी ने उनका हिसाब किताब अपने वकील से सही करवा लिया बचा कुचा सभी कागज दस्तावेज साथ लेकर सुबह सबके उठने से पहले ही घर छोड़ पूर्व निर्धारित वृद्ध आश्रम में आ गई जहां उनका वकील बराबर सम्पत्ति का ब्यौरा देता रहता। उन्होंने कुछ दूर की सम्पत्ति बेचकर अपने लिए आश्रम में अच्छी व्यवस्था करवा ली उनके दिन सुख चैन शान्ति बहुओं की खिचखिच से दूर सुख सुकून के साथ कटने लगे यहां न तो बहुओं की खींचतानी न ही बेटों के ताने-बाने का भय,न मोह न माया ।

प्रभा जी ने वहीं आश्रम में अपनी समाज सेवा का दरबार सजा लिया । सम्पत्ति से गरीब बेसहारा लड़कियों की शादी कल्याणकारी कार्यों और वृद्ध जनों के लिए कुटीर उद्योग हाथ के कार्यो की सिखाने समझाने की अच्छी व्यवस्था करवा दी ।

जिससे आश्रित वृद्ध जनों को आय भी प्राप्त होने लगी उनका समय भी अच्छा कटने लगा अपनी आय से वो इच्छानुसार अपनी आवश्यक पूर्ति करने लगे परित्याग करते परिजनों के आगे सम्मान से जीने लगे । सभी प्रभा जी की बहुत इज्जत करते ऐसे ही कल्याणकारी कार्य करते एक दिन वो काफी मशहूर हो गई ।

 दोनों बेटे शेयर‌ मार्केट में काफी सम्पत्ति गंवा चुके जिससे व्यवसाय भी मंदा हो चला प्रभा देवी की शौहरत सुनकर परिवार सहित उनसे मिलने पहुँच जाते हैं। अपने किये की माफी मांगने लगते हैं। प्रभा देवी कहती हैं बेटा तुम्हारी कोई ग़लती नही जिसकी तुम माफी मांग रहे हो तुम सब लालच के दलदल में खड़े हो गये थे

अधिक बटोरने इकट्ठा करने की धुन में अपना चैन सुकून ही खो चुके हो ये लालच की आदत कभी किसी को आबाद नहीं होने देती बर्बाद करके ही छोडती है।  इसमें सारी खुशियां घुंए की तरह उड़ कर रह जाती है। अब मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ…?  मेरा जो था सब तुम्हारा ही था मैंने सारी जिंदगी तुम पर ही कुर्बान की,कम से कम इन्तजार सब्र तो करते…

“ माना माँ का हृदय दया का आगार है उसमें दया की सुगंध भरी हुई होती है, विपत्ति की क्रूर लीलाएं उसे मलीन नहीं कर सकती लेकिन  तुम…तुममें तो लालच भरा था इसलिए तुमने मेरी कद्र नहीं की आज मैं इस आश्रम में सबकी माँ रूप में पूजी जाती हूँ अब सभी लावारिस परित्यक्ताओं की माँ हूँ मैं “..।

अब तुम चाहो तो आश्रम में कुछ काम करके आय प्राप्त कर सकते हो जैसा की यहां सब करते है और इससे ज्यादा कोई मदद मैं नहीं कर सकती। यह कह अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा लेती है । बहु बेटे कुछ पल उनको निहारते इंतजार करते शायद वो पसीज जायें फिर निराश होते हुए काश उन्होंने लालच के दलदल में कदम न रखें होते ‘मातृ देवो भव’ की महिमा जान पाते पछताते हुए वापस अपने घर की तरफ लौट आते हैं।

  लेखिका डॉ बीना कुण्डलिया

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