कभी सुख कभी दुख – गीता वाधवानी

बारिश का मौसम होने के कारण भारत में कई शहरों में नदी नाले उफान पर थे। भोपाल की बेतवा नदी भी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी। इस समय उसका रूप इतना विकराल हो चुका था कि किसी की भी रूह कांप जाए। 

ऐसे माहौल में बेतवा के किनारे पर खड़ी सुरभि क्या सोच रही थी, शायद वह कूदना चाहती थी। आंखें बंद करके उसने कुछ कदम आगे बढ़ाए, तभी दो हाथों ने उसे थाम लिया और सुरभि ने आंखें खोल कर यह भी नहीं देखा कि उसे थामने वाले हाथ किसके हैं। बस उसके सीने से लगकर फूट-फूट कर रोने लगी और जब उसका मन हल्का हो गया तब उसने आंखें खोली और देखा कि लगभग 29-30 वर्ष की एक लड़की है। यह थी नीलिमा। 

नीलिमा ने सुरभि से पूछा-“कौन हो तुम और यह क्या करने जा रही थी? तुम आजकल के बच्चे भी ना, जरा सी भी सहनशक्ति नहीं है तुम लोगों में, मां बाप ने जरा सा डांट दिया तो चल पड़े गुस्से में आत्महत्या करने। या फिर ब्रेकअप हो गया तो इनका दिल टूट गया, या फिर मार्क्स कम आए और चल दिए गलत कदम उठाने। इतनी छोटी छोटी बातों पर अनमोल जीवन को समाप्त करने के बारे में सोचने लगते हो, यह नहीं सोचते कि मां-बाप पर क्या बीतेगी।” 

 सुरभि चुप थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। 

नीलिमा ने फिर कहा-“नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं पर आगे से ऐसा कदम कभी मत उठाना और हर मुश्किल से डटकर मुकाबला करना। चलो अब, बताओ कहां रहती हो। मैं गाड़ी में तुम्हें घर छोड़ दूंगी।” 

सुरभि के मुंह से पहली बार 2 शब्द निकले-“दीदी, धन्यवाद। मैं सुरभि हूं।” 

नीलिमा-“दीदी भी कह रही हो और कुछ बताना भी नहीं चाह रही हो, चलो कोई बात नहीं।” 

सुरभि-“नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है। आप अमीर हो, इतनी बड़ी तो गाड़ी है आपकी और हाथ में इतना महंगा मोबाइल।” 

नीलिमा-“तो?” 

सुरभि-“बस मन में यही विचार आया कि अमीर लोग गरीबों की मजबूरी नहीं समझ सकते।” 




नीलिमा-“हां भई, सही कहा तुमने, मैं तो अपने मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई थी। अच्छा एक बात बताओ, तुम्हारे पापा क्या काम करते हैं?” 

सुरभि-“वह ऑटो चलाते हैं।” 

नीलिमा-“तो सुनो, तुम खुद को गरीब कहती हो। मेरे पापा तो मोची थे। गली गली घूम कर काम करते थे और अपने हाथों से नए नए डिजाइन की लेडीस चप्पल बनाकर बेचते भी थे। आसपास की औरतों को उनका काम बहुत पसंद था। धीरे-धीरे वे किसी न किसी फुटपाथ पर दुकान लगाकर चप्पले बेचने लगे। हम दोनों बच्चों को, मैं और मेरा छोटा भाई, पढ़ाने के लिए खूब मेहनत करके चार पैसे जोड़ते थे। सुरभि उसकी बातें सुनकर हैरान हो रही थी। नीलिमा ने आगे कहा-“अपने पिता को सुंदर-सुंदर नए नए डिजाइन की सैंडल बनाते देखकर उस काम में मेरी भी रूचि जागृत हो गई और मैंने सैंडल एंड शूज डिजाइनिंग का कोर्स किया। छोटी मोटी कंपनियों में काम करके अनुभव लिया और फिर बैंक से लोन लेकर अपनी लेडीज सैंडल की फैक्ट्री खोली और आज मैं क्या हूं, तुम देख ही रही हो। अगर मैं भी यह सोच कर कि हम गरीब है पैसा कहां से आएगा, चुप बैठ जाती तो क्या होता, इतना कहकर नीलिमा चुप हो गई।” 

अब सुरभि ने नीलिमा से कहा-“दीदी आप तो बहुत हिम्मत वाली हो। अपने दम पर आपने लोन ले लिया। अभी थोड़े दिन पहले ही मेरा 12वीं का रिजल्ट आया था और उसमें—-” 

नीलिमा-“और तुम उसमें फेल हो गई।” 

सुरभि-“नहीं दीदी, 90% नंबर की आशा थी लेकिन सिर्फ 80% ही आए।” 

नीलिमा-“हद हो गई यार , इतनी सी बात पर तुम जान देने चली थी। 80% क्या कम होते हैं।” 

सुरभि-“हां दीदी, कम होते हैं। अब एडमिशन नहीं मिलेगा और मैं डॉक्टर नहीं बन पाऊंगी। माता पिता का सपना मैंने  तोड़ दिया और उनकी दिन-रात की मेहनत को बर्बाद कर दिया।” 




नीलिमा-“तुम कुछ और भी तो बन सकती हो। डॉक्टर नहीं बन पाओगी तो क्या हुआ। तुम्हारे मरने से तुम्हारे मां-बाप पर क्या बीतेगी, क्या तुमने एक बार भी सोचा? तुम डॉक्टर ना बन पाए कुछ और बनोगी और उनकी आंखों के सामने रहोगी तो उन्हें ज्यादा खुशी मिलेगी। ना कि इस बात से कि उनका सपना पूरा ना कर पाने के कारण उनकी बेटी उनसे हमेशा के लिए दूर हो गई। उनके लिए अपने सपने से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी बेटी है। तुम इतनी छोटी सी बात से परेशान हो गई। यह तो जीवन है जीवन में तो “कभी धूप कभी छांव यानी कि कभी दुख कभी सुख “का आना जाना लगा ही रहता है। इतनी छोटी बात से घबरा  जाओगी तो बड़ी समस्याओं का सामना कैसे करोगी। मेरी बात का विश्वास ना हो तो घर चल कर पूरी बात बता कर अपने माता-पिता से पूछना।” 

घर पर सुरभि के माता-पिता बहुत परेशान थे कि इतने खराब मौसम में अचानक सुरभि कहां चली गई। इतने में अपने छोटे से घर के सामने एक बड़ी सी गाड़ी रूकती हुई देखकर वे लोग हैरान हो गए। 

सुरभि और नीलिमा अंदर आ गई। अब बारिश और तेज हो चुकी थी। अंदर आते ही सुरभि के माता-पिता ने सुरभि से कहा-“सुरभि ऐसे बिना बताए तुम कहां चली गई थी हम तो कितना परेशान हो गए थे।”दोनों के चेहरों पर चिंता साफ झलक रही थी। 

नीलिमा ने सुरभि को इशारा किया- मानो कह रही हो, समझो इनकी चिंता को। 

सुरभि ने हिम्मत करके पूरी बात बताई तब उसके माता-पिता बहुत रोए और नीलिमा को ढेर सारा धन्यवाद देते हुए कहा-“अगर इसे कुछ हो जाता तो हम जीते जी मर जाते। सुरभि तुम्हें सिर्फ हमारा सपना नजर आया, बेटी यह तुम क्या करने चली थी?” 

सुरभि बहुत शर्मिंदा थी। उसने वचन दिया कि आगे से वह कभी भी इस गलत कदम के बारे में नहीं सोचेगी। 

सुरभि और उसके माता-पिता ने नीलिमा के साथ मिलकर खाना खाया। नीलिमा को उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। 

नकारात्मकता के बादल, और आसमान के बादल दोनों छंट चुके थे। नीलिमा घर के लिए निकल चुकी थी और साथ ही सुरभि को कह कर गई थी, यह रखो मेरा कार्ड, मैं तुम्हारी दीदी हूं ना, कभी भी कोई भी जरूरत हो तो जरूर कहना।”  

#कभी धूप_कभी छांव

कभी प्रचुरता कभी अभाव” 

यही तो जीवन है। 

 

स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित 

गीता वाधवानी दिल्ली

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!