जुर्म के खिलाफ – विनोद प्रसाद

कमला मुझे पाँच-पाँच सौ के चार नोट पकड़ाते हुए बोली- “दीदी इसे बैंक में जमा कर देना।”

 

उसके नाम मैंने बैंक में एक खाता खुलवा दिया था ताकि वह दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा कर होने वाली कमाई के कुछ पैसे पति से छुपाकर भविष्य के लिए जमा कर सके। घर में पैसे रखने पर उसका नालायक पति दारू के लिए छीन ही लेता था। 

 

 उसके बैंक खाते में अबतक लगभग चालीस हजार जमा हो चुके थे। मैंने पूछा – “कमला, तुम्हारे खाते में अच्छी-खासी रकम जमा हो गई है। क्या करोगी इन रूपयों का ?”

 

वह बोली- “दीदी, सोचती हूँ कि उसके लिए कुछ काम-धंधा का जुगाड़ कर दूँ। निठल्ले की तरह दिन भर इधर-उधर घूमता रहता है।”

 

“अरे यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन जरा ध्यान से। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी सारी जमा-पूँजी वह दारू में न उड़ा दे।”

“इसी बात का तो डर लगता है दीदी।”

“ठीक है, तुम ऐसा करना कि उसे लेकर मेरे पास आ जाना, मैं उसे समझा दूँगी। इन रूपयों के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं है। इसलिए तुम्हारे जमा रूपए में से कुछ रूपए उसे कर्ज के रूप में मैं ही दूँगी। फिर मैं उससे प्रतिदिन आमदनी और खर्चे का हिसाब मांगूंगी। ऐसे में उस पर दवाब बना रहेगा।”

“हाँ यह ठीक रहेगा दीदी। वह आपकी बहुत इज्जत करता है।”




 

सहसा मेरी नज़र उसके चेहरे पर चोट के निशान पर पड़ी। मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने पूछ ही लिया- “अरी कमला, तुम्हारे चेहरे पर यह चोट कैसी ?” हमारी बातें सुनकर अंदर से मेरी माँ भी उसे देखने के लिए आ गई।

 

चोट को छुपाने का प्रयास करते हुए उसने बताया- “दीदी, यह तो रोज का किस्सा है। कल फिर दारू के नशे में उसने मुझे बहुत मारा”- कहते हुए उसकी आँखें डबडबा गईं।

 

मैंने कहा- ” यह तो बहुत गंदी बात है। आज वह फिर दारू पीकर आएगा, तो फिर मारेगा ?”

कमला बोली- “दीदी, अब तो आदत सी हो गई है।”

“कमला, कभी तुमने इसका प्रतिरोध क्यों नहीं किया?”

“विरोध क्या करना है दीदी, रहना तो उसी के साथ है”- कमला बोली।

“इसका यह मतलब तो नहीं कि वह बात-बे-बात तुम पर हाथ उठाए। जबकि वह कुछ करता भी नहीं। दारू के पैसे भी तुम्हीं से लेता है। कमला, तुम्हारा भी अपना अस्तित्व है। अत्याचार सहना भी एक जुर्म है और तुम अपनी दुर्गति की खुद जिम्मेदार हो”- मैंने उसके स्वाभिमान को जगाने की गरज से कहा। 

 

पता नहीं मेरी बातों का उस पर कितना असर हुआ। लेकिन मेरी माँ के चेहरे पर निर्णयात्मक सोच स्पष्ट झलक रही थी, जो मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद वर्षों से स्वयं उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की शिकार हो रही थी।

(समाप्त)

 

#विरोध

 

-विनोद प्रसाद, पटना

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