हूँ तो मैं भी पिता ही ना!! कोई पत्थर तो नहीं…. – चेतना अग्रवाल

वह उसके कलेजे का टुकड़ा थी… ये बात आज तक कोई ना जान सका।

आज जब सुबह रेवती जी सौरभ जी के लिए चाय लेकर कमरे में पहुँची तो देखा वो उसकी तस्वीर हाथों में लेकर फूट-फूटकर रो रहे थे, उन्हें रोता देख रेवती जी की आँखों में भी आँसू आ गये।

वो तस्वीर वाली लड़की और कोई नहीं, उनकी अपनी बेटी रिया थी… उनका अपना खून… जिसे बहुत नाजों से पाला था..

सारी जिंदगी फूलों की तरह हाथों पर रखा था। कल उसी फूल को किसी अंजान हाथों में सौंप दिया। कैसी विडंबना है ये…. एक पिता ना तो बेटी को अपने घर रख सकता है और ना ही किसी दूसरे के हाथों में सौंपने का उसका दिल करता है… “कैसे जिऊँगा अब अपने कलेजे के टुकड़े के बिना…”

रेवती जी बोली, “कल विदाई के समय तो आपकी आँखों से एक बूँद आँसू की भी नहीं गिरी और आज…”

“तुम नहीं समझोगी रेवती… वो समय बेटी को विदा करने का था… मैं नहीं चाहता था कि उसकी नई जिंदगी की शुरूआत रोकर की जाये, इसीलिए मैंने उसे हँसते हुए विदा किया। लेकिन क्या करूँ; हूँ तो पिता ही ना… बेटी की जुदाई सहन नहीं होती।” कहकर सौरभ जी फूट-फूटकर रोने लगे।

“जी छोटा ना करो जी… ये तो दुनिया की रीत है… भला कोई पिता बेटी को घर में रख सका है… बेटियाँ तो होती ही पराया धन हैं… बस भगवान से यही प्रार्थना है कि हमारे बेटी उस घर में खुश रहे। उसे कोई दुख ना हो। मैं तो अपना दुख दिखा लेती हूँ लेकिन आप आदमी लोग तो बड़े सख्त जान होते हो, अपना दुख अपने भीतर ही रखते हो।

कल तो आपको देखकर मुझे लगा था कि आपको बेटी के विदा होने का कोई दुख नहीं है, लेकिन आप तो मुझसे भी ज्यादा…..”




“तुम नहीं समझोगी, एक पिता अपनी बेटी के दिल के कितने करीब होता है…”

“अच्छा, चलो चाय पी लो…”

“कल से मेरे गले से पानी की घूंट भी नहीं उतरी, तुम कह रही हो चाय पी लो…”

तभी कमरे में देवरानी आई, “भाभी, भैया ने कल रात भी खाना नहीं खाया था। भैया ने कह दिया अभी काम कर रहा हूँ, थोड़ी देर में खा लूँगा… उसके बाद भैया आये ही नहीं खाने… मैंने आपको बताया था लेकिन आप रसोइया के साथ सबको खाना खिलाने में बिजी थी। आपने ध्यान नहीं दिया।”

रेवती जी को ध्यान आया, देवरानी ने कल कहा था… लेकिन वो ध्यान नहीं दे पाई। सोचा था सबके साथ खा ही लेंगे… नहीं पता था कि उन्हें इतना दुख है कि वो खाना भी नहीं खायेंगे। हम तो रो-धोकर थोड़ी देर बाद खाने बैठ गये थे। माँ का तो सब कहते हैं, लेकिन सही बात है पिता का दर्द कोई नहीं समझ सकता, क्योंकि उन्हें दिखाना नहीं आता।

 

 

 




रेवती जी ने रोते हुए सौरभ जी को सहारा दिया। “आप दुखी ना हो, अगर बिटिया को पता लगेगा तो उसे बहुत दुख होगा। फिर वो भी रोयेगी, फिर आपके आँसू पीने का क्या फायदा होगा। उसे एहसास भी नहीं होना चाहिए कि उसके जाने का आपको इतना दुख हुआ कि आपने खाना भी छोड़ दिया। बेटी की खातिर कुछ खा लीजिए…” तब तक रेवती जी की देवरानी नाश्ता ले आई।

बेटी की खुशी की खातिर सौरभ जी ने थोड़ा नाश्ता किया, फिर शादी के बाद के कामों को निपटाने में लग गये।

रेवती जी सोचती रह गई, “भाभी, रिया भैया के कलेजे का टुकड़ा थी। ये बात आज पता लग रही है। आज तक भैया ने उसे केवल पढ़ाई और कैरियर में ही बढ़ावा दिया था। उनके मन में उसके लिए इतनी फीलिंग्स होंगी, कभी महसूस ही नहीं हुआ।”

“सही कह रही हो छोटी… मैं सोच रही थी कि पिता बेटी को विदा करते ही हलवाई, टैंक वाले के साथ लग गया। कितना निर्दयी होते हैं ये पिता… लेकिन भूल गई कि ये सब काम भी तो आदमी को ही देखने हैं, आदमी पत्थर बन सारे काम करता है। पहले शादी का इंतजाम… पत्नी को भी पता नहीं होता कि उसने ये सब इंतजाम कहाँ से किये। फिर कलेजे के टुकड़े को पत्थर बनकर विदा करते ही फिर काम में लग जाना…

आज पत्थर की मोम बनते देखा है…”

देवरानी भी आँखों में आँसू लिए एक थके-हारे पिता को देख रही थी, जिसके हाथ में उसका कलेजे का टुकड़ा भी नहीं रहता…

सखियों कैसी लगी मेरी कहानी… लाइक और कमेन्ट करके बताइए।

 

मेरी रचना मौलिक और स्वरचित है।

धन्यवाद

चेतना अग्रवाल

 

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