“जा…गिरजा बुआ को बुला ला… तुझसे नहीं होगा…!” कोई भी शादी ब्याह हो… तीज त्यौहार हो या फिर जन्म मरण… बिना गिरिजा बुआ के तो पूरा माहौल ही सुना हो जाता था… मंडप सजाने से लेकर… रंगोली बनाने… गीत गाने से लेकर अपनी चटपटी बातों से महफिल जमाने में गिरजा बुआ से बेहतर कोई नहीं था… तभी तो वह सब की बुआ थी…
सबकी अपनी बुआ… हर कोई बेधड़क उन्हें बुआ बुला सकता था… उनका सगा कहने को कोई नहीं था… पर वह सब की सगी थी… सबके काम आना… अच्छे बुरे वक्त में सबकी मदद करना… जिसे जरूरत हो, उसके घर जाकर उसकी चूल्हा चौकी कर देना… बुआ को इसमें जरा भी लाज नहीं आती थी…
पांच भाइयों की लाडली बहन थी गिरजा बुआ.… दस साल की छोटी उम्र में गिरजा बुआ का ब्याह हो गया था… पांच साल तक तो मायके में ही रही… फिर पंद्रह की होने पर ससुराल गई…
ससुराल का बड़ा सा हवेलीनुमा घर… बड़े-बड़े कमरे… ऊंची छत… देखकर तो बुआ चकरा ही गई थी… कई महीने तो उसे लग गए घर को पूरा देखने में… आखिर नई नवेली… घूंघट में बंधी बहू को… दुनिया देखने की, इजाजत ही कितनी होती थी… उसमें तीन-तीन जेठ… ससुर… सबके घर में रहते बहू का तो सर उठा कर चलना भी, गंवारा नहीं होता था…
सबसे छोटी बहू बनकर गई थी ससुराल बुआ… वहां दिन भर किसी न किसी काम में लगी रहती… रात को जो कमरा था, उसमें जाकर सो रहती… अपने पति का तो चेहरा भी ठीक से नहीं देखा था उसने… पति उसे विदा कर लाने के बाद ही पढ़ने को बाहर चला गया था…
उसी साल मैट्रिक पास किया था फूफा ने… तुरंत रिजल्ट निकला और पिताजी की आज्ञा से बाहर दाखिला हो गया… गिरजा बुआ अपने पति का मुंह देखने को तरस गई… वह कमबख्त भी ऐसे गए कि पूरे आठ साल बाद लौटे… तब तक गिरिजा बुआ घर के मान सम्मान… संस्कार… रीति रिवाज… की आंच में तप कर कुंदन बन गई थी… छोटी सी कली फूल बनकर खिल गई थी…
कई अरमानों की पेटियां संभाल संभाल कर इतने सालों से रखती आई थी बुआ… मगर फूफा ने सारे अरमानों में आग लगा दिया… यह कहकर कि वे अब वापस यहां कभी नहीं आएंगे… उनका शहर में ही नौकरी और ब्याह दोनों हो गया है… इतना ही नहीं एक लड़का भी हुआ है उनको…
गिरजा बुआ… जो खुद को कल तक घर की बहुरानी समझकर इतराती घूमती थी… एक पल में उसकी औकात नौकरानी भर की नहीं रह गई… पति तो इतना बोलकर पल्ला झाड़ कर निकल गया.… घर में उसकी स्थिति सोचनीय हो गई…
ससुर जी ने तो बेटे से अपने सारे रिश्ते तोड़ लिए… लेकिन बाकी लोगों के लिए यह आसान नहीं था… गिरिजा बुआ अपमानित की जाने लगी… ऊपर से तो कोई कुछ बोलता नहीं था… पर भीतर से सब उसे घर से निकालना चाहते थे….
किसी तरह लाखों कष्ट सहकर, गिरिजा बुआ दो सालों तक वहां पड़ी रही… फिर छोटे भाई के ब्याह में, एक बार जो मायके आई तो दोबारा नहीं गई… ना किसी ने बुलाया ही… वहां से सारे रिश्ते तो जिस पुरुष के साथ बंधे थे, जब उसी ने छोड़ दिया तो किसी को क्या पड़ी थी…
गिरिजा बुआ पहले तो भाइयों के बच्चे खिलाती… उनके घर के काम धंधे करती थी… पर धीरे-धीरे यह अकेली ननद पांच भाभियों से भी मिलकर नहीं रखी गई… आखिर बुआ जाती कहां, तो भाइयों ने सर्वसम्मति से जमीन का एक टुकड़ा बहन को दे दिया… बुआ ने वहीं पर अपना आशियाना बसा लिया…
क्यों संदेह के कटघरे में हमेशा औरत ही खड़ी की जाती है – गीतू महाजन
सबसे हंसती बोलती… सबके दुख सुख में काम आती…बदले में सब कुछ ना कुछ उसकी मदद करते… पर बुआ किसी के आसरे कभी नहीं रही… कोई अगर एक दाने की मदद करता, तो बुआ उसकी भरपाई जरूर करती… भूखी रही, लेकिन किसी के सामने कभी हाथ नहीं फैलाया… सम्मान की दो सूखी रोटी के सिवा उसकी जिंदगी में कुछ भी नहीं था…
जीवधन चाचा की बेटी के ब्याह में, बुआ भाग भाग कर सारे काम ऐसे कर रही थी… जैसे उसकी खुद की बेटी का ब्याह हो… कोई कुछ टोकता भी नहीं था… सब जानते थे, बुआ तो सबकी है…
विदाई का वक्त था… सबकी आंखों में आंसू थे… साथ में रस्म के गीत रीत भी निभाए जा रहे थे… जोर से गीत गाती बुआ को खांसी आ गई… बुआ को आंगन में बिठाकर, जब घर वाले वापस आए… तब तक बुआ सदा के लिए… अपने संताप से भरे देह, जीवन को छोड़ चुकी थी…
बुआ नहीं रही… सुनकर पूरे गांव के लोगों की बाढ़ उमड़ गई… जीवन भर अकेली रही गिरिजा बुआ को कंधा देने के लिए एक नहीं सौ कंधे थे…
अपने संतप्त जीवन का त्याग कर, बुआ दूसरी दुनिया के सफर पर चली गई… मगर उनकी यादें आज भी जिंदा हैं… आज भी जब कहीं कोई आयोजन समारोह होता है, तो बिना गिरजा बुआ की चर्चा के समापन नहीं होता… वह… जिसने भी उसे जाना… सबकी चहेती बुआ बनकर विदा हो गई……
रश्मि झा मिश्रा
सम्मान की सूखी रोटी…