गिरवी आत्मसम्मान की (भाग 1)  – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा 

तुमको क्या लगा कि तुम्हारे साथ रहता हूँ तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह सोचना तुम्हारा भूल भ्रम है। मैंने परिस्थिति वश निर्णय लिया था तुम्हारे साथ रहने का समझी।”

“हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी जुबान को ऐसी घटिया शब्द निकालने की ।”

शादी के बाद  पहली बार अनुज को इस तरह आग बबूला होते हुए देखा था दीप्ती ने । वह आवाक सी मूंह खोले उसे देखे जा रही थी। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही अनुज है जो उसकी दीवानगी के  कारण अपना घर -बार, माँ -बाप, भाई- बहन ,नाता -रिश्ता ,लोक -समाज सब कुछ छोड़ कर दीप्ती के साथ शादी के बंधन में बंधने के लिए तैयार गया था।

दीप्ती जैसा  चाहती अनुज वैसा ही करता। हर कदम पर वह दीप्ती का साथ देता। उसके इजाजत के बिना वह कोई भी ऐसा काम नहीं करता जो दीप्ती को नापसंद हो। दीप्ती अक्सर अपने पसंद पर इतरा जाया करती थी। सहेलियां भी मजाक उड़ाया करती थी कि अनुज पति नहीं तेरा गुलाम है। दीप्ती सहेलियों की बातों को सुनकर गर्व से फुल जाती और कहती-” देखा आखिर मेरा पसंद है । “

धनाढ्य घर की इकलौती बेटी दीप्ती को कालेज में साथ पढ़ने वाले सीधा-सादा और शर्मीला अनुज बेहद पसंद था। दीप्ती के पिता पैसों के दम पर एक से एक खानदानी और रसूख वाला परिवार ढूंढने के लिए तैयार थे । सच पूछिये तो कईयों  को ढूंढ़ भी लिया था । पर बेटी की पसंद और जिद के आगे वह बेबस हो गए। सारे अरमान और प्रतिष्ठा को दरकिनार कर वो अपने हैसियत से काफी  अलग अनुज के घर पर पहुंचे थे।
 

अगला भाग

गिरवी आत्मसम्मान की (भाग 2)  – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा 

स्वरचित एवं मौलिक 

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा 

मुजफ्फरपुर,बिहार

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