“यह क्या माँ, अब आप कोरी रोटी क्यों खा रही है? मेरी थाली मे तो आपने चुपड़ी हुई रोटी परोसी थी। माँ! ईश्वर की कृपा से और तेरी तपस्या के कारण आज तेरा बेटा इतना सक्षम हो गया है कि हम इज्जत से जो चाहें वह खा सकते हैं फिर डॉक्टर ने भी आपको घी खाने के लिए मना नहीं किया है।” सौरभ ने मॉं की थाली से रोटी उठा ली,उनकी थाली में चुपड़ी हुई रोटी परोसी और उनके पास ही बैठ गया।
रौहिणी जी कभी सौरभ को देख रही थी तो कभी अपनी थाली में रखी रोटी की ओर। वे बोली -‘बेटा मुझे ऐसी रोटी खाने की आदत हो गई है, अच्छी लगती है मुझे।’ ठीक है माँ पर मेरी खुशी के लिए आप अब चुपड़ी हुई रोटी ही खाऐंगी। मुझे काम से बाहर जाना है, जल्दी आ जाऊँगा।” सौरभ चला गया और रौहिणी जी विचारों के भंवर में उलझ गई, वे सोच रही थी मेरे जीवन में इन सूखी और चुपड़ी रोटी का क्रम भी कितना विचित्र है।
एक गरीब परिवार में पली बड़ी । माता पिता ने हम पॉंच भाई बहनों का लालन पालन बहुत मुश्किल से किया, पिता की एक किराने की छोटी दुकान थी। घी की थैलिया दुकान में होती थी, पर बेचने के लिए। थाली में होती थी सूखी रोटी। पिता की मजबूरी थी, पॉंच बच्चों की परवरिश, शिक्षा दिक्षा सबकी जिम्मेदारी थी उन पर। उनकी मित्रता थी शाम राव जी से जो बहुत धनाड्य थे। वे पिताजी की ईमानदारी से बहुत प्रभावित थे।
वे मुझे भी बहुत पसन्द करते थे, उनकी ही जिद थी कि वे उनके बड़े बेटे विनय की शादी मुझसे करेंगे। पिताजी और माँ भी खुश थे कि बेटी का विवाह अच्छे बड़े घर होगा बेटी सुखी रहेगी।शादी हो गई , विनय एक दुकान पर मुनीम का काम करता था। शाम रावजी रौहिणी को बेटी के समान रखते थे, वे जानते थे रौहिणी समझदार है, घर को सम्हाल कर रखेगी। उनको उसके गुण दिखते थे, और बाकी सारे लोग….पति, सास, देवर, ननन्द अर्थ के दास थे।वे उससे नाखुश थे कि वह दहेज लेकर नहीं आई।
शाम रावजी के सामने तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी, मगर जब वे नहीं होते ,उसे सबके ताने सुनने पढ़ते। उसने कभी शाम रावजी के आगे शिकायत नहीं की। एक शाम रावजी का स्नेह और विश्वास ही था कि वह सब चुपचाप सबकी बातें सह लेती थी। सौरभ के जन्म पर शामरावजी कितने खुश हुए थे, उन्होंने पूरे मुहल्ले में मिठाई बांटी और बहुत बड़ा उत्सव रखा था।
सौरभ के आने के बाद उसे भी खुश रहने की वजह मिल गई थी। हालाकि घर के लोगों का रवैया तो वही था पर वह उसपर ध्यान नहीं देती थी। मगर स्थिति एक सी नहीं रहती है शामरावजी की मृत्यु हो गई ,और उसका पक्ष लेने वाला कोई नहीं रहा। हालत उस समय और बदतर हो गई जब देवर की शादी एक धनाड्य परिवार में हुई, वह बहुत सारा दहेज लाई थी अत:सभी की चहेती थी।
देवर भी विक्रय कर अधिकारी था, अच्छी कमाई होती थी। रौहिणी को हर समय ताने सुनने पढ़ते थे, वह कहे तो किससे ? पति ने कभी उस पर ध्यान दिया ही नहीं, उसके दिल में कई बार विचार आता कि इससे अच्छा तो यह होता कि ‘माँ- पापा मेरा विवाह किसी गरीब घर में कर देते ,इन चुपड़ी रोटी से तो सुखी रोटी खा कर भी मैं खुश रहती।’ देवर के बच्चे राजसी वैभव में पल रहै थे और सौरभ हमेशा डरा सहमा सा रहता था।
रौहिणी की हालत भी एक नौकरानी सी हो गई थी। उस पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा था जब उसके पति का भी आकस्मिक हृदयाघात से निधन हो गया। अब तो रौहिणी और सौरभ का भोजन करना भी सबको अखरने लगा था। सौरभ सात साल का हो गया था और सबके व्यवहार को समझने लगा था। एक दिन तो हद हो गई सौरभ ने एक बर्फी उठा ली तो उसकी चाची ने उसपर हाथ उठा दिया, रौहिणी ने उसका हाथ पकड़ लिया और एक कठोर निर्णय ले लिया कि वह अब इस घर में नहीं रहेगी।
आज रौहिणी को वह दिन याद आ रहा था, जब उसने उस देहली से पैर बाहर निकाला जिससे होकर वह अपने पति के साथ घर में आई थी। आज उसके साथ उसका नन्हा बेटा था ।
उसके कानों में सासुजी की ये कड़क आवाज़ आज भी गूंजती है -‘इस देहली से बाहर जा तो रही हो आज से तुम्हारा इस घर और परिवार से कोई रिश्ता नहीं रहेगा।’ वह चुपचाप देहली को प्रणाम कर निकल आई थी घर से यह भी नहीं सोचा था कि कहाँ जाएगी। माता- पिता का देहांत हो गया था और भाई -भाभी से कोई उम्मीद नहीं थी।
उसे याद आया पास के गॉंव में उसकी पक्की सहेली रहती है, वह उसके पास गई और अपनी परेशानी बताई। वह उसे एक मंदिर के पुजारी जी के पास ले गई, वे बहुत दयालु थे उन्होंने मंदिर के पीछे बने कमरो मे से एक कमरा उसे दे दिया, किराया भी नहीं लिया और उसे मंदिर की और उसके प्रांगण की सफाई का कार्य सौंप दिया। रौहिणी खाली समय में भगवान् की सुन्दर-सुन्दर पोशाके और गहने बनाती।
किसी के कपड़े सिलवाने होते तो सिल देती। मंदिर मे पुजारी जी के पास मशीन थी जो उन्होंने रौहिणी को दे दी थी। अब वे वृद्ध हो गए थे और सुई में धागा नहीं पिरो पाते थे। रौहिणी के आने से उन्हें भी बहुत आराम हो गया था। रौहिणी को कुछ पैसा इस तरह मिल जाता था। रूखी सुखी रोटी खाकर भी,सौरभ अब वह खुश रहता था। उसके चेहरे पर अब डर का भाव नहीं रहता था ।
वह विद्यालय पढ़ने जाने लगा था। वह कुशाग्र बुद्धि का था। रौहिणी उससे हमेशा कहती कि बेटा पढ़ाई मन लगाकर करना, तुम्हें पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनना है। आठवीं कक्षा में उसका नाम प्राविण्य सूचि में दूसरे नंबर पर आया अब उसे पढ़ाई के लिए स्कालरशिप मिलने लगी थी। बारहवी के बाद उसने इंजिनियरिंग की पढ़ाई की।
पढ़ाई के साथ वह ट्यूशन भी करता था।उसने अपना लक्ष्य बना लिया था कि वह अच्छी पढ़ाई करेगा, अच्छी नौकरी करेगा और माँ को सुख से रहेगा। उसकी मेहनत रंग लाई आज वह इंजीनियर के पद पर नौकरी कर रहा है और माँ का पूरा ध्यान रखता है। भोजन करते हुए, पूरे समय रौहिणी अपने जीवन के इस सफर पर विचार करती रही, वह सोच रही थी मैने अपने घर से निकलकर अच्छा ही किया आज बेटा सम्मान की सूखी रोटी खाकर कुछ बन पाया,अच्छे संस्कार और सम्मान के साथ वह अपना जीवन जी रहा है।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित