एक बार आ जाओ ना (भाग-2) – मीनू झा 

अरे वो बुआ के घर गई है,अगले हफ्ते रश्मि की शादी है ना..हमलोग भी दो तीन दिन में निकलेंगे,उसे रश्मि ने पहले बुलाया था।

तो क्या..बिना मिले जाना होगा शुभा से,कैसे और कब कहेगा अपने दिल की सारी बातें..कैसे कहेगा कि अब तुम बिन जीना मुश्किल है,बहुत हो गया अब छुपना छिपाना,अब हमलोग साथ साथ जीएंगे साथ मरेंगे, पर बस थोड़ा सा इंतजार कर लेना मेरा,जाते ही घर में बात करूंँगा,मांँ तो मान ही जाएगी पापाजी को थोड़ा मनाना पड़ेगा,वो काम छुटकी कर लेगी,पापाजी की लाडली है ना,उसको दो चार अच्छी सलवार सूट का लोभ देना होगा..।मान जाएंँगे सब और जब मांँ को लेकर आऊंगा तुम्हारे घर तो चाचाजी चाचीजी को मना ही लेंगी वो,वैसे भी दोनों इतने अच्छे हैं..वरना बचपन की सहपाठी के बेटे को नए शहर में शुरू से इतनी मदद की,हाॅस्टल मिलने तक अपने घर पर रखा,सुख दुख पर्व त्योहार सब साथ मनवाए, कोई इतना प्यार दुलार थोड़े ही देता है एक अंजान को..।

क्या हुआ बेटा..क्या सोचने लगे-चाचीजी पूछ बैठी

कुछ नहीं चाचीजी..सोच रहा था दो चार दिन में तो मैं भी घर चला जाऊंँगा,फिर शायद रिज़ल्ट के वक्त़ ही आऊंँ,तब आपलोगों से मिलना हो।

चलो,भगवान से दुआ करूंँगी,जल्दी नौकरी पर लग जाओ,एक बात पूछूंँ बेटा?

जी पूछिए ना..

 

पहले बहन की शादी करोगे फिर खुद की करोगे ना?

 

कह नहीं सकता चाचीजी,जैसा पापाजी और मांँ सही समझें-थोड़ा झिझकते हुए बोला श्रवण

 

अपनी शादी में बुलाना मत भूलना हमें

 



ये भी कोई कहने वाली बात है चाचीजी–श्रवण के मन में आया सारी बातें कह दे चाचीजी को मौका भी है समय भी,पर वो तो सबसे पहले शुभा को,फिर अपनी मांँ को बताना चाहता था, पेशोपेश में पड़ गया वो क्या करे।

 

मुझे लगता है तुम कुछ कहना चाह रहे हो–जाने कैसे उसके मन की भांँप गई थी चाचीजी

 

नहीं.. कुछ भी तो नहीं

 

अगर हड़बड़ी ना हो तो पांँच मिनट बैठोगे,कुछ बातें करना चाह रही थी तुमसे,फिर शायद हो ना पाए–

 

श्रवण का कलेजा मुंँह से बाहर आ रहा था,क्या कहने वाली है चाचीजी आखिर, कहीं उसके मन की थाह तो ना लग गई उन्हें।

 

हांँ हांँ चलिए ना चाचीजी कोई हड़बड़ी नहीं है

 



देखो बेटा तुम तो जानते ही हो,हम लोग बड़े सीधे सादे लोग हैं, बहुत छोटा कस्बा है ये,पर हमारी इज्जत बहुत बड़ी है यहांँ,छोटा बड़ा हर कोई अदब करता है हमारा।शुभा हमारी इकलौती बेटी है, लाडली और आंँखों का तारा,तुम बहुत अच्छे हो बेटा,अगर मेरा कोई बेटा होता तो मैं चाहती वो तुम जैसा ही होता,सुंदर,सभ्य,संस्कारी,… मैं अनुभवी हूंँ बेटा, आंँखें पढ़ सकती हूं,कई बार देखा है तुम्हारी आंँखों में,अथाह प्रेम,तुम्हारे हाव-भाव में असीम स्नेह,…शुभा के लिए… बहुत किस्मत वाली होगी वो लड़की जो तुम्हारी संगिनी बनेगी,पर अपने दायरे और समाज की खींची हुई लकीरों से निकलना बहुत मुश्किल है हमारे लिए..।समझ रहे हो ना,जो तुम सोच रहे हो वो ना संभव है और ना ही सही हमदोनों परिवारों के लिए..।तुम्हारी भी छोटी बहन है कल को उसके भी ब्याह में परेशानी आएगी,तुम्हारे पिताजी को जानती हूं मैं, सहमति तो दे ही देंगे तुम्हारी खुशी के लिए पर बहुत दुखी होंगे अंदर से,क्योंकि वो अपनी परंपरा और जड़ों से बहुत जुड़े हैं….।मुझे पता है, शायद ये बातें,ये बाधाएं बीस साल बाद अस्तित्वहीन हो जाएं,इनका कोई औचित्य ना रहे पर आज के समय में ये दुनियांँ,ये समाज,गली,मुहल्ला कोई भी तुमलोगों को चैन से जीने ना देगा बेटा।

चाचीजी मैं बीस साल क्या बीस जन्म इंतजार कर लूंगा शुभा के लिए,पर अलग होने का दंड ना दीजिए मुझे। मैं अब शुभा के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता–कहते कहते रो पड़ा श्रवण

मैं तुम्हारे मनोभावों को समझ सकती हूं,पर तुम्हारे और शुभा के लिए यही बेहतर होगा बेटा,भले तुमने उससे आजतक कुछ ना कहा हो..पर मैंं देख रही हूं आजकल शुभा बहुत बदली बदली सी नज़र आती है..पूछने पर कभी पढाई के दवाब की बात करती है, कभी तबियत अच्छी ना होने का बहाना बनाती है, कुछ ना कुछ तो उसके भी मन में चल रहा है।रश्मि की शादी मेंं भी जाने से आनाकानी कर रही थी,जिस रश्मि की शादी की तैयारियांँ वो पिछले दो साल से कर रही थी,पर तुमलोग दोनों अभी बच्चे हो,भोले हो..और अच्छा है कि अभी से ही तुम्हारे रास्ते अलग हो जाएंँ, बात ज्यादा बढ़ गई तो संँभालना मुश्किल हो जाएगा,अभी दोनों को भूलने में आसानी होगी…।



पर कहांँ भूल पाया एक पल के लिए भी अभी तक,उस दिन के बाद उसने उसका शहर ही नहीं, लगभग हर उस आदत को भी छोड़ दिया जो उसकी याद दिलाए,पर जाने किस मिट्टी की बनी हैं वो यादें, ना टूटती है, ना बिखरती है ना भरभराती है जबकि रोज सरोबार होती हैं आँसुओं से।बीस साल बीत गए पर शुभा आज भी उसके मन आंँगन में वैसे ही कुलांँचे भरती है जैसा तब भरती थी,आज भी हर चेहरे में उसी को ढ़ूंँढता है, कहीं मिल जाए तो एक बार सिर्फ एक बार उसको जीभर देख लें और पूछ ले उससे–तुम भी मुझे पसंद करती थी क्या,मुझे याद किया कभी क्या,मेरा इंतजार किया था तुमने फिर उन शामों में,तुम भी कुछ कहना चाहती थी क्या मुझसे,कभी ये भी सोचती होगी ना कि शायद तुम्हारी मुहब्बत इकतरफा थी,या ये भी कि मैं बदमाश, धोखेबाज,बेवफा था,तुम्हारे दिल से खेलकर चला गया।काश तुमको बता पाता मैं, कि तुम्हारे इकरार की तमन्ना तुम्हें पाने की ख्वाहिश से कहीं बड़ी थी,एकबार तुम्हारे मुंँह से हांँ सुन लेना ही तुम्हे पा लेना था मेरे लिए..मन का मन से मिलन…तुम्हारे स्वीकार भर से ही पूरा हो जाता हमारा नेह..पर कैसे समझाता ये बात मैं किसी को..पता नहीं मेरे इस अधूरेपन का अंत कब होगा..होगा भी या नहीं..पर मैं तो इंतजार करूंँगा अपने “मनबंधन” का।इसी आस में तो जीने का मोह ना छोड़ पाया आजतक.. कहीं तो मिलोगी..कभी तो मिलोगी…बस एक बार मुहर लगा देना मेरी प्रीत पर अपने स्वीकार की मेरी आँखों मेंं आँखें डालकर..एक बार कह देना,हाँ क्षणांश के लिए ही सही मैं भी तुम्हें अच्छा लगा था,तुम भी मुझे पसंद करती थी…फिर भले सात जन्म बाद मिलना..पर बस एक बार..मैं इंतजार में हूंँ..और करता रहुंँगा..तुम्हारे मिलने तक..एक बार आ जाओ ना….।

 

धन्यवाद दोस्तों आशा है ये कहानी आपको जरूर पसंद आएगी,आपकी हर तरह की प्रतिक्रिया का दिल से स्वागत है,बहुत बहुत धन्यवाद

मीनू झा 

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