एक औरत के दिल की थाह – गीतू महाजन : Moral Stories in Hindi

पिताजी की 13वीं को बीते हुए 2 दिन हो चुके थे।सारे रिश्तेदार अपने-अपने घरों में वापिस जा चुके थे और आज ही छोटी बहन आरती भी सुबह अपने बेटे और पति के साथ ससुराल के लिए निकल गई थी।घर में बस मैं ,मां ,मेरी पत्नी शालिनी और हमारा 5 वर्षीय पुत्र आयुष था।मैंने तो अपनी दुकान चौथे उठाले के बाद खोल ली थी और शालिनी..जो कि स्कूल में अध्यापिका थी उसने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था।बेटा भी स्कूल जाने लगा था।

मैं मां को देखता तो मेरा दिल दुख से भर जाता।कुछ दिनों में वह कितनी ही बदल गई थी।सूनी आंखों से जब वह शून्य को ताकती रहती तो मेरी आंखें अनायास  ही  बहने लगती।उस वक्त मैं यही सोचता कि पति पत्नी का रिश्ता कितना गहराई से जुड़ा होता है जिसके होने का एहसास तो कम हो चाहे लेकिन खोने के बाद उसकी जुदाई का एहसास अंदर तक तुम्हें तोड़ देता है और यह बात मां की हालत को देखकर मैं अच्छी तरह से समझ पा रहा था।

मां अब चुपचाप रहती।घंटों एक ही जगह बैठी रहती.. किसी से बात ना करती।आरती का भी फोन आता तो हूं हां में जवाब देकर रख देती.. कहती किसी से बात करने का मन नहीं करता। 

ज़िंदगी की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आ रही थी। रिश्तेदारों का भी आना जाना अब कम हो गया था।हां.. मां अब भी वैसे ही दुखी थी पर..मैं एक परिवर्तन देख रहा था और वह परिवर्तन शालिनी में था।शालिनी अब मां का पूरा ध्यान रख रही थी।मां के पास बैठकर उनसे बातें करती।उनकी पसंद की चीज़ बनाकर उन्हें खाने के लिए मनुहार करती।उनको अपने साथ शाम को रोज़ पार्क में टहलने के लिए ले जाती और स्कूल से भी फोन करके उनका हाल-चाल पूछती रहती।राधा जो हमारे घर दिन-रात रहती थी वह भी कहती कि भाभी तो अम्मा की बहुत ही अच्छे से सेवा कर रही है। 

सब कुछ ठीक तो था पर मुझे क्यों अटपटा लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि शालिनी और मां के बीच हमेशा एक दूरी ही रही।मेरी शादी को 7 साल हो चुके थे पर शालिनी और मां को मैंने कभी ना सास बहू की तरह लड़ते देखा और ना ही कभी हंसते बतियाते।एक अजीब सी खींचातानी सी रहती उनमें जो कि बाबूजी और मैं भी महसूस करते।वह दोनों एक दूसरे की शिकायत भी नहीं करती जिससे कि कोई समस्या नज़र आए।हां.. एक अजीब सा मनमुटाव था

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शायद उन दोनों में और यह मन मुटाव शायद आरती को लेकर था।क्योंकि आरती, मेरी छोटी बहन मां की लाड़ली थी। वैसे तो लाड़ली वह बाबूजी की भी थी पर मां उसका हमेशा पक्ष लेती।चाहे वह बचपन में मेरे साथ लड़ाई की बात क्यों ना हो और इसी बात का फायदा वह शुरू से उठाती आई थी।मुझे लगता कि शायद शालिनी को कहीं ना कहीं मां का उसका पक्ष लेना चुभ जाता था। इसलिए वह उन दोनों से दूरी बनाकर रखती।

आरती अपनी सहेलियों की भाभियों की शालिनी के साथ तुलना कर मां के सामने खूब प्रशंसा करती शायद यह उसका बचपना था और मां की यह गलती थी कि वह उसे टोकती नहीं थी।हां..प्रत्यक्ष रूप से आरती ने शालिनी को कभी कछ नहीं कहा और ना ही उसके साथ कभी कोई बदतमीजी की।शालिनी कोई भी खाने की चीज़ बनाती तो मां और आरती ना कभी तारीफ करती और ना ही कभी बुरा कहती पर शायद एक नवविवाहिता अपनी ननद और सास के मुंह से तारीफ के बोल सुनना चाहती थी।

आरती अपनी ही पढ़ाई और सहेलियों में व्यस्त रहती और मां अपने पूजा पाठ और घर के कामों में।हां.. उन्होंने शालिनी को कभी कोई ताना नहीं दिया पर यह भी सच है कि कभी उसके साथ खुलकर वह बोली भी नहीं। इसलिए धीरे-धीरे शालिनी ने चुप्पी का आवरण ओढ़ लिया था।पर..आज की शालिनी बहुत अलग थी।आज वो मां के साथ साया बनकर खड़ी थी। 

धीरे-धीरे मैंने मां में भी परिवर्तन देखा।मां अब बातें करती थी और शालिनी से अपनी फरमाइश की चीज़ भी बनवा कर खा लेती थी। गर्मी की छुट्टियां आने वाली थी। एक दिन घर आया तो आरती और उसके बेटे को  सामने पाया।आरती झट से मेरे गले लग गई और बोली,” भाई, तुम्हें पता है मुझे भाभी ने कितने फोन करके यहां पर बुलाया है भाभी मुझे हर दूसरे तीसरे दिन फोन करती है और जब से बाबूजी गए हैं ना तब से भाभी मुझे एक ही बात बोलती है

कि बेटियों से मायके की रौनक होती है।बाबूजी नहीं रहे तो क्या..हम सब है यहां पर और आज भी तुम्हारा अपने मायके पर उतना ही हक है जितना पहले  था।सच भाई भाभी बहुत अच्छी हैं मैं ही नादान थी जो अपनी भाभी को समझ ना सकी”। मैंने आरती के सिर पर हाथ रखा और उसे दुलारते हुए मां के पास बैठा दिया और उसके बेटे को गोद में लेकर उसके साथ खेलने लगा।मेरा बेटा भी दादी की गोदी में बैठकर कुछ खा रहा था।

शालिनी मेरे लिए चाय लाकर रख गई थी। मैंने एक नज़र उठा कर रसोई में व्यस्त शालिनी को देखा तो मुझे ऐसे लगा कि शालिनी जो मेरी पत्नी तो कब से बन गई थी लेकिन आज सही मायने में वह बहू और भाभी बनकर अपना फ़र्ज़ निभा रही थी।वह इस समय आरती और मां के पिछले व्यवहार को भूल कर कैसे इस मुश्किल समय में उनका साथ दे रही थी और उसके इसी व्यवहार की वजह से घर का माहौल

खुशनुमा हो गया था।मैं सोच रहा था कि एक औरत के दिल की थाह कितना मुश्किल होता है।अभी कुछ दिन पहले जो औरतें एक दूसरे से ज़्यादा बात नहीं करती थी आज कैसे एक दूसरे का संबल बनी हुई हैं।रसोई से ही शालिनी की उड़ती नजर मेरी तरफ पड़ी और हम दोनों एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुरा उठे। 

#स्वरचितएवंमौलिक 

#अप्रकाशित 

गीतू महाजन,

 नई दिल्ली।

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