दस्तक – डॉ. पारुल अग्रवाल

संध्या के साथ आज जो भी कुछ घटित हुआ,उससे संध्या के तो मानो पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई। उसने आज तक खून का पानी होने वाली कहावत सिर्फ सुनी ही थी पर आज उसने प्रत्यक्ष रूप में अनुभव भी कर लिया। आज उसके ही सहोदर ने उसको ऐसा दर्द दिया था जिसको वो भुला नहीं पा रही थी। जिसकी दस्तक तो पहले भी कई बार हुई थी पर वो ही अपनी भावुकता में उसको सुन नहीं पा रही थी।

एक तो वैसे ही अपनी मां की हालत देखकर परेशान थी, दूसरी तरफ उसके भाई और भाभी का व्यवहार दिल तोड़ने वाला था। मां तो वैसे भी पापा के जाने के बाद बिल्कुल अकेली हो गई थी उस पर उनका चलते हुए फिसल कर गिर जाना,उन्हें पूरी तरह बिस्तर पर ले आया था।भाभी ने पहले ही कोई भी ज़िम्मेदारी लेने से मना कर दिया था, पर संध्या को तसल्ली थी कि कम से कम भाई मां को अच्छे से अच्छे डॉक्टर से दिखा रहा था। सभी डॉक्टर्स ने ऑपरेशन का ही सुझाव दिया था।

 अब संध्या कशमकश में थी कि सब कैसे होगा क्योंकि संध्या अपने पति और बच्चों के साथ दूसरे शहर में रहती थी। खुद उसकी भी नौकरी थी जिसमें छुट्टी मिलना थोड़ा मुश्किल था।आखिर में उसने ये सोचा कि अगर छुट्टी नहीं मिली और मां का ख़्याल रखने के लिए नौकरी छोड़नी पड़ी तो वो छोड़ देगी पर ऐसी नौबत नहीं आई थोड़ी छुट्टियां मिल गई। जब मां के ऑपरेशन के लिए एडमिट किया तो वो मां के पास थी। बच्चों की परीक्षा थी इसलिए उसके पति उनके साथ थे। वो अकेले ही टैक्सी करके मां के पास पहुंची, सफर में थोड़ा समय लगा। जब वो हॉस्पिटल पहुंची तो भाई वहीं था पर उसका व्यवहार संध्या के प्रति बहुत रूखा था। 

संध्या को तो बस मां की चिंता थी, उसे उसका व्यवहार बुरा तो लग रहा था फिर भी उसने अनदेखा कर दिया, वो बहुत थकी हुई थी भूख भी लगी थी पर भाई को जैसे उससे कोई मतलब नहीं था। वो शाम को हॉस्पिटल पहुंची थी, उसके वहां पहुंचने पर भाई थोड़ी देर में ही उसको मां के पास छोड़कर निकल गया क्योंकि वो सुबह से हॉस्पिटल में ही था। अब संध्या के पास खाने के लिए कुछ नहीं था,शाम से रात हो गई थी पर वो ऐसे ही बैठी थी। वैसे तो आज के हॉस्पिटल भी किसी पंच सितारा होटल से कम नहीं होते पर वो हॉस्पिटल थोड़े पुराने टाइप का था तो उसमें खाने पीने की व्यवस्था मरीज़ के लिए तो थी पर उसके साथ रुकने वालों के लिए नहीं थी। 




किसी तरह से उसने वो समय निकाला पर अभी तो अगला दिन भी था।

 सुबह 10 बजे भाई पहुंचा,भाई का घर हॉस्पिटल से ज्यादा दूर भी नहीं था पर अभी भी उसका व्यवहार उसके साथ जस का तस ही रहा। ना तो उसको ये मतलब था कि बहन ने रात को कुछ खाया या नहीं और ना ही ये मतलब था कि आज वो अपने खाने का कैसे करेगी? इतना समय संध्या को भूखा रहते हुए हो गया था,उसकी अपनी कुछ बीमारियां थी जिसकी दवाइयां वो खाने के बाद ही ले सकती थी। उसको लग रहा था कि कहीं वो ही बीमार ना पड़ जाए। 

भाई के आते ही वो मां के पास उसको छोड़कर नीचे कुछ खाने का देखने के लिए निकली। हॉस्पिटल ऐसी जगह था कि उसको खाने का कुछ समझ नहीं आया, वैसे भी वो था तो उसका ही शहर पर पढ़ाई और शादी के बाद उसका वहां रहना भी नहीं हुआ था इसलिए उसको कुछ पता भी नहीं चल रहा था। किसी तरह से एक चाय की दुकान दिखी,जो बस ठीकठाक सी ही थी पर अब इसी का सहारा था। उसने वहां से किसी तरह चाय और बिस्कुट ली जिससे वो अपनी दवाई खा सके। वैसे भी आज का पूरा दिन उसे इसी चाय-बिस्कुट पर निकालना था क्योंकि अब उसको अपने भाई से कोई उम्मीद नहीं रही थी।

उसके मन में बार-बार ये भी आ रहा था कि ये वो ही भाई है जिसका उसके सभी रिश्तेदारों में इतना नाम है।जो सबमें अपने अच्छे व्यवहार के लिए इतना प्रसिद्ध है और वो अपनी बहन को दो रोटी भी नहीं खिला पा रहा। मां का भी ऑपरेशन ठीक हो गया था। पंद्रह दिन के बाद फिर उनको हॉस्पिटल में दो दिन के लिए एडमिट होना था पर इस बार संध्या हालातों का सामना करने के लिए तैयार थी। वैसे भी आज का दिन उसको ज़िंदगी में एक कभी ना खत्म होने वाले दर्द के साथ साथ एक बहुत बड़ा सबक भी दे गया।




 हालांकि उसने तो कभी संपत्ति में भी अपने भाई से कोई हिस्सा नहीं मांगा था। यहां तक की मायके में भी वो अपनी शादी के बाद बहुत ही कम जाती थी पर भाई के व्यवहार ने आज उसका दिल पूरी तरह तोड़ दिया था। बात सिर्फ खाने की नहीं थी पर जो उसके पीछे छिपा संदेश था वो संध्या को पूरी तरह समझ में आ रहा था। अभी तक जब भी रक्षाबंधन और भाईदूज आता था उसके मायके में तनाव का माहौल हो जाता था। कई बार तो भाभी और उसके माता-पिता के बीच इतना क्लेश होता था कि उसका थोड़ी देर का आना भी एक सज़ा बन जाता था। त्योहारों से लेकर अब तक की सारी कड़ियां जुड़ती जा रही थी,उसे समझ आ रहा था कि उसके भाई-भाभी उससे भविष्य में कोई संबंध नहीं रखना चाहते हैं, वो ही शायद समझ नहीं पा रही थी। आज ये रिश्तों के खत्म होने की दस्तक पूरी चोट के साथ हुई तब जाकर कहीं उसने माना।

दर्द तो उसका बहुत गहरा था पर उसको साथ-साथ ये भी लगा कि रिश्ता खून का ही क्यों ना हो पर आप जबरदस्ती किसी को अपना नहीं बना सकते। इस तरह के रिश्तों को वक्त और हालत पर छोड़ देना चाहिए। वैसे भी कहा भी गया है कि कुछ रिश्ते किराये के घर जैसे होते हैं जितना भी मर्जी सजा लीजिये कभी अपने नहीं होते।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? हो सकता है,आपको लगे कि ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है पर जो भाई- बहन एक दूसरे के साथ बचपन से पले बढ़े हों और उसमें से किसी एक का भी इस तरह का व्यवहार हो तो दूसरे के ऊपर क्या बीती होगी इस दर्द का भी अंदाजा लगाना मुश्किल है। वैसे भी एक बेटी के लिए अपने मायके से ही मिले इस तरह के पराए व्यवहार को झेल पाना बहुत कठिन है।

स्वरचित और मौलिक

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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