चार लक्खी (कहानी) -डॉ उर्मिला सिन्हा

   देवकी कल रात से ही उतावली हो रही है।रात भर वे ठीक से सो नहीं पाईं … नींद आती कैसे जिन आंखों में नन्दलाल की मोहिनी सूरत बैठी हुई हो उसमें नींद कहां?

   देवकी का बेटा नन्दलाल आई०पी०एस०भारत सरकार का जिम्मेदार पुलिस अफसर।

    पूत के पांव पालने में ही दीखने   लगा। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का था उसके जन्म पर गुड़ से बने मिठाई से पास-पड़ोस का मुंह मीठा करवाई थी देवकी की सासु मां। ढोलक पर थाप दे गला फाड़कर गा उठीं थी ,”मेरे घर जन्म लियो नन्दलाल….!’

  पहिलौंठी का बेटा लोग बधाईयां देने लगे। नंदू के दादा बाप साधारण कृषक थे। वे लोग साधारण हैसियत के जरूर थे किन्तु थे दिलवाले। दादी ने नाम रखा –नंदू ,दादा ने आगे जोड़ा –नन्दलाल और पिता विद्यालय में भर्ती करवाने गये तो एक शब्द और जोर दिया कुमार। वही नंदलाल कुमार आज बने हैं एन०एल०कुमार आई०पी०एस०.

    ‌नंदू के आई०पी०एस०बनने की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई।

  “धन्य हो नंदू की मां जो ऐसा होनहार पुत्र पैदा की ..”रिश्ते की मौसी बोली ।”गांव ज्वार को गौरवान्वित किया।”

      “यह आप सभी का आशीर्वाद है नंदू मेरा ही नहीं आप सभी का अपना है…”! देवकी का मातृत्व सार्थक हो उठा था।इतने वर्षों की तपस्या रंग लाई थी ; गुदड़ी में लाल ने जन्म लिया था।

    “अम्मा मैं भ‌ईया से घड़ी लूंगी , मेरे भैया इतने बड़े पुलिस अफसर बने हैं “बड़ी के खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

   “, और मैं एक जोड़ी छींटदार धोती लूंगी ,हरि चाचा कह रहे थे बहुत पैसा मिलेगा भ‌ईया को , हमारे तो भाग्य खुल गये…!”मंझली चहक रही थी।

    ‌”मैं कान के बूंदें लूंगी अम्मा…;”छोटी भला कब पीछे रहने वाली थी।

  “मैं भ‌ईया के साथ जाऊंगा, अंग्रेजी स्कूल में पढूंगा।भ‌ईया जैसा पुलिस अफसर बनूंगा ..”!नंदू का छोटा भाई इन्द्रधनुषी कल्पना में खो गया।

  सभी भाई-बहनों में सबसे छोटा,सबका लाड़ला छोटू मनमौजी किस्म का लड़का था।नंदू जितना ही पढ़ाकू, धैर्यवान और गम्भीर था उसके विपरीत छोटू उच्छृंखल, मुंहफट और लापरवाह था।

     शाम में नंदू के पिता जब घर लौटे तो कुछ अनमने से थे। चेहरा  बुझा-बुझा सा । देवकी तुरन्त ताड़ गई ….इतने वर्षों का साथ है …. एक झलक देखकर ही मन की बात समझ में आ जाती है।

  “तबियत ठीक नहीं है क्या…?” 

“नंदू आया है …!”




  चीख पड़ी देवकी,”नंदू आया है कहां है मेरा बेटा,बहू भी साथ आई है ,मेरा मुन्ना कैसा है जी ..?”उन्मादिनी सी देवकी चौखट की ओर दौड़ पड़ी।

   “अरे, लड़कियों कहां हो , नंदू आया है नंदू…!”

 ‌”होश करो नंदू की मां ‌, हमारा बेटा आया है इसमें इतना शोर मचाने की क्या जरूरत है “नंदू के पिता झल्ला उठे।

   “तो चिढ़ते क्यों हो ,अब मेरा बेटा इतने वर्षों पश्चात बहू, पोते के साथ आया है तो मुंह सी लूं । मां का दिल —–मुझे कौन रोकेगा…!”

  घर बाहर गहमा-गहमी मच गई।

अब तक नंदू के पिता सम्भल चुके थे ,”वे आज यहां नहीं आये हैं।”

“यहां नहीं तो कहां आये…!”

“आये तो इसी शहर में हैं किन्तु घर नहीं होटल में ठहरे हुए हैं।”

नंदू के पिता का भावहीन स्वर वर्फ के समान ठंडा था।

   “क्या होटल में ठहरा है ;अपना घर , मां बाप के होते हुए….ना  बाबा ना तुम्हें जरूर गलतफहमी हुई है …?”देवकी का मातृहृदय इस कटु सत्य को स्वीकारने के लिए कत‌ई तैयार नहीं था।

    उसका प्यारा बेटा सपरिवार घर होते हुए भी होटल में ठहरे मां के आंचल से लगकर अपनी मनपसंद भोजन की फरमाइश नहीं करें … आखिर क्यों?

  देवकी बिन बछड़े की गाय की तरह तड़प उठी।

“नंदू के बापू हम कल ही बेटे से मिलने चलेंगे। एक शहर में इतनी दूरी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।”

सुबह के इंतजार में घरवाले तो सो गये , किन्तु देवकी की आंखों में नींद कहां ।  वह बावली बेटे-बहू को भर नजर देखने के लिए तड़प उठी। ईश्वर मालिक है, लम्बी रात कटे तो पोते का मुंह देखूं,किस पर गया होगा मेरा मुन्ना।

“अपने पिता नंदू पर सांवला,सलोना या अपनी मां की तरह मक्खन मलाई।कितनी रूपवती है मेरी बहू ।काश, उसका दिल भी सुन्दर रहता ।हो जायेगा दिल भी सुन्दर बेटे को जना है,अब मां का दर्द समझेगी।”

  स्वयं से ही सवाल जवाब करती देवकी कभी खाट पर जाती, कभी पुराना संदूक खोल पोते को देने के लिए कोई चीज तलाशने लगती….अब उसे कोई सपना तो आया नहीं था कि पोता आ रहा है ताकि कोई निशानी सुनार से गढ़वा कर रख लें।

 खाली हाथ पोते को पहली बार देखेगी ;बेटे का तो कुछ नहीं किन्तु बहू क्या सोच बैठे , पैसे वाले की बेटी है हमारी बेबसी क्या समझेगी.

गांठ में चार पैसे हों तो बाजार जाने की देरी है मनचाहा वस्तु हाथ में …. यहां तो एक‌ एक पैसे की तंगी रहती है.अब कमाऊ पूत आया है तो कुछ न कुछ मां की हथेली पर रखकर ही जायेगा उसी से कोई भारी चीज ले लूंगी . यहां घर-गृहस्थी जैसे चल रहा है चलेगा।बहू के सामने शर्मिन्दा तो नहीं होना पड़ेगा।

    देवकी झूठ-मूठ ही इस संदूक से उस ताखे तक टटोलती रही।अपना जेवर कुछ खास था नहीं ;जो भी था बेटियों के विवाह में निकल चुका था , वह मन-ही-मन निराश हो चली.लोहे के बक्से की तली में एक चांदी की लड़ी छिपा कर रखी थी.देवकी की सांस की निशानी … कम-से-कम सात तोले का होगा.

   घर गृहस्थी में कितने दुःख सुख आये अभावों का झंझावात आता-जाता रहा परन्तु देवकी ने इस लड़ी को हाथ नहीं लगाया था,सास की थी हुई पुश्तैनी निशानी.

   देवकी का दिल कांप गया.सास की निशानी.जरूरत ने तर्क दिया,”तो कौन-सा किसी दूसरे को देने जा रही हूं पहनेगा कुल दीपक ही न.”

देवकी ने आंचल गले में लपेट मन-ही-मन सासु मां को प्रणाम किया,इस चांदी की लड़ी ने जैसे देवकी को किसी संकट से उबार लिया, जैसे कुबेर का खजाना हाथ लगा हो.

    मुर्गे की बांग के साथ देवकी ‌ उठ बैठी.बेटियां ससुराल से आई थी भैया भाभी से मिलने के लिए बेचैन.अमीरजादी भाभी के निगाहों में सम्मान पाने के लिए कीमती वस्त्रों का चयन होने लगा.

 यह पहनूं या वह.लाल,पीली,हरी,नीली…. भाभी के सामने सब फीका … क्योंकि भाभी कुछ भी कहने में जरा भी नहीं हिचकती थी,”यह तुम लोगों ने क्या पहन रखा है ,इसे तो मेरी आया भी न पूछे.”

   ऐसे अनेक कटु स्मृतियां थी .फिर भी..…!




   नंदू के आई०पी०एस०बनते ही पांच बच्चों के निर्धन माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया.बेटियों के विवाह की फ़िक्र..

“नंदू की मां, निर्धनता बहुत बड़ा अभिशाप है, सुविधा के अभाव में बेटियों को ऊंची शिक्षा नहीं दिला सका ,गांठ में रोकड़ा नहीं इनका विवाह कैसे करूंगा.”

  देवकी ढांढस बंधाती ,”भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं; नंदू कुछ बन जायेगा हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे.पत्ते के ओट में प्राणी का सौभाग्य छिपा रहता है…सब्र करो नंदू के बापू.”

  ईश्वर ने उसकी सुध ली। बेटा आई०पी०एस०बन गया.रिश्तों का ढेर लग गया.तथाकथित नवधनाढ्यों में एक होड़ सी लगी रहती है भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित दामाद खरीदने की. इससे उनका स्टेटस सिंबल बढ़ता है, समाज में धाक जमती है, अभिजात्य पत्नियों को महिला मंडली में एक-दूसरे पर भारी पड़ने का हथियार हाथ आ जाता है , इसी मानसिकता के भेंट चढ़े नंदू के पिता.

   अभी भी छाती पर तीन-तीन कन्याओं का भार था.ईश्वर ने यह शुभ दिन दिखाया है तो क्यों

इस अवसर को हाथ से जाने दें “मन पछतायो अवसर बीते…!”

   क्यों नहीं वे भी मोटी रकम दहेज में ऐंठकर अपनी मुराद पूरी कर लें। पति पत्नी का लालच बढ़ने लगा ,नन्दू की बोली लगने लगी।

  नन्दू ने प्रतिवाद किया,”अम्मा शादी विवाह बराबर वालों में ही ठीक रहता है; पिता जी मुझपर भरोसा रखिए थोड़ा समय दीजिए, ईश्वर ने चाहा तो सारी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी कर दूंगा!”

 किन्तु माता पिता ने उसकी एक न सुनी। एक जगह बात पक्की हो गई,चार लाख नकद, जेवर, कपड़े और एक कीमती कार। कन्या के पिता लोहे के व्यापारी थे,आई०पी०एस०की ठाठ वे जानते थे ;वर खरीदने की कला उन्हें आती थी।

रिश्ता तय होते ही देवकी फूली नहीं समाई । नाते-रिश्तेदार उसके भाग्य पर रश्क करने लगे।

  “किस्मत हो तो नंदू के मां-बाप की तरह बहू आ रही है चार लाख नकद लेकर…!”

  “नन्दू की मां दहेज का सामान कहां रखोगी …!”पड़ोसिनें दो कमरे के मकान पर कटाक्ष करती।

  “पहले आने तो दो ….?”देवकी के पांव जमीन पर नहीं पड़ते।

“चार लक्खी है मेरी बहू चार लक्खी…!”

सचमुच उसी दिन से नन्दू की घरवाली का नाम चार लक्खी पड़ गया। चार लाख कीमत लगी थी नन्द  लाल कुमार आई०पी०एस० की  …!एक एक पैसे को तरसते नन्दू के पिता __चार लाख कैश की कीमत समझते थे। उन्होंने आनन-फानन में बड़ी मंझली को व्याह डाला।

अब कुएं का मेंढक कितना भी उछले समुद्र की गहराई का अंदाजा नहीं लगा सकता , कुछ ऐसी ही स्थिति नन्दू के मां-बाप की हो गई थी  ,  चार लाख में दुनिया को खरीदने का स्वप्न देखने लगे थे।

   पहला झटका तो उन्हें तब लगा जब उनके चढ़ावे की वस्तुओं को घटिया और हल्का बताकर बहू के माता-पिता ने नन्दू के विवाह के अवसर पर उनसे सीधे मुंह बात तक नहीं की।




“चार लाख नकद दिया था, मेरी इज्जत का तो ख्याल रखते रिश्तेदारों में हमें मुंह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा..!”

समधी नन्दू के पिता को यूं लताड़ रहे थे जैसे वे दामाद का पिता न होकर उनका कोई अदना सा सेवक हो।

  चाहकर भी नन्दू के पिता अपने समधी के आरोपों का खण्डन नहीं कर पाये ; ‘डूबते को तिनके का सहारा ‘ आत्मविश्वास लाने के लिए बेटे की ओर देखा। वह तीखी नजरों से उन्हें ही घूर रहा था।उसकी जलती आंखें मानों पूछ रही थी,”…. और लीजिए चार लाख दहेज , मैंने कहा था न पिताजी साल दो साल सब्र कीजिए ; बहनों का बहनों का विवाह भी हो जायेगा ,छोटे भाई की पढ़ाई भी पूरी होगी । अपने आर्थिक, सामाजिक हैसियत वालों के यहां ही रिश्ता करना सुखद , स्वाभाविक होता है, मेरे विवाह की इतनी जल्दी क्यों…?”

  परन्तु पिता जी कब मानने वाले थे ।आज पिता जी का दर्प समधी के धन-दौलत, सम्पन्नता के समक्ष 

  बौना पर गया।

  नन्दू यंत्रवत विवाह की रस्में निभाता चला गया,इच्छा , उमंग तिरोहित हो चुका था; पिता जी ने उसे पशुवत् बेंच ही तो दिया है .. चार लाख में।

  ‌ बहू ने गृह प्रवेश के दुसरे दिन से ही अपना उग्ररूप दिखाना प्रारंभ कर दिया,”मुझे नहीं रहना इन गंवारों के बीच इस  कबूतर खाने में…!”

नन्दू पत्नी के मुंह से ऐसी बातें सुन भौंचक रह गया।

“मेरे कीमती सामान की यह दुर्दशा…”

  “ऐसी बातें तुम्हें शोभा नहीं देती,अब यही तुम्हारा घर है .. यहीं रहना है..!”नन्दू ने नवविवाहिता को समझाने का प्रयास किया।

 “मेरे पापा ने पूरे चार लाख नकद दिया था इस दड़वे को रहने लायक बनाने के लिए जिसे तुम्हारे मां बाप हड़प गये ,ये मेरे कीमती सामान कहां रहेंगे इस झोपड़ी में छि:….”बिफर पड़ी नन्दू की दुल्हन।

नई दुल्हन को जरा भी लिहाज नहीं है घर में आये मेहमान क्या सोचेंगे।

 “तुम्हारे पिता जी को तुम्हारा विवाह मेरे साथ करना ही नहीं चाहिए था,अब मेरा घर तो यही है रहना तो यहीं पड़ेगा।”

नन्दू ने हंसकर नवपरिणीता को निरूतर करना चाहा।

“मेरे पापा ने पूरे चार लाख नकद दिया था इस दड़वे को रहने लायक बनाने के लिए जिसे तुम्हारे मां बाप ने हज़म कर गये हैं; मैं और मेरा कीमती सामान इस झोंपड़े में छि:……..!” बिफर पड़ी नन्दू की दुल्हन।गोरा मुखड़ा क्रोध से लाल हो गया।

“खबरदार , जो मेरे माता पिता को कुछ कहा , उनकी इज्जत करना तुम्हारा फर्ज है….!”नन्दू पत्नी का तेवर देख उत्तेजित हो उठा।

  “ओह तुम क्या समझते हो , चार लाख रुपए तुम्हारे मां-बाप यूं ही हड़प जायेंगे अभी तुम हमारे डैडी को नहीं जानते कितनी ऊंची पहुंच है, जेल की चक्की न पिसवा दी तो मेरा नाम नहीं…!’

  नई दुल्हन का प्रलाप जारी था। नन्दू का कोई तर्क काम नहीं आया।

शोर सुनकर पास पड़ोस जमा होने लगे। रिश्तेदार कानाफूसी करने लगे।

“तुम मेरी पत्नी हो यह घर तुम्हारा है…!”

  “पत्नी , मेरी तरफ पत्नी रखने की हैसियत है तुम्हारी..; इस मुगालते में न रहना कि आई०पी०एस०हूं…. ऐसे ऐसे आई०पी०एस०मेरी जूती के नोंक पर रहते हैं……! ड्राईवर गाड़ी निकालो … मैं इसी समय यहां से चली जाऊंगी …इन दो कौड़ी के लोगों के साथ मैं एक मिनट भी नहीं रह सकतीं।!”

बहू इस प्रकार घर छोड़कर चली जायेगी तो हमारी कितनी बदनामी होगी। नन्दू की मां ने दौड़कर बहू को बाहों में भर लिया”बहू ऐसा मत करो घर अभी छोटा है ईश्वर ने चाहा तो बड़ा भी बन जायेगा। बहू की मर्यादा समझने का प्रयास करो…!”

  “हट बुढ़िया, बहुत आई है मर्यादा समझाने वाली .. चार लाख रुपए के एक-एक पाई का हिसाब नहीं लिया तो कहना…!”

  

 

” बहू सास को धक्के मार गाड़ी में जा बैठी।क्रोध ने उसे अशिष्टता और उद्विग्नता की प्रतिमूर्ति बना दिया था। दहेज में मिली कार पर बहू उड़न छू हो गई,सब मुंह देखते रह गए।

दहेज में ऊंची रकम का लेन-देन , सामाजिक, आर्थिक विषमताओं की विद्रूपता का खुला खेल नन्दू के आंगन में हुआ था।

“और वो चार लाख…..!”

“चार लक्खी कैसा लताड़ गई..!”

     “नन्दू ऐसी मगरूर घरवाली से कैसे निभा पायेगा …;इसे छोड़ दुसरी ले आ…!”

“वह चार नहीं छ: लाख लायेगी…!”

  …. जितनी मुंह उतनी बातें। नन्दू और उसके माता-पिता कट कर रह गए…कर ही क्या सकते थे।

  वह दिन और आज का दिन …!

नन्दू के मां-बाप ने उसे अपनी कसम दिलाकर बहू को लाने के लिए भेजा। बहू पलटकर ससुराल नहीं आई … पति के साथ उसकी नौकरी पर चली गई।

  नन्दू … उसका पति कम …खरीदा हुआ गुलाम ज्यादा था।। मां-बाप का आज्ञाकारी होनहार पुत्र पुलिस अफसर नन्दू अपनी पत्नी के हाथों का खिलौना।उसकी पत्नी भूलकर भी सास-ससुर का नाम अपनी जुबान पर नहीं लाती । नन्दू चाहकर भी अपने परिवार की आर्थिक सहायता नहीं कर पाता था; क्योंकि उसके कमाई के पाई-पाई पर उसकी पत्नी की नजर रहती।अब तो पिता भी बन चुका था । महकमे का बड़ा अधिकारी था। इज्जत थी , शोहरत था ….; परन्तु मन में एक सुनापन छाया रहता था।

  कड़वी मीठी यादों की गलियों से गुजरते देवकी सपरिवार होटल आ पहुंची। होटल की भव्यता देखने लायक थी।

   बेटे-बहू के कमरे के बाहर देवकी के पांव ठिठक गए। उसने लाचार दृष्टि से पति की ओर देखा।

  पिता ने दरवाजे पर दस्तक दी।

“कम इन..” बहू थी …; कितना मीठा बोलती है।

  आगे-आगे नन्दू के पिता फिर मां और साथ में बहनें, छोटा भाई।

     “आप, आप लोग ..”इनके अप्रत्याशित आगमन से वह चौंक उठी।

  “नन्दू कहां है?

बहू ने इशारा किया बाथरूम की ओर।

  “कौन है डार्लिंग..”नन्दू ने भीतर से पूछा।

“आकर देख लो …;”अब तक वह सम्भल चुकी थी। भाव-भंगिमा कठोर हो चला था।

 नन्दू तौलिया लपेटे बाहर निकला। कृशकाय शरीर कुछ भर गया है। मां की आंखें जुड़ा ग‌ई। सोचकर आई थी बेटे को ऐसी खड़ी-खड़ी सुनाऊंगी कि बहू का तलवा चाटना भूल जायेगा।

किन्तु बेटे-बहू को देख सब भूल ग‌ई‌। नन्दू मां पिता जी को देख खिल उठा,”अम्मा, पिता जी अरे वाह तुमलोग भी आई हो …?”

  पर अगले ही पल पत्नी की कसी मुख मुद्रा देख सहम उठा। देवकी ने आगे बढ़कर बहू के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा,”मुन्ना कहां है!” 




बहू ने बेरूखी से हाथ झटक दिया ,”आया के पास है…!”

“हम तुम्हें लेने आये हैं घर चलो …”देवकी ने कहा।

   “घर…. पहले आपलोग अपनी हुलिया तो ठीक कीजिए… आज भी आप लोगों ने वही साड़ियां पहन रखी है जिसे मेरे डैडी ने दी थी।इतने वर्षों में एक ढंग का जोड़ा तो बनवा नहीं पाई … घर चलो…!”

बहू के मन में इतना जहर भरा हुआ है। सचमुच तीनों मां-बेटी ने बहू के मायके की साड़ी ही पहन रखी थी ,अपना प्रभाव जमाने की  लालसा में उन्हें ख्याल ही नहीं रहा कि इन कपड़ों को वह पहचान लेगी …ताने देगी..!

 ‌बहू की इस दो टूक टिप्पणी पर बेटियां सिटपिटा गई ;नन्दू के पिता बुत बने रहें ; देवकी को कुछ सूझ नहीं रहा था,छोटे भाई का खून खौल उठा। यह स्पष्ट था कि बहू किसी भी प्रकार से ससुराल वालों से जुड़ने के लिए तैयार नहीं थी।

  माहौल अप्रिय हो उठा। इसी बीच बैरा नाश्ता ले आया ।ब्रेड,उबले हुए अंडे और काली चाय।

“अम्मा चाय पी लो…!” नन्दू की गति सांप-छूछून्दर की हो गई।

  “पी …ली .. बेटा तेरी बहू ने पिला दी हमें चाय ; दुनिया जहान में बहुएं आती है किन्तु ऐसी अनोखी बहू हमारे ही नसीब में थी ……. कहना तो देवकी बहुत कुछ चाहती थी किन्तु शब्द गले में अटक गये …रूलाई फूट पड़ी…कलेजे में मरोड़ सा उठने लगा।

  इसी पानी सी चाय और सूखी डबल रोटी के लिए इतना कमाता है मेरा बेटा..…;इस विषकन्या के फन तले रहने को अभिशप्त है मेरा बेटा नन्दू।

  देवकी भारी हृदय से उठ खड़ी हुई अब यहां रखा ही क्या है।

  “हम यहां आपके घर में सड़ने नहीं आये हैं बल्कि अपने मित्र के निमंत्रण पर आये हैं … यहां भी पीछा करने से नहीं चूकते…!”बहू की विष भरी तीर निशाने पर लगी  

, बहू की विषैली हंसी दूर तक पीछा करती रही। नन्दू उनके पीछे दौड़ा।

“अम्मा, बाबूजी हमारी बात तो सुनो…!”

“सुनने के लिए बचा ही क्या , तुम्हारी घरवाली ने अच्छी खातिरदारी कर दी हमारी …”!पहली बार नन्दू के पिता ने मुंह खोला।

“अम्मा मेरी स्थिति समझो …. आप लोग थोड़ी देर बर्दाश्त नहीं कर पाये और मुझे देखिए … आज ही हमें लौटना है मुन्ना आया के सहारे पल रहा है;सर्पिणी भी अपने बच्चे को दूध पिलाती है मगर यह मगरूर औरत अपने बेटे को हाथ तक नहीं लगाती न औरों को छूने देती है।….मोटी रकम आया पर खर्च करती है भाड़े पर पाल रही है अपना बच्चा। मैं कुछ भी नहीं कर सकता ,नरक बन गई है मेरी जिंदगी ।अपना घर होते हुए भी होटल में ठहरना मजबूरी है । मां-बाप के होते हुए अपने बेटे के समान अनाथों के समान रहने को विवश हूं। बात-बात पर आत्महत्या की धमकी देती है। मैं अपने खातिर नहीं मुन्ने के कारण खामोश हूं।”

” तुम्हारे बहू के पिता चार लाख में खरीद लिया है मुझे… उनकी बेटी का गुलाम हूं मैं ; उसके इशारे पर उठने-बैठने के लिए विवश भी …!”नन्दू हंसा …विद्रूप हंसी…

जैसे पागलखाने में तड़पता कोई मनोरोगी।

  “मैं कुछ भी नहीं कर सका पहले अपनी सम्पूर्ण शक्ति पढ़ने, कैरियर बनाने में लगा दी ; आज किसी योग्य बन पाया हूं तो संघर्ष की ऊर्जा निचोड़ ली है इस बदमिजाज औरत ने .. समझाने बुझाने का कोई तरीका काम नहीं आया…!”

  “सुखी रहो बेटा ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें ,”रो पड़ी देवकी।सन्न रह गए पिता… बहनों की आंखें गीली हो गई; छोटा भाई समझ नहीं पा रहा था ..…वह किसे दोष दे –भाभी को या अपने माता-पिता के लालच को…!

“कुछ भी पैसा जोड़ नहीं पाता हूं जो भी कमाता हूं … तिनके के भांति खर्च कर देती है।”

    नन्दू क्षण भर के लिए रूका ;जेब से कुछ निकाला और जबरदस्ती के हाथ में पकड़ा दिया ,”तुम्हें मेरी सौगंध है अम्मा …ना मत करना तुम्हारा यह बेटा कितना तड़पता है तुमलोंगो के लिए यही जानता है … शायद समय ही  इस औरत का हृदय परिवर्तन करें… अगर जिन्दा रहा तो फिर मिलूंगा…!”

  नन्दू वापस होटल के भूल-भुलैया में खो गया, चांदी की लड़ी यूं ही धरी रह गई।

   देवकी ने मुट्ठी खोली , उसमें सौ-सौ के चार नोट उसका मुंह चिढ़ा रहे थे।

 दहेज की चाहत ने  नंदू के  माता पिता को कहीं का नहीं छोड़ा। 

  सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना-डॉ उर्मिला सिन्हा ©®

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