चाहत एक स्वेटर की – सुषमा यादव

एक साल बहुत अधिक ठंड पड़ रही थी,,उस पर पूस की हड्डी तोड़ कंपकंपाती ठंड,, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा कहावत सार्थक करती वर्षा की फुहारें,, स्कूल में पूरा स्टाफ अपने को ठंड से निजात पाने के लिए खूब पहन ओढ़ कर सिसियाते बैठा था ।।

 

मैं भी किसी तरह पानी से बचते बचाते कक्षा में गई। मेरे साथ साथ बच्चों के भी दांत खूब किटकिटा रहे थे,,सारे बच्चे अपने हैसियत के अनुसार गरम कपड़े पहने थे। पर एक छात्रा केवल यूनिफॉर्म पहने इस पूस की ठंड में अपने दांतों को भींच कर बैठी थी। वह भरसक कोशिश कर रही थी,कि उसकी कंपकंपाहट बाहर ना निकले।

मैंने हैरानी से उसे देखते हुए कहा,, अरे,,बेटा निशा,, इतनी भयंकर ठंड में तुमने एक भी स्वेटर वगैरह नहीं पहना, तुम्हें ठंड लग जायेगी,, तुम बीमार हो जाओगी। उसने खड़े होकर ज़बाब दिया, नहीं, मैडम जी, मुझे ठंड नहीं लगती है,,इतने में एक लड़की बोल उठी,मैम, इसके पास स्वेटर ही नहीं है,, ये बहुत गरीब है, मैंने देखा कि निशा की आंखों में आसूं आ गये थे, शायद सबके सामने अपमानित होने का दर्द छलक आया था,,

ये सुनते ही जैसे मेरे दिमाग को एक झटका सा लगा,,मन दूर कहीं सालों पहले अतीत के सागर में गोते लगाने लगा।

 

मैं अपने नाना जी के यहां पली बढ़ी थी।, नाना जी,

पैसे वाले थे,,। नाना जी मुझे बहुत मानते थे। वो रोज मुझे स्कूल जाते वक्त एक रुपए प्रतिदिन जेबखर्च के लिए देते थे, और शाम को मेरे लिए कैंटीन से बड़े  बड़े समोसे और बढ़िया चिवड़ा लाते।।। आज तलक उसका स्वाद मेरी जुबान पर है। हमेशा साटन




 के फ्रॉक पहनाते,, मैं भी इठलाती सबको स्कूल में खूब खिलाती  पिलाती ।।सब लड़कियां मेरे आगे पीछे घूमती थी।

बाद में मैं कक्षा आठ से अपने मां पिता के यहां पढ़ने आ गई,,। एक दिन स्कूल जाते समय मां ने मेरे हाथ में चौवन्नी रखा, मैं हैरान होकर बोली,,, ये क्या है।

 

मां ने कहा,, स्कूल में कुछ खा लेना,, मैं इतनी तो समझदार हो गई थी समझ में आ गया था कि इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है,,शाम को स्कूल से वापस आ कर मैंने वो पैसा मां के हाथ में रख दिया,, और फिर कभी दुबारा नहीं लिया।।

 

, मैंने देखा कि मेरे तीन भाई मां, पिता जी और मैं इतने लोगों की जिम्मेदारी एक अकेले पिता जी के कंधों पर थी,,। बाबू जी अपने बड़े भाई के बेटी और बेटे की भी देखभाल कर रहे थे।

 

 वैसे तो बाबू जी विटनरी डाक्टर थे,,पर ईमानदार और पक्के सिद्धांतवादी थे,, मैं भी घर की खस्ताहाल देख कर कोई मांग नहीं करती थी,, मुझे भी केवल दो यूनिफार्म मिले थे,, स्वेटर एक भी नहीं था। क्यों कि नागपुर में हमेशा गर्मी ही पड़ती थी, अतः मुझे स्वेटर की जरूरत ही नहीं पड़ी। इसी

 तरह पूस की भयंकर ठंड में मैं भी बिना स्वेटर प‌हने जाती, मुझसे जब लड़कियां और मैडम कहतीं ,, तुम स्वेटर क्यों नहीं पहन कर आती हो, मैं कहती,, मुझे स्वेटर रास नहीं आता, बहुत खुजली होती है। अपने घर की दास्तां बाहर नहीं बताना चाहिए,, मां ने सिखाया था। और मैं मुस्कुरा कर अपना दर्द और ठंड दोनों ही छुपा लेती,,




जब मैंने दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में पूरे जिले में उत्तीर्ण किया, गोल्ड मेडल जीता तब बाबू जी ने कहा, तुम्हें क्या चाहिए, बताओ,,,इनाम में,, तुमने मेरा नाम रोशन किया है,, मैं बहुत खुश हूं।।

वैसे तो मुझे एक छोटा सा रेडियो चाहिए था,पर  मैंने सकुचाते हुए कहा,, मुझे एक स्वेटर की चाहत है,, अम्मा जी, मुझे एक सस्ता सा स्वेटर ला दीजिए,,

बाबूजी ने मुझे स्वेटर के साथ रेडियो भी गिफ्ट किया था। वो स्वेटर पहन कर लगा,सारे जहां की खुशियां मुझे मिल गई,,,

 

मेरी चाहत पूरी हो गई थी।,उस स्वेटर को पहन कर बड़े ही गर्व के साथ मैं इठलाती हुई स्कूल गई थी, 

 

आज़ इस विषय को पढ़कर मुझे इतने सालों की अपनी वो ठंड याद आ गई,,,

आज़ तो भगवान की कृपा से सब कुछ मिला है,, मैं और बेटियां पता नहीं कितनों की पैसों से, कपड़ों से और हर तरह की मदद करने को हमेशा ही तैयार रहते हैं,, पर बीता कल हमें कभी नहीं भूलना चाहिए,, हमेशा ज़मीन से जुड़े रहना चाहिए,,

 

मैंने उस बच्ची को बहुत सारे गरम कपड़े और अन्य कपड़े दूसरे दिन सबसे छुपा कर दिया ताकि उसके स्वाभिमान को ठेस ना पहुंचे,, और मेरी नज़र अब सबको टटोलने लगी, किसने किसने स्वेटर वगैरह नहीं पहना है।।

 

उस बच्ची की भी चाहत थी एक अदद स्वेटर की,,

 

बरसात में छतरी, ठंड में गरम कपड़े, कंबल देना अब बस यही मकसद है हम सबका।। यदि भगवान ने हमें इस काबिल बनाया है तो सब जरूरतमंदों की दिल खोलकर मदद करना चाहिए।।

 

सुषमा यादव, प्रतापगढ़, उ, प्र,

स्वरचित मौलिक

 

#चाहत 

 

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