पचास वर्षीय स्निग्धा बरामदे में बैठ चाय पी रही थी कि अचानक दरवाज़े की घंटी बजी और दूर से जेठानी हेमल आती नज़र आई। दोनों मुस्कुराकर गले लगी।
हेमल, “तो कैसी चल रही है, शादी की तैयारी? स्निग्धा,”कैसी तैयारी चलेगी, आपसे कुछ छिपा है क्या?”
हेमल,” तुझे दुखी रहने का शौक है क्या? चल छोड़। अरे!!देख तेरी बड़बेरी में फिर से बेर लगने लगे हैं, वरना तो पिछले साल सूखने लगी थी बिलकुल।” स्निग्धा,”आप ही की मेहरबानी है, आपकी सलाह पर ही तो इस पर पनपती अमरलता हटा दी थी मैंने।” हेमल,”हां! तो देखो अब तेरे पसंदीदा बेर, पनपने लगे हैं। कितना कहा था,
सबने की बड़बेरी घर में शुभ नहीं होती पर तू न मानी, और चुनाव तेरा था तो इसे संभालना भी तुझे ही था और ये तेरा प्रेम व लगन ही है कि ये फिर से हरी भरी हो, फल देने लगी है।” स्निग्धा,”आपका साथ था तो मैं कर पाई। वरना कौन जेठानी अपनी देवरानी का इतना साथ देती है।” हेमल,”पगली
! मैं पहले एक औरत हूँ फ़िर तेरी सखी या जेठानी, जो तू माने ,और जहां तक बात पनपने की है बड़बेरी हो या इंसान अपनी जगह, तन व मन का भोजन सभी को चाहिए व गलती से जबरदस्ती कोई अमरबेल अगर आपके जीवन में आ जाए तो उसे काट फेंको अन्यथा वो सब हड़पकर आपका जीवन नष्ट कर देगी।”
स्निग्धा,”सही कह रही हैं, दीदी।वो रोशनी अमरबेल ही तो थी जो मीठी छुरी चलाकर मेरा हंसता खेलता घर बर्बाद कर गई। कैसे! अकेली है, ये सोचकर मैंने उसे और उसके बेटे को किरायेदार के रूप में पनाह दी और उसने मेरा ही पति अपने मोहपाश में बांध लिया। काश, मैने पहली ही बार में उस अमरबेल को जड़ से काट दिया होता! पर जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो औरों से क्या कहना।”
हेमल,” स्निग्धा, माफ कर दे अब रजत को भी,वो अपने कर्मों का फल भोग चुका है, कैसे कैंसर से तड़प तड़प कर काल का ग्रास बना है। और तूने भी तो कितनी सेवा की है उसकी, जब कंगाल कर बीमार हालत में रोशनी उसे तेरे दरवाज़े पर छोड़ गई थी। उसके लिए नहीं, अपने लिए ताकि तू सुकून से अपना नया जीवन शुरू कर पाए।”
स्निग्धा,”पर दीदी, जीवन के वो पच्चीस बरस का समय तो लौटकर नहीं आ सकता न। जब मैने किस तरह से अपने बच्चों को अकेले पाला, उस उम्र के अपने सारे शौक खत्म कर लिए। वैसे भी दोनों बच्चे बाहर चले गए। मैं तो जीवनभर के लिए अकेले ही रह गई न।”
हेमल,”तभी तो कह रही हूं कि खुशी खुशी दूसरी शादी कर। देख समय जी कितना प्यार करते हैं तुझसे, तेरा जीवन खुशियों से भर देंगे वो। तन का न सही पर मन का साथ हर उम्र में चाहिए। ऊपर से तू कितनी भाग्यशाली है
कि तेरे बच्चे इतने समझदार हैं कि वो ख़ुद चाहते हैं कि तू शादी कर ले ताकि वे भी अपने जीवन की डगर वहां अमेरिका में अपने हिसाब से चुन सकें। समय जैसा साथी किसको मिलता है आजकल, जिसने तीस बरस तेरा इंतेज़ार किया और तू उस पति को याद कर रही है जो तेरा होकर भी दूसरी औरत का हो गया।”
स्निग्धा,”आप और बच्चे क्यों नहीं समझ रहे हैं कि लोग क्या कहेंगे के बच्चों की शादी की उम्र में ख़ुद लाल जोड़ा पहन बैठी, जबकि पति को मरे साल भी नहीं हुआ है।”
हेमल,” ओह स्निग्धा! कहां था ये ज़माना जब तू अकेले परवरिश कर रही थी अपने बच्चों की? वैसे भी तुझे कौनसा यहां रहना है? समय जी का ट्रांसफर ड्यू है वो महीने डेढ़ महीने में दूसरे शहर चले जाएंगे। और डरना क्या है, भागकर थोड़ी जा रही है, शादी कर रही है। तेरी जगह रजत होता तो उसी समय कर लेता दूसरी शादी जब तुझे पराए आदमी के साथ देखता।”
तभी स्निग्धा के गेट की घंटी फिर से बजी, इस बार समय था दरवाज़े पर। हेमल,”आइए, समय जी, मैं चाय बनाती हूँ तीनों साथ बैठकर पीएंगे।”
आकर पास बैठते हुए,” नहीं हेमल, बैठो। मुझे पता था तुम यहीं होगी, तभी तुम दोनों से मिलने इस समय आया। स्निग्धा मुझे अभी भी शादी के लिए तैयार नहीं लग रही, कोई जबरदस्ती नहीं है, वैसे भी अब हम कोई बीस पच्चीस के नहीं की मन में उतावलापन हो। तुम चाहो तो सोचने का और समय के सकती हो।
पर मैं वादा करता हूं कि तुम्हारा पूरा ख्याल रखूंगा और बच्चों के प्रति हमारी जिम्मेदारी सदा साझी रहेगी और जहां भी रहूं तुम्हारे पसंद की ये कांटेदार पर मीठे बेरों की बड़बेरी पनपाता रहूंगा। अब बताओ क्या कहती हो, तैयार हो शादी के लिए?”
स्निग्धा (चश्मा ऊपर कर, सोचते हुए), “जी! समय जी।” समय,” तो बताओ रसोई कहां है, इसी खुशी में बिना चीनी की चाय आज मै पिलाता हूं, आखिर बुढ़ापे में मिल बांटकर ही करना है सब।”
और तीनों ठहाका मारकर हँसने लगे। हेमल देख रही थी चश्मे के कोनों से कनखियों से चाय बनाने जाते हुए समय को स्निग्धा को देखते हुए और मन से मुस्कुरा रही थी इस नए जमाने के ब्रह्म विवाह को जिसका आधार पिपासा नहीं बल्कि सामंजस्य और एक नई सोच का अनूठा मेल था।
लेखिका
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)
“#मीठी छुरी चलाना”