बेटीयांँ  होती है बड़ी प्यारी, है ना ! ( भाग -2) – बेला पुनि वाला

ये तो पता नहीं, मुझे जाना था कहा ? 

      मगर मैं चल पड़ी थी कहीं दूर,

      मंजिल का पता नहीं था, मगर कदम थे, 

       कि रुके ही नहीं।

       मन में लिए एक ही सवाल, आखिर मेरी गलती क्या थी ? और  क्या सच में आज तक मैंने अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं किया ? आखिर क्या मैं एक अच्छी मांँ भी बन ना सकी ? ऐसे कई सवाल मन में लिए चली जा रही थी मैं, बस अपनी ही धुन में। फ़िर चलते-चलते रस्ते में एक मंदिर आया, वही जाके मंदिर की सीढ़ियों पे बैठ गई । तभी  वहाँ  मेरी  एक पुरानी दोस्त मुझे मिल गई।

     मेरी  दोस्त ने मुझ से पूछा, कि ” क्या हुआ ?  तू इतनी परेशान सी क्यों  है ? तेरी आंँखें यू झुकी हुई सी क्यों है ? उसके बहुत पूछ ने पर मैंने अपने दोस्त को अपनी और अपनी बेटी की सारी बातें बताई । मेरी दोस्त खुद औरतों के लिए एनजीओ चलाती थी। वो मेरी सारी बातें समझ गई और उसने मुझ को भी अपने एनजीओ में रहने के लिए जगह देदी। वहाँ मैं रहने लगी और कुछ ही दिनों में मैं बाकी औरतों के साथ गुलमिल गई। 

      उधर बेटी ने मेरी लिखी हुई चिठ्ठी पढ़ी और अपने बचपन की सारी बातें उसे याद आने लगी। साथ में मांँ  को भी याद करके रोने लगी। शायद उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा था। 

      मुझे पहले डान्स का बहुत शौक था मगर अपनी ही ज़िंदगी में मैं इस तरह उल्झी हुई थी, कि मुझे अपने होने का भी होश नहीं था। सब को मेरा डान्स बहुत पसंद था। कुछ ही दिनों में मैंने अपनी एक अलग दुनिया बना दी थी। अपनी दोस्त की मदद से अब मैंने बड़ा डान्स क्लास खोल दिया और दूसरी भी लडकियांँ मेरे क्लास में मुझ से डान्स सिखने आने लगी। 




      और उस तरफ मेरी बेटी मुझे ढूंँढ रही थी। वो बहुत परेशान थी, अपनी मांँ को लेकर, कि मांँ कहांँ  होगी ? कैसी होगी ? किस हाल में होगी ? वो अपनी माँ के पास जाना चाहती थी। उससे माफ़ी माँगना चाहती थी, उससे बात करना चाहती थी। मगर माँ का तो कोई अता-पता ही नहीं था।

        फिर एक दिन बेटी की दोस्त उस डान्स क्लास में जा पहुंँची, जहांँ मैं सब को डान्स सिखाती थी। वो मुझे  पहचान गई और दौड़ती हुई अपनी सहेली के पास जा पहुँची और सब कुछ बता दिया जो उसने डान्स क्लास में देखा था। बेटी ने अपनी दोस्त को बहुत-बहुत धन्यवाद किया और वो भी दौड़ी हुई, अपनी दोस्त की मदद से डान्स क्लास पहुँच गई। वहाँ उसने अपनी मांँ को डान्स करते और सिखाते पहली बार देखा। बहुत ताजूब हुआ और खुशी भी। वो सबके सामने अपनी मांँ से गले लग गई  और रोते-रोते माफ़ी माँगने लगी। 

       माँ का दिल तो वैसे भी बहुत बड़ा होता है, अपनी बेटी को आराम से कुर्सी पे बिठाया, पानी पिलाया और फ़िर उसे समजाने लगी, कि ” बेटी मैंने तो तुझे कब का माफ़ कर दिया है, फिर तू क्यों इतनी परेशान होती है ? मैं ठीक हूंँ, मैं यहाँ खुश हूंँ। तू खुद अपनी आंँखों से देख मुझे, क्या मैं परेशान या दुखी लग रही हूंँ ? नहीं ना। बल्की मैं तो सोच रही हुँ, कि तूने जो किया अच्छा किया, तभी तो मेरा दिल टूटा और मेंने घर छोड़ा, फिर अपने आप को ढूँढा । अब आज मैं किसी और के लिए नहीं बल्की अपने लिए ज़िंदगी जी रही हूँ, जो आज तकमीन नहीं जी पाई। आज मैं किसी और के बारे में नहीं बल्की अपने बारे में सोच रही हूँ। “

     तब बेटी ने मुझ से कहा, ” तो फिर तू चल मेरे साथ, हम दोनों फिर से साथ में रहेंगे पहले की तरह,  मुझे तुझ से बहुत सी बात करनी है, मांँ । अब में कोई शैतानी नहीं करुँगी, तेरी हर बात मानूँगी, आज के बाद तू जैसा कहेगी, बस वैसा ही होगा, अब बस तू चल मेरे साथ, मुझे अब ओर कुछ नहीं सुनना है। “

    कहते हुए बेटी खडी होने लगी और मेरा हाथ खींचते हुए अपने साथ ले जाने लगी, तभी दो कदम चलते ही मैं  रुक गई और मैंने उस से कहा, कि ” अब ये मुझसे नहीं होगा बेटी। मैं अब तेरे साथ नहीं चल सकती, अब मैंने अपनी एक नई दुनिया बना ली है ओर क्या तू ये नहीं चाहती, कि मैं भी अपने लिए कुछ करूँ, अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जिऊँ ? अब मेरी जिंदगी बची ही कितनी है, तू नहीं चाहती कि मैं इसे अपनी मर्जी से जी लूँ ?




       बेटी पहले तो मेरी बात सुनकर हैरान रेह गई, फिर सोच कर बोली, कि ” माँ, तू हमारे घर में रहकर भी तो ये सब कर सकती है ना ! मैं तुम्हें नहीं रोकुँगी, आज के बाद तू जैसा बोलेगी वैसा ही होगा, पर तू चल मेरे साथ…”

     मगर इसबार मैंने अपनी बेटी की एक नहीं सुनी और उसे समझाने लगी, कि ” तू अगर चाहे तो कभी-कभी मुझ से मिलने यहांँ आ सकती है। मैंने कब मना किया मिलने से। मेरा आशीर्वाद सदा तेरे साथ रहेगा। तू मुझ से दूर कहा ! तुझ से तो मेरी सांँसे जुडी हुई थी और रहेगी। “

      जब मैंने अपनी बेटी की बात नहीं मानी, तब बेटी वहाँ से रोती हुई चली गई।

       घर जाके वो बहुत रोई और पूरी रात कुछ सोचती रही और दूसरे दिन सुबह फिर से मुझ से मिलने आई और उसने मुझ से कहा, कि ” मांँ  मुझे भी डान्स सिखा दे, जैसा तू सबको सिखाती है, क्या माँ मेरा इतना भी हक़ नहीं रहा क्या तुझ पे ? ” 

      बेटी की बात सुनकर मेरी आंँखें भर आई और मैंने अपनी बेटी को अपने गले लगा लिया और उसे डान्स सिखाने को मैं मान गई। 

      मेरी बेटी ने इसबार पुरा दिल लगा कर मेरे साथ डान्स किया और कुछ ही दिनों में वो भी बहुत अच्छा डान्स सिख गई। फिर कुछ ही महीनों के बाद हम दोनो माँ-बेटी साथ मिलकर सब को डान्स सिखाने लगे और दूर रहकर भी हम दोनों पास रहने लगे। 

       कभी-कभी रिश्तो में दूरियांँ भी ज़रुरी हो जाती है, कभी-कभी जो बात हम पास और साथ रहकर नहीं समझा सकते, वहीं बात हम दूर रहकर भी  समझा सकते हैं।




     कभी-कभी फासले दूरियांँ  बढ़ा देते हैं, तो कभी-कभी फासले  हमें दूर से और भी नजदिक ला भी सकते हैं।

    आज की पीढ़ी के बच्चे हम से रुढ़ बहुत जल्दी जाते हैं और रोज़ नए-नए तर्क और फ़रमाइश करते रेहते हैं, तो क्या हमको हक नहीं है उनसे कभी रुढ़ ने का ?

                            समाप्त 

स्व-रचित 

बेटियाँ भाग-२ 

बेला पुनिवाला

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