“बेटी अपनी तो बहू भी अपनी” – ऋतु अग्रवाल

 “सिमरन, ले ये पाँच हजार रुपए। तू अपने और बच्चों के कपड़ों के लिए रख ले और हाँ, जब मैं सबके सामने तुझे विदाई दूँगी तब इन रुपयों का जिक्र मत करना। उन रुपयों में यह पाँच हजार रुपए मिलाकर कुछ अच्छा सा ले लेना।” आशा जी ने सिमरन को अपने पास छिपाकर रखे रूपयों में से पाँच हजार रुपए देते हुए कहा।

          “माँ! यह बात ठीक नहीं है। भाई मुझे देने के लिए जो विदाई के रुपए और उपहार देगा, आप बस वही देना मुझे। अलग से मुझे कुछ नहीं चाहिए और वो भी भाई भाभी से छिपाकर। यह तो गलत है, माँ।”सिमरन माँ को समझाने लगी।

       “तू चुप कर! जो मैं कह रही हूँ वैसा ही कर। तेरे भाई भाभी देते ही क्या है तुझे? और वैसे भी मैं उनसे लेकर कुछ नहीं दे रही हूँ तुझे। यह तो तेरे पापा की पेंशन के रूपये हैं।” आशा जी जिद पर अड़ी थी।

      “पर माँ! ठीक है, यह पापा की पेंशन के पैसे हैं पर यह आप अपनी दवाइयों और निजी खर्च के लिए रखिए। इन पर आपका अधिकार है। इससे भाई पर भी खर्च का बोझ थोड़ा कम पड़ेगा।” सिमरन माँ को  समझाने पर तुली थी पर माँ किसी भी हालत में समझने को तैयार नहीं थी,”हाँ! हाँ! इन रुपयों पर मेरा अधिकार है तभी तो तुझे दे रही हूँ। तेरे पापा के रुपयों पर तेरा भी हक है, समझी।”

      “ठीक है, माँ! माना पापा और आपकी चीजों पर मेरा हक है पर फिर तो इन पर भाई का भी हक है। क्या आप पापा की पेंशन के रुपए भाई को भी देती हो?” सिमरन ने पूछा।

          “उसे क्यों दूँगी? वह तो कमाता है। बिटिया! तू कमाती नहीं है इसीलिए तुझे दे रही हूँ। तू तो हर खर्च के लिए दामाद जी और अपने सास ससुर पर निर्भर है। इन पैसों से अपने लिए कुछ मनपसंद खरीद लेना।” माँ ने समझाया।




       “ठीक है माँ! भाई को मत दो पर भाभी भी तो मेरी तरह नहीं कमाती है और जैसे मेरे सास-ससुर मुझे खर्च करने के लिए रुपए देते हैं वैसे ही आप भी भाभी को पैसे दे दिया करो। उनका भी तो कुछ मनपसंद खरीदने का मन होता होगा।” सिमरन ने हाथ में रुपये पकड़ने से इंकार करते हुए कहा।

        “हाँ, करता होगा पर मैं उसे रुपए क्यों दूँ? वह तो परायी है। पराए घर से आई है। तू मेरी बेटी है। उसकी और तेरी क्या बराबरी।” आशा जी का स्वर तिक्त हो गया।

        “बस, माँ! देखना एक दिन तुम्हारी यही सोच भाभी को सचमुच पराया कर देगी। माँ, हर बहू पराए घर से ही आती है और फिर वही सबसे ज्यादा अपनी हो जाती है।” सिमरन उठकर बाहर चली गई।

         कमरे के बाहर चाय की ट्रे लिए मधुरिमा की आँखें भर आई। वह तो इस घर और घर के सदस्यों को अपना मानती है पर मम्मी जी उसे पराया ही मानती हैं, यह सोचकर उसकी रुलाई फूट पड़ी।

        वक्त बीतता गया पर आशा जी को ना समझना था और ना वह समझीं। सिमरन हर बार आती, समझाती पर आशाजी यही कहतीं,” देख लेना सिमरन! जिस भाभी पर तुझे इतना यकीन है, वह एक दिन तुझे परायेपन का पाठ जरूर पढ़ायेगी। बहुएँ कभी सगी नहीं हो सकतीं।”

         “माँ! मधुरिमा! जल्दी बाहर आओ। एक बहुत बुरी खबर है। अनंत हड़बड़ाया सा घर में घुसा।

         “क्या हुआ अनु? तू ऐसे चिल्ला क्यों रहा है?” आशा जी घबरा उठी।

       “माँ! पीयूष जीजू के चचेरे भाइयों ने बिजनेस में उन्हें बहुत बड़ा धोखा दिया है। जीजू सिर से पाँव तक कर्ज में डूब गए हैं। एक सप्ताह बाद उनके घर की नीलामी है। बैंक वालों ने उनकी सभी गाड़ियों को जब्त कर लिया है। कारखाने पर ताला लग गया है। मुझे तो सबसे ज्यादा गुस्सा सिमरन पर आ रहा है, उसने हमें पराया कर दिया, कुछ नहीं बताया। वह तो मार्केट में खबर उड़ी, तब मुझे पता चला। मैं क्या करूँ?कुछ समझ नहीं आ रहा।” पीयूष  रो पड़ा।

        पीयूष की बातें सुनकर आशा जी की हिचकी बंध गई।




       “यह लीजिए।” मधुरिमा ने एक फाइल पीयूष की तरफ बढ़ायी।

         “यह क्या है?” पीयूष ने पूछा।

         “यह गाँव वाली एक बीघा जमीन के कागजात हैं। मधुरिमा ने फाइल पीयूष को देते हुए कहा,” आप इसे बेच दीजिए। वैसे भी पटवारी काका बता रहे थे कि इसके लिए खरीदार बहुत दिन से उन पर दबाव बना रहा है। पैसे भी सही मिल जाएँगे। इस समय हमें पैसों की आवश्यकता है। इन पैसों से सिमरन दीदी का घर बिकने से बचाया जा सकता है।”

         “यह जमीन तो दादू दादी ने तुम्हें मुंह दिखाई में दी थी। यह तुम्हारी है और फिर तुम कह भी तो रही थी कि हम यह पुश्तैनी जमीन कभी नहीं बेचेंगे। यह पुश्त दर पुस्तक हमारी रहेगी।” पीयूष अचंभे में था।

         “नहीं, बहू! हम तुम्हें मुँह दिखाई में मिली जमीन कैसे ले सकते हैं? वह तुम्हारी है।” आशा जी ने धीमे स्वर में कहा।

        “जी, मम्मी जी! वह जमीन मेरी है और मैं इस घर की। यह घर और घर के लोग मेरे अपने हैं और अपनों के साथ अपना पराया कुछ नहीं होता, सब साझा होता है और वैसे भी उस जमीन का कोई उपयोग नहीं है और इस समय सिमरन दीदी को पैसों और हमारी जरूरत ज्यादा है। जमीन, जेवर तो होते ही हैं आड़े वक्त में काम आने के लिए। पीयूष आप जल्दी से पटवारी काका से बात कर लीजिए और जमीन बेचकर दीदी का घर बिकने से बचाइए।” मधुरिमा ने हाथ जोड़ दिए।

         “मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची। मैं तुझे हमेशा पराया समझती रही। सिमरन ने मुझे हमेशा समझाया पर मैंने उसकी बात नहीं मानी। तू पराए घर से आकर भी हमें अपना समझती रही और मैं अपने बेटे से ब्याह कर भी तुझे अपना नहीं समझ सकी। आज तूने बता दिया की बहू परायी नहीं सबसे ज्यादा अपनी हो जाती है।” आशा जी ने मधुरिमा को गले लगा लिया।

           पीयूष दोनों के चारों तरफ “अपने तो अपने होते हैं” कहकर चक्कर लगाने लगा तो आशा जी और मधुरिमा रोते रोते भी हँस पड़ीं। 

 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल

मेरठ

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!