बंधुआ मजदूर  –  गोमती सिंह

दिसम्बर की कड़कड़ाती सर्दी का मौसम था अत: उस 10-12 वर्ष की मासूम सी राधिका के लिए असहनीय था , वो इसलिए कि वो एक बंधुआ मजदूर थी । तन पर  पहनने के उतरन के शिवाय उसके पास गरम कपड़े के नाम पर एक कर्कश सा कंबल था ।

         ।घर का सारा काम निपटा कर वह उसी कंबल को ओढकर थकीहारी राधिका सोने लगी तब कामगारों की प्यारी सखी नींद ने उसे तुरंत अपनी आग़ोश में ले लिया।

        वह टाट के कंबल उसे मखमल सा लगने लगा और ख्वाबों की दुनिया में घुसती चली गई। 

         उतने मासूम बच्चे के ख्वाबों में क्या होंगे? सखियों संग लुका- छिपी खेलना , नदी-पहाड खेलना इन्हीं सब  के आनंद में वह खोई हुई थी ।


           तभी उसे ख्वाबों में ही सुनाई दिया कि उसकी माँ जो बिहार राज्य में रहती थी ,गरीबी और अभाव के चलते बाल्को प्लांट में कार्यरत एक दंपत्ति के घर छोड़ दी थी ,यही सोच कर कि क्या हुआ जूठन साफ करेगी ,जो काम करवाएंगे  वो कर लेगी एवज में भूख मिटाने के लिए भोजन और पहनने के लिए उतरन तो दे ही देंगे। 

               मगर गरीब हों चाहे अमीर ममता तो पिटारा तो सभी के दिलों में बराबर ही रहता है  । राधिका की माँ सोच में पड़ गई थी कि 2-3 वर्ष हो गए राधिका का कु….छ पता नहीं चलता ,किस हाल में होगी मेरी बेटी। 

मालकिन तो विश्वास दिला कर ले गई है कि उसे खाने पहनने की पूरी ब्यवस्था देंगे।  मगर इन पैसे वालों का क्या ठिकाना , खाबाबनी की मजदूरन को क्या देते होंगे।

          इधर सोई हुई राधिका को माँ के पुकारने की आवाज़ सुनाई देने लगी –उठो बेटी कब तक सोती रहोगी ,उठो जागो देखो मैंने लिट्टी-चोखा बनाया है आओ खा लो बेटी । ख़्वाब में जो माँ की पुकार लग रही थी नींद खुलने पर हकीकत की धरातल पर उसकी मालकिन बड़ी-बड़ी आँखे लिए उसे दहाड़ते हुए बोली जा रही थी अरि ओ राधिका कब तक सोती रहोगी देखो शाम के 4 बज गए बर्तन पड़े मक्खी भिनभिना रही है जल्दी से साफ कर दो यहाँ  आराम फर्माने नहीं आई हो । उठो अपना काम करो ।


                खदर के बिछौने और टाट के कंबल में कितना आराम मिल जाएगा मगर गरीबों को कौन समझता है ।  उसके लिए इतना भी हराम था ।

            जी मालकिन अभी साफ किए देती हूँ।  राधिका ने हड़बड़ाते हुए कहा ।  मालकिन घर में अंदर की ओर चली गई।  रोज रोज के  इसी तानाशाही से उसका मन टूटने लगा था मगर क्या करती अशिक्षित थी गांव में खत लिख भेजने मे भी असमर्थ थी । सो इसी दिन चर्या में दिन बीत  रहे थे ।

वह अनमना ढंग से बाहर सड़क की ओर निकल आई सामने देखी उसकी परिचित उसी के जैसा मजदूर सड़क निर्माण कार्य में लगा हुआ था दोनों एक दूसरे को देखकर चहक उठे । अरे संतोष अभी तक काम से छुट्टी नहीं मिली ? नहीं राधा! अभी कहाँ!संतोष का दुख देखकर राधिका का भी दर्द उभर आया अपनी अपनी मजबूरी पर दोनों की आँखें भर आईं।  और हमेशा से तंग हो रही राधिका  के लिए संतोष ने

आँखों ही आँखों में योजना बनाई और कहा- चलो राधिका घर चलते हैं। 

कहाँ????मैं तो अपने घर का पता ठिकाना ही नहीं जानती । संतोष बड़ी आग्रह से कहा चलो न मेरे घर चलो,  राधिका समझ गई संतोष क्या कह रहा है वह थोड़ा शर्माने लगी नजरें झुका कर ऊंगलियां मडोरने लगी संतोष ने फिर कहा- सोंचो मत राधा , चलो मेरे साथ दोनों सुकून की जिंदगी बिताएंगे। 

फिर किसी को भनक नहीं लगी दोनों वहां से गायब हो गए।

संतोष अपनी झोपड़ी नुमा घर में लाकर बाहर से अपनी माँ को आवाज़ देने लगा -देखो माँ मैं क्या लेकर आया हूँ।  बाहर आकर माँ देखी बोली- कौन है ये बिटिया ।

गरीब हैसियत से छोटे होते हैं मगर दिल के अमीर होते हैं उस लड़की की कहाँनी सुनकर संतोष की माँ ने उसे अपने घर में पनाह दे दी और लोग ऊंगली उठाते इससे पहले उन दोनों की शादी कर दी ।


इस तरह बंधुआ मजदूर से मुक्त होकर राधिका बंध गई जिंदगी से ।

।।इति।

गोमती सिंह

छत्तीसगढ़

स्वरचित, मौलिक,  अप्रकाशित 

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