बहू की रोटी ! – रमेश चंद्र शर्मा

संध्या की निमिष से  शादी हुए पांछ महीने बीत गए। घर में बुज़ुर्ग सास निशा और ससुर उमेश। खाना बनाने में संध्या की बिल्कुल रुचि नहीं । नया सीखने की कभी कोशिश नहीं की । आराम तलब।

निशा (पति उमेश से) ” आजकल पेट में बहुत गड़बड़ रहने लगी है । संध्या की खाने बनाने में बिल्कुल रुचि नहीं है।”

उमेश (निशा से) ” पढ़ी लिखी बच्ची है। धीरे-धीरे सब सीख जाएगी । पेट में गड़बड़ तो मेरी भी होती है लेकिन मैं कहता नहीं।”

निशा “आप तो हमेशा बहू का ही पक्ष लेते हैं। एक्सीडेंट भी मेरा हाथ टूट गया, नहीं तो यह नौबत नहीं आने देती।”

उमेश “तुम्हारी पीड़ा समझता हूं। भगवान किसी को पराधीन नहीं रखें। किचन में बर्तन फेंकने की आवाज रोज सुनता हूं। तुम ही बताओ क्या करूं।”

निशा “बेटा दिन भर घर से बाहर ड्यूटी पर जाता है ।बेचारा आजकल परेशान रहता है। हमें उसकी भी परेशानी समझना चाहिए”।”

उमेश “संध्या गुस्सैल है ।अलग होना चाहती है। बेटा हमारे साथ ही रहना चाहता है।”

इसी उधेड़बुन में परिवार की गाड़ी किसी तरह चलती रही।  संध्या को सास ससुर बोझ लगने लगे। आए दिन विवाद खड़ा कर देती। अचानक संध्या के माता-पिता आ गए । बातचीत के बीच खाना तैयार हो गया। सभी डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने लगे।

संध्या के पिता (संध्या से) ” बेटी संध्या, आज चपातियां  कुछ कच्ची हैं। तुम्हारे हाथ की करारी फूली हुई चपातियां मुझे पसंद है।”

संध्या (पिता से ) ” आपके लिए आपकी मनपसंद चपाती उतार कर लाती हूँ।”

सास ससुर एक दसरे का मुंह देखने लगे।

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# रमेश चंद्र शर्मा

 16 कृष्णा नगर-  इंदौर

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