औलाद  – डाॅ संजु झा

कहते हैं कि सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आएँ,तो उसे भूला नहीं कहते हैं।कथानायक विजय की कहानी भी इसी का उदाहरण है।

विजय  अपने  बूढ़े पिता का हाथ थामे बड़े प्यार से वापस घर लौट आता है।पत्नी  रीमा गुस्से में प्रश्नवाचक नजरों से पति को घूरती है,परन्तु विजय के बदले हुए  तेवर देखकर तत्काल कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती है।विजय पिताजी को वापस  उनके कमरे में पहुँचा देता है तथा उनके सुव्यवस्थित ढ़ंग से रहने की जिम्मेदारी खुद अपने कंधों पर ले लेता है।

सारी व्यवस्था कर विजय अपने कमरे में कुर्सी पर बैठकर  सोचता है-“पिछले छः महीने से पिताजी हमारे साथ हैं,परन्तु मैंने कभी भी न तो उनकी भावनाओं की कद्र की और न ही कभी उनके पास  बैठकर उनके साथ सुख-दुख बाँटने की कोशिश की,परन्तु आज  घटित छोटी-सी घटना ने मेरी आँखों पर पड़े धूमिल पर्दे को हटा दिया।”

आखिर पत्नी रीमा का सब्र बेकाबू हो उठा।उसने कठोर लफ्जों में पूछा -” विजय!आप तो पिताजी को छोड़ने मुम्बई जा रहे थे,फिर उन्हें वापस लेकर क्यों आ गए?”

विजय ने भी उसी लहजे में जबाव देते हुए कहा -” देखो रीमा! आज मुझे समझ में आ गया है कि माता-पिता और औलाद का रिश्ता ऐसा होता है जिसकी डोर से व्यक्ति इतना बँधा होता है कि मन की दलदल में जब स्वार्थ हावी होने लगता है तो मृतप्राय खून के रिश्ते कभी-कभी अचानक  से पुनर्जीवित हो उठते हैं।”

रीमा -” विजय!आप दार्शनिक जैसी बातें छोड़िए। पहले ही करार हो चुका था कि पिताजी छः महीने बड़े भैया पास रहेंगे और छः महीने हमारे पास!”

विजय -“उस करार के समय मुझे कुछ समझ नहीं आया था,परन्तु आज समझ में आ  चुका है कि माता-पिता कोई करार की वस्तु नहीं हैं।चाहे उनकी कितनी ही औलादें क्यों न हों,जहाँ उन्हें आत्मिक खुशी और मान-सम्मान मिले,उन्हें वहीं रहना चाहिए। “




रीमा -” हम अकेले ही क्यों पिताजी की जिम्मेदारियाँ निभाएं?”

विजय -”  रीमा! पिताजी ने मुझे इस काबिल  बना दिया है कि मैं अकेले उनकी जिम्मेदारी निभा सकता हूँ।तुम्हें पिताजी की देखभाल में दिक्कत  है,तो उसकी व्यवस्था मैं खुद करुँगा।तुम्हें परेशान होने की जरुरत नहीं है!अपने बच्चों के साथ उनके चेहरे की खुशी और मुस्कान  देखना ही अब मेरे जीवन का उद्देश्य रह गया है।पिताजी तो बड़ी भाभी के रुखे व्यवहार के कारण जाना ही नहीं चाह रहे थे।हम ही जबरदस्ती उन्हें थोपने जा रहे थे।”

 रीमा पति के बदले तेवर देखकर  तत्काल वहाँ से हट गई। उसे समझ में आ गया था कि अभी पति से बहस से कोई फायदा नहीं है।

विजय जो  पिछले छः महीने से कभी पिता के कमरे में जाता नहीं था,आज सोने से पहले उनके कमरे में जाता है।उनके चेहरे पर सुकून और गहरी नींद देखकर उसके दिल को तसल्ली मिलती है।

 सोने से पहले विजय  अपने कमरे में आकर कुर्सी  पर कुछ देर आँखें बंदकर बैठ जाता है।विगत छः महीने की घटना उसकी आँखों के सामने घूमने लगतीं हैं।माँ के देहांत के बाद इस उम्र  में पिताजी के अकेले रहने की समस्या उठ खड़ी हुई। दोनों भाईयों ने विचार किया कि इस उम्र में पिताजी को अकेले छोड़ना ठीक  नहीं है।दोनों भाईयों का पिताजी को पास में रखने का फैसला सुनकर उसकी बड़ी भाभी ने तत्काल अपनी जिम्मेदारियों को टालते हुए कहा -“देखो देवर जी!अभी मेरे बच्चों की परीक्षा होनेवाली है।मुंबई  में मेरा घर भी छोटा है।तबतक पहले छः महीने तुम पिताजी को अपने पास रख लो।”




भैया भी भाभी की हाँ में हाँ नजर मिलाते नजर आएँ।हाँ!रीमा की भृकुटी जरुर तनी हुई नजर आई थी।

अपने बँटवारे की बात सुनकर पिताजी ने ऊपर से कुछ नहीं कहा,परन्तु उनकी अंतरात्मा जरुर लहूलुहान  हो उठी होगी,जिसकी किसी ने परवाह ही नहीं की।एक दिन पिताजी ने उसे दबी जुबान में उन्हें कहा भी था -” छोटे! वैसे भी मुझे शुरु से बड़ी बहू के कटू व्यवहार  पसन्द नहीं हैं।उसके बच्चे भी बड़े हो गए  हैं।तुम्हारे छोटे बच्चों संग खुशी-खुशी मेरी बची-खुची जिन्दगी कट जाएगी।”

उस समय विजय ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया।पिताजी उसके पास रहने आ गए। बच्चों के साथ उनका समय अच्छे से गुजर रहा था।हाँ!कभी-कभार बहू के व्यवहार में उन्हें पराएपन का एहसास  होता था,जिसे वे अनदेखा कर जाते।कभी भी उन्होंने कोई  शिकायत नहीं की।

 विजय भी अपने काम में व्यस्त  रहता।पिताजी के पास बैठकर कभी उनकी मनोभावनाओं  को समझने की उसने जरुरत ही नहीं महसूस की।

विजय ने आँखें खोलकर घड़ी पर नजर डाली।काफी रात बीत चुकी थी।वह बिस्तर  पर पत्नी के बगल में लेट गया।यादें कहाँ  जल्द पीछा छोड़तीं हैं? एक बार पुनः गुजरा वक्त आँखों के सामने गुजरने लगा।

वक्त  कहाँ ठहरता है?देखते-देखते छः महीना बीत गया।

पिछले कुछ दिनों से पत्नी रीमा हल्ला मचाएँ हुई  कहती -“विजय! पिताजी को यहाँ छः महीने पूरे हो गए। बड़े भैया से कहिए  कि पिताजी को आकर ले जाएँ।”




पत्नी की बातों में आकर विजय ने भी फोन करते हुए कहा -” बड़े भैया! यहाँ पिताजी को छः महीने पूरे हो गए हैं।आप आकर उन्हें ले जाएँ।”

बड़े भैया ने भी चालाकी से  बहाना बनाते हुए कहा -“छोटे! अभी ऑफिस के बहुत काम हैं।मुझे एक दिन की भी छुट्टी नहीं है।बाद में आकर पिताजी को ले जाऊँगा।”

पिताजी बेबसी से अपनी औलादों की बातें सुनकर रहें थे।उनके लिए बचे हुए  जीवन का काँँटा  उलझ-सा गया था।घड़ी बन्द नहीं थी,परन्तु उनका वक्त ठहर-सा गया था।उनकी मनोदशा की किसे परवाह थी!

पत्नी रीमा छः महीने पूरे होने के लिए  मन-ही-मन एक-एक दिन ऊँगलियों पर गिन रही थी।अब उसका एक महीने का इंतजार बढ़ गया था।हमेशा चिड़चिड़ी रहने लगी।जैसे ही एक महीना और पूरा हुआ तो उसने कहा -“विजय!भैया खुद पिताजी को लेने नहीं आनेवाले हैं।आप ही पिताजी को ट्रेन से मुंबई  पहुँचा आओ।ट्रेन से पिताजी को आराम रहेगा।”

उस समय तो उसने ध्यान नहीं दिया था  कि दिल्ली से ट्रेन से मुंबई  का सफर पिताजी के लिए आराम की अपेक्षाकृत कष्टप्रद ही अधिक होगा।हाँ!कम पैसे लगने की बात सोचकर  वह भी राजी हो गया था।

पत्नी की बात मानते हुए विजय ने ट्रेन की टिकट कटवा

 ली और नियत दिन पिताजी को लेकर रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गया।ट्रेन के आने पर पिताजी को लेकर  वह अपनी सीट पर बैठ गया।पिताजी की सूनी,उदास,निष्प्रभ आँखों की ओर उसने ध्यान नहीं दिया।वह तो बस पिताजी को भैया के पास पहुँचकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पाना चाह रहा था।वह अपने बैग से साथ लाए मैगजीन को पढ़ने लगा।उसी समय सामने सीट पर एक व्यक्ति अपने बूढ़े पिता को लेकर बैठ गया।ट्रेन खुलने में अभी काफी वक्त था,परन्तु वह यात्री बार-बार अपने पिता से उनकी तबीयत के बारे में पूछ रहा था।बीच-बीच  मेंअपने  लेटे हुए पिता के पैर भी दबा रहा था तथा बड़े मान-मनुहार से उन्हें दवा भी खिला रहा था।मैगजीन की आड़ से विजय सबकुछ देख रहा था।उसे आवाज कुछ जानी-पहचानी-सी लगी।उसने मैगजीन को बगल में रख दिया।उसके चेहरा को देखते ही सामनेवाले यात्री ने आश्चर्य से कहा -“अरे सर!आप कहाँ जा रहें हैं?




विजय ने उस आदमी को पहचानते हुए कहा -” तुम विनय!काफी दिनों के बाद  तुमसे भेंट हुई है।पिताजी को बड़े भैया के पास छोड़ने मुम्बई जा रहा हूँ।तुम कहाँ से आ रहे हो?तुम्हारे पिताजी बीमार हैं?”

विनय-“सर!पिताजी बीमार नहीं हैं।माँ के गुजर जाने से दुखी हैं।गाँँव से सेवा के लिए अपने पास ले जा रहा हूँ। इस उम्र में इन्हें अकेला छोड़ना  ठीक नहीं है।”

विजय -”  विनय!तुम्हारे तो और भाई हैं,उनके पास  भी रह सकते हैं!”

विनय-“सर!माता-पिता की सेवा में कैसा बँटवारा?जिनके पास उन्हें सुकून मिले,उन्हें वहीं रहना चाहिए। “

विजय-” विनय!पिताजी को साथ रखने पर तुम्हारी पत्नी नाराज न होगी?” 

विनय -” सर!इनकी औलाद  तो मैं हूँ,पत्नी नहीं।अपने पिता के प्रति अपना धर्म और कर्त्तव्य मैं खुद करूँगा।”

विनय की बातें सुनकर  विजय सोचता है कि विनय ने  मेरे मातहत क्लर्क की नौकरी की ।मैं हमेशा उसे छोटी सोच का आदमी समझकर उसकी बातों को तरजीह नहीं देता था।आज उसने एक आज्ञाकारी औलाद के रूप में मेरे घमंड को क्षण भर में चूर-चूर कर दिया।मैं अपने पिता को उनकी इच्छा के विरुद्ध बड़े भैया के पास छोड़ने जा रहा था।एक औलाद के रुप में विनय की सोच काफी स्पष्ट, सुलझी हुई  और सशक्त है और मैं एक पढ़ा-लिखा नायलायक औलाद!




कुछ ही देर में विजय को  मन-ही-मन ग्लानि अनुभव होने लगी।उसके जेहन में अनायास ही बचपन  से लेकर अबतक अपने पिता द्वारा दोनों भाईयों के लालन-पालन के साथ पढ़ाई के खर्चें के लिए संघर्ष  करने की कहानी का हर दृश्य सिनेमा की रील की भाँति दौड़ता चला गया।पश्चातापस्वरुप वह पिता को लेकर अगले स्टेशन पर उतर गया।पिता को उसने गले से लगा लिया।पिता औलाद के स्पर्श की गर्माहट  से भींग रहे थे और नींद  में वो खुशी विजय के चेहरे की मुस्कराहट बयां कर रही थी।

समाप्त। 

लेखिका -डाॅ संजु झा(स्वरचित)

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