अपनों का दर्द – संगीता त्रिपाठी

 उनकी आँखों में अथाह दर्द था, आखिर जीवनसंगिनी खो कर जीना आसान नहीं था, वो भी तब जब बच्चे भी विदेश में सेटल हो चुके हो। उमड़ते आँसूओ को रोकने का हुनर सिर्फ स्त्री को ही नहीं आता, बल्कि पुरुष को भी आता है। इस जमघट में कोई नहीं था जो उनके दर्द और आँसू को समझ पाता, सभी कह रहे थे “चलो अच्छा हुआ, उनको कष्ट से छुटकारा मिला, कब तक आप सेवा करते, फिर भी कई साल सेवा कर ली “।

    “सेवा “कमलेश जी ने सोचा, किसने किसकी की ये ईश्वर जानता है,पिछले चालीस साल से उनके घर को उनकी सीमित आय में वो कैसे संवारती रही, नहीं मालूम, इसे किसी ने नहीं देखा, पर इन सात साल की सेवा सबने देखी….,रमा बीमार जरूर थी पिछले सात साल से, उसकी शारीरिक सेवा वे जरूर कर रहे थे, पर उनके मानसिक जीवन को सहारा वही दें रही थी, इतने कष्ट होते हुये भी रमा के चेहरे पर शिकन न थी, उसकी हँसी, उसकी मजबूती ही उनको कभी अकेलेपन के दर्द से अवगत नहीं कराया।इसी अवलंबन से वो सारे कष्ट भूले हुये थे।

          दो दिन तक बेटे का इंतजार करने के बाद, आखिर आज कमलेश ने अपनी रमा का अंतिम संस्कार कर दिया, अच्छा है उसका भ्रम बना रहा, तीन बेटे है, कोई न कोई जरूर आयेगा। कहीं वो देखती तीन बेटों वाली माँ के लिये किसी बेटे के पास समय नहीं था। तो उसे कितना दुख होता, उसको गर्व भी था कि वो तीन बेटों की माँ है.., कहीं वो ये जान जाती कि तीनों बेटे क्या गुल खिला रहे तो शायद वो इतने दिन भी जीवित नहीं रहती…,तीनों इस लिये नहीं आये, ये तेरह दिन का कर्मकांड कौन करेगा। छोटे ने बड़े पर और बड़े ने अपनी बीमारी बता मझले पर ये जिम्मेदारी डालनी चाही,।अंतः तीनों तेरहवी पर साथ चलने को राजी हुये।

           तेरहवीं तक तीनों बेटे अपने देश आ गये, माँ की याद में कृत्रिम आँसू बहाते उन बेटों को देख कर कमलेश जी का मन विरक्त हो। तीनों में होड़ लगी थी तेरहवीं पर कौन ज्यादा खर्च करेगा, दुनिया को दिखाना भी था,, रमा के बेटे कितने लायक है।




        दान के सामानों की लिस्ट बनने लगी, बहुयें भी इसमें बढ़ -चढ़ कर साथ दें रही थी,यथा समय अच्छी तरह तेरहवीं पर दान और भोज हो गया। दान और भोज की भव्यता ने, माँ की सेवा न कर पाने के आक्षेप को भी दरकिनार कर दिया… पैसों में बहुत ताकत होती है, तभी तो रमा के बेटों ने लायक बेटे का तमगा खरीदने में सफल हो गये….। तीनों बेटे बाल मुड़वाये दरवाजे पर खड़े, जाने वालों के सामने खड़े थे…., “विदेश में रहते है, पर कर्मकांड में कोई कमी नहीं की, यहाँ तक की नंगे बदन धोती पहने तीनों खड़े है,और हाँ विनम्रता तो देखो… सच रमा जी कितनी भाग्यवान है स्त्रियों ने सोचा तो पुरुषों ने कमलेश जी को भाग्यवान समझा। किसी ने कमलेश जी के दिल का दर्द नहीं समझा, जो यथार्थ देख कर उनको हुआ।

            सब कुछ ठीक -ठाक हो गया, अगले दिन कमलेश जी से बड़े बेटे ने पूछा “पिता जी अब आपका क्या प्लान है,हम अब लौटने वाले है,आप बारी -बारी से हमलोगो के साथ रहेंगे या किसी वृद्धाश्रम में रहना चाहेंगे., इस घर को बेच कर हम तीनों अपना हिस्सा ले लेंगे .।”

              “बारी -बारी से…,”कमलेशजी बुदबूदाये..,एक माँ -बाप, चाहे जैसी आर्थिक स्थिति हो, दस बच्चे पाल लेते है, पर दस बच्चे मिल कर एक माँ -बाप को नहीं पाल पाते, किसी ने सत्य कहा।

       “तुम सभी जाओ, मेरी जिम्मेदारी से मै तुम सबको मुक्त कर चुका हूँ, मै इसी घर में, अपने जैसे लोगों के साथ रहूँगा, मेरे बाद भी ये “आसरा “वृद्ध लोगों के लिये रहेगा, मैंने ये घर वृद्धाश्रम को और अपना शरीर मेडिकल कॉलेज को दान दें दिया..,जिससे तुम लोगों को सोचना न पड़े कौन जाये…,मुझे तुम लोगों की कोई जरूरत नहीं है।”कह कमलेश जी ने बेटों की तरह से मुँह फेर लिया..। ईश्वर से प्रार्थना की “इनलोगो को मेरे जैसा दर्द जरूर मिले, ताकि इन्हे भी सबक मिले।

    जो माँ -बाप कल तक बच्चों की दुनिया हुआ करते, बड़े होते ही अपनी गृहस्थी बनते ही क्यों माँ -बाप को भूल जाते, क्यों उनके अकेलेपन, उनके बिगड़ते स्वास्थ्य, उनके महत्वहीन हो जाने के दर्द को समझ या देख नहीं पाते…। क्यों वे भूल जाते ये चक्र है, आज माता -पिता है तो कल उनकी जगह वे भी होंगे….।

   #दर्द 

                      –संगीता त्रिपाठी

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