शाम की धीमी रोशनी कमरे में फैल रही थी, और खिड़की से आती हवा में भी जैसे कोई थकावट घुली हुई थी। जानकी चुपचाप चारपाई पर लेटी थी, आँखें बंद थीं पर नींद कोसों दूर। सिर दर्द से फटा जा रहा था, लेकिन उससे भी ज्यादा उसका मन टूट चुका था। दस साल से इस घर में थी—एक पत्नी, एक बहू, एक माँ, एक भाभी एक नौकरानी… पर एक इंसान? शायद नहीं।
उसका विवाह मात्र अठारह की उम्र में हो गया था। सज-धज कर आई थी इस घर में, आँखों में छोटे-छोटे सपने लेकर—कभी पति के साथ फ़िल्म देखना, कभी सास के साथ रसोई में हँसी बाँटना, कभी ससुर के साथ गर्म चाय की चुस्कियाँ। लेकिन समय बीतता गया और जानकी के सपनों की जगह कामों की लंबी फेहरिस्त ने ले ली। पहले 2 ननद,देवर सोम उनकी शादी हो गयी। देवर हास्टल चले गये दो बच्चे हुए, जिम्मेदारियाँ बढ़ीं, और जानकी खुद ही कहीं पीछे छूटती चली गई।
सुबह सास-ससुर जी की चाय से दिन शुरू होता और देर रात बच्चों की परवरिश ,सासू माँ के पैरों में तेल मालिश के बाद ही खत्म होता । अभी आंख लगी ही होती कि पतिदेव दोस्तों के साथ नगर भ्रमण करने को गये लौट कर आते, आदमी हैं सब माफ औरतों का क्या?
सोने को चाहे12 बज जायें पर सुबह 5 से घड़ी की सुई 5 मिनट आगे जाने में ,चीख-पुकार शुरू हो जाती। । न किसी ने कभी पूछा कि जानकी, तुम ठीक हो ? न कभी ये पूछा कि तुम्हें क्या पसंद है, कौन सा रंग अच्छा लगता है, कौन सी मिठाई दिल को भाती है। और त्योहार? वे तो जैसे जानकी के लिए श्रम पर्व बन जाते। जब सब नए कपड़े पहन हँसते, जानकी रसोई में जलते-भुनभुनाते हुए हाथों से मिठाइयाँ बनाती रहती।
आज का दिन कुछ अलग नहीं था—बस दर्द जरा ज़्यादा था पर मन चटक रहा था। कल रात बच्चों की किताबें कवर करते-करते देर हो गई थी और सुबह पाँच बजे से फिर वही दिनचर्या। सिर दर्द से परेशान होकर उसने बच्चों को सूखा नाश्ता देकर स्कूल भेजा और पहली बार खुद को थोड़ी राहत देने के लिए बिस्तर पर लेट गई। पर राहत कहाँ इतनी आसान थी? कुछ ही देर में सासू माँ की आवाज़ आई—”बहू! चाय बनाई क्या?”शाम के 5बज गये।
जानकी ने उठने की कोशिश की, लेकिन शरीर ने साथ नहीं दिया। वह वहीं लेटी रही। तभी पति ने कमरे में झाँका, गुस्से से बोले आज नाश्ता भी नहीं मिलेगा क्या?, “तुम हर समय लेटी क्यों रहती हो? क्या हुआ है तुम्हें?”
और बस… यही वे पल था, जब भीतर से फूटा हुआ दर्द शब्दों में बदल गया।
“क्यों? क्या मैं मशीन हूँ जो बिना थके, बिना रुके, बिना कुछ महसूस किए, बस काम करती रहूं? मशीन के पुर्जों को भी आयली रेस्ट की जरूरत होती है वरना मोटर गरम होकर जल जाती है।आपको बहू नहीं, चलता-फिरता रोबोट चाहिए।”
पलभर को सन्नाटा छा गया। उसके स्वर में कोई चीख नहीं थी, कोई नाटकीयता नहीं थी—बस था तो एक थके हुए दिल का सच्चा दर्द। उसकी आँखों में आँसुओं का सैलाब लेकिन वे कमज़ोरी के नहीं थे… वे उसकी आत्मा की चीख थे। मेरे पास भी संवेदी मन है जिसे अपनत्व चाहिए।
“दस साल हो गए इस घर में,” वह धीमे स्वर में बोली, “कभी किसी ने नहीं पूछा कि मैं कैसा महसूस करती हूँ। कभी किसी ने नहीं कहा कि जानकी, थोड़ा बैठ जा, आज हम करते हैं काम। मैं बीमार हूँ तो भी सब मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं खाना बनाऊँ, कपड़े धोऊँ, बच्चों को देखूँ।”
सास आकर खड़ी हो गईं, उनकी आँखों ने कुछ कहना चाहा, लेकिन शब्द नहीं निकले।
जानकी उठकर बैठ गई, “मैं आपकी बहू हूँ, बेटी न सही, पर एक इंसान तो हूँ। मेरा भी मन होता है कि कोई मुझसे पूछे कि क्या चाहिए। मुझे भी दर्द होता है, थकान होती है, सपने होते हैं… लेकिन इस घर में सबकी जरूरतें हैं, बस मेरी नहीं।”
शाम की पुकार थोड़ी धीमी पड़ गई थी। पहली बार उस घर की दीवारों ने एक बहू की आवाज़ सुनी थी जानकी को शायद आराम आज भी नहीं मिल सका था , पर उसने एक कदम उठाया था—खुद के अस्तित्व को पहचानने का, और घरवालों को यह एहसास दिलाने का कि एक बहू भी इंसान होती है, रोबोट नहीं।हमें खुद अपनी आवाज उठानी पड़ती है।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी ‘अनाम अपराजिता’
अहमदाबाद