अनमोल रिश्ता – संगीता श्रीवास्तव

कांति का घर मौली के घर के पास ही था। उसका भी अपना खुशहाल ‌परिवार था। अपने 2 साल के बेटे और पति के साथ रहती थी। उसका पति ठेले पर खाने पीने का सामान बेचता था। दशहरे के मेले में अपना ठेला लगाया हुआ था। कांति भी बेटे के साथ गई थी।अचानक मेले में बिजली के खंभे से तार गिरने के कारण भगदड़ मच गई और तीनों एक दूसरे से बिछड़ गए। उस भगदड़ में बहुत लोगों की जानें चली गईं। कांति ने बहुत खोजा,पर उसके पति और बेटे का कहीं अता-पता ना चला। विवश हो कर अंततः, उसने अपनी भी जान  गवां देने की ठान ली।

  ‌ वो तो मौली ने उसे बचा लिया, जब वह ओवर ब्रिज से कूद आत्महत्या करने की कोशिश कर रही थी।”क्यों जान दे रही हो अपनी? क्या नाम है तुम्हारा?”मौली ने उसे झकझोरते हुए कहा।”मेमसाब, क्यों बचा लिया मुझे, मर जाने देतीं। किसके लिए जिंदा रहूं।”रो-रो कर उसने सारी वृतांत कह सुनाया ।

   ‌ उसकी दास्तान सुन मौली भी  द्रवित हो गई थी। उसने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा,”नहीं, मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगी।”

   मौली उसे गाड़ी में बैठा अपने घर ले आई। कांति को देखते ही 2 साल के यश ने अनायास उसे ‘माई’कह संबोधित किया। कांति “माई”कहने पर गदगद हो गई। मौली ने कांति को अपने बच्चे की देखभाल के लिए रख लिया।

   ‌ प्रतिदिन वो सुबह 8:00 बजे आ जाती और रात में 9:00 बजे घर चली जाती।




यश उसके जीने का सहारा बन गया। दिन भर बच्चे के साथ लगी रहती। कांति  का समय कैसे बीत जाता , पता ही नहीं चलता। दिन भर यश के  साथ खेलती, दुलारती -पुचकारती उसकी सानिध्य में अपना सारा गम भूल जाती। जब रात को जाने लगती तो यश उससे लिपट ना जाने की ज़िद करता, परंतु मां की डांट से चुप हो जाता। कांति अपनी भावनाओं को व्यक्त नही कर पाती क्योंकि वह ‘आया ‘जो थी! वह भी जब घर आती तो सुबह होने का बेसब्री से इंतजार करती कि कब यश के पास पहुंच जाए। यश भी सुबह से रट लगाए रहता-“मामा माई कब आएगी? क्यूं नहीं आ रही”और जैसे ही कांति के पदचापों को सुनता दौड़ कर, उछलकर उसकी गोद में समा जाता। कांति, भावविभोर हो उसे अपनी गोद में जोर से भींच लेती।

‌ मौली और उसके पति मित्तल यह देख कर खुश होते। वे निश्चिंत थे कि उनकी अनुपस्थिति में यश कांति के साथ अच्छे से रह रहा है। वे कांति को भी बहुत मानते थे। कांति थी ही वैसी! रूप से और स्वभाव से भी। कांति की “कांति”परिवार के हादसे से खत्म हो चुकी थी लेकिन यश के स्पर्श ने उसे फिर से “कांतिमय”बना दिया था।

   ‌ उस दिन सुबह से ही यश का बदन थोड़ा गर्म लग रहा था। मौली यश को दवा दे कांति के हवाले कर, हर दिन की तरह मित्तल के साथ ऑफिस निकल गई। मौली बीच-बीच में कांति से बच्चे की खबर लेती रही थी। जब बुखार बढ़ने लगा तो मौली के आदेशानुसार उसके माथे पर पानी की पट्टियां देती रही। दोपहर तक बुखार थोड़ा कम हुआ तो वह खेलने लगा….। शाम में बुखार पुनः बढ़ने लगा।

कांति ने घबराकर मौली को फोन किया-“मेमसाब, आप जल्दी आ जाओ, यश का बुखार बढ़ता जा रहा है। मौली अपने ऑफिस के कामों को जल्दी निपटा घर पहुंची। बुखार में तप रहा था यश। उसकी तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ती जा रही थी। वह मित्तल को हॉस्पिटल पहुंचने को कह , स्वयं यश को ले हॉस्पिटल पहुंची। नियमानुसार मौली के आने पर कांति अपने घर चली गई। हालांकि उसका मन यश की तबीयत को लेकर बेचैन था।




                                डॉक्टर ने यश को एडमिट कर लिया था। मस्तिष्क ज्वर हो गया था। बुखार से वह बेहोश-सा था।

बीच-बीच में ‘माई-माई’ कह कर बड़बड़ा भी रहा था। सुबह 4:00 बजे के आसपास उसकी हालत कुछ बेहतर हुई तो जोर जोर से रोने लगा और कहे जा रहा था-“मुझे माई के पास जाना है, मुझे माई के पास जाना है……।”लाख मनाने पर भी वह चुप नहीं हो रहा था। अंततः मौली ने कांति को फोन लगाया-फोन उठाते हैं कांति ने रूआंसे होकर पूछा-“यश कैसा है।”मौली की आवाज भी भर्रा गई। “तुम आ जाओ कांति।”। कांति घबरा गई।” क्या हुआ  मेमसाब, यश ठीक तो है?”

“हां,बस तुम आ जाओ……।”

कांति भागी दौड़ी हॉस्पिटल पहुंची। कांति को देखते ही, यश बेड से कूद कांति से लिपट गया। कांति उसे दुलारती जा रही थी और आंसुओं से खुद को भिंगोये‌ जा रही थी…..।

  उस दृश्य को देख मौली और मित्तल भी अपने आंसुओं को रोक ना पाए……..।

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ।

स्वरचित ,अप्रकाशित

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