“चटाक”, एक झन्नाटेदार तमाचे की आवाज़ आई और रूपेश अपना गाल सहलाता हुआ धम्म से पलंग पर बैठ गया।
“दर्द हुआ, ऐसे ही दर्द होता है मुझे..जब तुम अपना हाथ मुझ पर उठाते हो”, मालती गुस्से से चिल्ला उठी थी।
“अभी निकल जा मेरे घर से…अभी के अभी..तेरे जैसी औरत को मैं एक पल भी अपने घर में देख नहीं सकता”, तमतमाते हुए रूपेश ने भी चिल्ला कर कहा।
“हां..हां..चली जाती हूं”।
“हां, देखता हूं कहां जाएगी..अकेली कहां रहेगी..सारी अकड़ 2 दिन में खत्म हो जाएगी तब यहीं आना”।
“नहीं, अब कभी नहीं आती..कभी नहीं”, कहकर मालती दूसरे कमरे में पैर पटकती हुई चली गई और एक अटैची में अपने कपड़े भरने लगी।तभी 4 वर्षीय बेटी ने आकर उसका हाथ थामा।बेटी को पुचकारकर उसने गोद में लिया और वहीं बैठ गई।बैठे-बैठे अतीत की खिड़की खुली और उसके विचार चलने लगे।साथ ही साथ मन में रूपेश की आवाज़ गूंज रही थी.. अकेली कहां जाएगी।
अकेली ही तो थी वह..शुरू से ही नितांत अकेली.. जन्म देने वाले माता-पिता तो एक एक्सीडेंट का शिकार हो उसे तभी छोड़ गए थे जब वह मुश्किल से छः बरस की थी।ननिहाल में कोई नहीं था..मां अकेली संतान थी और नाना नानी भी दुनिया से विदा हो चुके थे।हां..पिता का परिवार था जिसमें चाचा-चाची और एक बुआ थी।माता-पिता के जाने के बाद चाचा -चाची ने बेमन से उसकी ज़िम्मेदारी उठाई थी।छोटी सी उम्र में ही वह भरी पूरी दुनिया में बिल्कुल अकेली रह गई थी।
चाचा का एक ही बेटा था जो उससे दो बरस छोटा था और चाची को अब उसके लिए एक मुफ्त की छोटी सी आया मिल गई थी।बाहर वालों के सामने चाची उसके लिए बहुत करुणा भाव दिखाती और उसे प्यार करती पर अकेले में वह उनके लिए उनके टुकड़ों पर पलने वाली एक ज़िम्मेदारी थी जो उन पर थोप दी गई थी।
चाचा को अपने बेटे को प्यार करते देख उसे अपने माता-पिता की बहुत याद आती..जब वे उसे गोद में लेकर दुलार करते और लाड़ लड़ाते थे। हसरतों भरी निगाहों से कभी वह चाचा चाची की तरफ देखती तो चाची झट से डपट देती,” यह क्या टुकुर-टुकुर देख रही है.. चल जा अपना काम कर..कहीं नज़र ना लगा देना मेरे बच्चे को”।वह छोटी सी उम्र में समझ नहीं पाती कि अपने छोटे भाई को उसकी नज़र कैसे लग सकती है।
खाने पीने के मामले में भी उससे भेद भाव ही होता। कभी भी चाची ने उसे गोद में बिठाकर प्यार से खाना नहीं खिलाया।बुआ आती जाती और सब समझती लेकिन शायद भाई को कुछ कहने से डरती थी.. सोचती होगी कि कहीं यह ज़िम्मेदारी उसके गले ना पड़ जाए..इसीलिए शायद चुप्पी लगाए रखती।
खैर,समय के साथ वह बड़ी होती गई।हां..चाचा ने एक बात अच्छी की थी कि उसे पढ़ा लिखा दिया था। हालांकि हाई स्कूल के बाद चाची ने हाय तौबा करके उसकी पढ़ाई छुड़वा दी थी।हैरत की बात थी कि जिस घर का वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक सारा काम करती वहां उसे उनकी रोटी के टुकड़ों पर पलने वाली एक अनाथ और बेसहारा लड़की के अलावा कुछ नहीं समझा जाता और मौके बेमौके पर उसे यह जता दिया जाता कि उसकी इस घर में क्या हैसियत है। चाचा का बेटा भी माता-पिता की तरह ही उससे व्यवहार करता।सम्मान की रोटी क्या होती है शायद इन बरसों में वह भूल चुकी थी।
हां इतना ज़रूर हुआ था कि इतने वर्षों में ज़िंदगी के थपेड़े खा कर वह अब थोड़ी मज़बूत हो चुकी थी।अब पहले की तरह वह बात बात पर अकेली बैठकर अपने आंसू नहीं बहाती थी।चाची अब उसके ब्याह के लिए चाचा पर ज़ोर डाल रही थी।शायद.. जल्दी से जल्दी अपने गले पड़ी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती थी।
चाचा से कहकर उसने पार्लर का कोर्स सीख लिया था चाची ने उसमें भी थोड़ी चिढ़ चिढ़ की कोशिश की थी पर शायद चाचा के हृदय के किसी कोने में उसके लिए कोई भावना रह गई थी इसीलिए उन्होंने चुप कर उसे वह कोर्स करने की हामी भर दी थी। चाची भी मुफ्त में अपने सारे पार्लर के काम उससे करवा लेती थी।
खैर, एक दिन चाचा चाची ने उसका ब्याह रूपेश से तय कर दिया।रूपेश एक कारखाने में काम करता था और अनाथ था।चाचा-चाची को वह इसीलिए सही लगा था कि उसने कोई मांग नहीं रखी थी और बिना परिवार के होने से ससुराल वालों को देने वाले तोहफों की नौबत नहीं रह गई थी।
मालती अब अपने नए जीवन के सपने देखती और सोचती कि अब वह अपने घर में सम्मान के साथ जीवन जीएगी और सम्मान की रोटी खाएगी पर उसका यह सपना अधूरा ही था क्योंकि रूपेश उसे बात-बात में जताता रहता कि उसके चाचा-चाची ने अपनी ज़िम्मेदारी उसके सिर मढ़ दी है और जब कभी वह शराब पीकर आता तो हाथ उठाने से भी बाज़ नहीं आता।
देखते देखते 5 साल बीत गए थे।मालती अपनी बेटी में ध्यान बंटाने की कोशिश करती।जिस पार्लर से उसने कोर्स किया था उसी में उसने काम भी करना शुरू कर दिया था पर रूपेश उस पर भी तंज कसने से बाज़ नहीं आता था कहता,” मुझे पता है तुझे बस घर से बाहर निकलने का बहाना चाहिए।जाने किस-किस के साथ बाहर मिलने जाती है”। मालती के विद्रोह करने पर वह उसे खूब पीटता।मालती को लगता कि वह इस भरी पूरी दुनिया में बिल्कुल अकेली है।चाचा-चाची , बुआ, पति सारे रिश्ते होने के बावजूद भी वह अकेली है। अपना घर, एक छोटी सी नौकरी होने के बाद भी उसे सम्मान की रोटी खाना नसीब में नहीं है।
आज भी ऐसे ही किसी छोटी बात को लेकर लड़ाई हुई और रूपेश ने उस पर हाथ उठा दिया पर आज मालती ने न जाने कैसे पलट कर उस पर हाथ उठाया और अब घर छोड़ने का फैसला कर लिया।दरवाजा बंद करने की आवाज़ से मालती की तंद्रा भंग हुई।शायद.. रूपेश गुस्से से बाहर जा चुका था।मालती ने अपना अटैची उठाया और अपनी बेटी को अपने साथ ले एक सहेली के घर चली गई।सहेली और उसकी पति की मदद से उसने पार्लर के पास ही एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया।
शुरू शुरू में तो काफी मुश्किलें आई पर मालती अब ठान चुकी थी कि उसे अकेली रहकर ही सारा काम करना है। रुपेश ने चाचा-चाची को भी उसे बुलाने के लिए भेजा और खुद भी एक दो बार फोन किया पर अब मालती पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहती थी।अब उसे सम्मान से रहना था..अब उसे सम्मान की रोटी खानी थी ।
धीरे-धीरे मालती ने घरों में जाकर भी पार्लर का काम करना शुरू कर दिया था।क्लाइंट्स को उसका काम बहुत पसंद आता और इस तरह उसके क्लाइंट्स भी बढ़ने लगे।अच्छी आय होने पर जीवन स्तर भी थोड़ा सुधर गया था।रूपेश को छोड़े हुए लगभग 2 साल हो चुके थे।उस अकेली ने ही जीवन की गाड़ी को खींचकर पटरी पर ला दिया था।अब वह अपनी बेटी के साथ खुश थी।अब वह जी रही थी…खुश रह रही थी और मन में एक संकल्प ले चुकी थी कि उसकी बेटी कभी अकेली नहीं रहेगी और उसे उसके हक की सम्मान की रोटी वह अवश्य खिलाएगी।
#स्वरचित
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।