कमरे की दीवार पर टँगी तस्वीर हल्की रोशनी में चमक रही थी। अमरेश जी का चेहरा स्थिर था, लेकिन उनकी आँखें जैसे अब भी कुछ कह रही थीं—कुछ, जो अभी पूरा नहीं हो सका था। उनके ठीक सामने सुधा बैठी थी, उदास चेहरा और गीली आँखों वाली सुधा। उसी कमरे की दूसरी दीवार पर टंगा पुराना हारमोनियम
अब भी वहीं था, बस धूल की एक हल्की परत ने उसे ढक लिया था। सुधा ने उंगलियों से उसे धीरे-धीरे साफ किया। जब भी उसकी उंगलियाँ इस हारमोनियम की चाबियों को छूतीं, उसे वही पुरानी आवाज़ सुनाई देती— “सुधा, संगीत सिर्फ सुरों का खेल नहीं, आत्मा की पुकार है… तुम सीख सकती हो।”
सच कहें तो संगीत से उसका रिश्ता तब से था जब वह ब्याह कर आई थी। रमेशजी खुद तो बहुत अच्छे गायक थे, पर घर-गृहस्थी में उलझकर कभी इस हुनर को मंच नहीं दे पाए। हाँ, उन्होंने हमेशा चाहा कि सुधा भी गाए। अमरेश जी ने हमेशा उसमें कुछ खास देखा था।
“तुम्हारी आवाज़ में जादू है, सुधा। तुम्हें सीखना चाहिए।” वे कहते।
“अरे, रहने दीजिए, अब इस उम्र में कहाँ सीखना…” वह हँसकर टाल देती।
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लेकिन अमरेश जी को यकीन था कि उसकी आवाज़ को दुनिया तक पहुँचना चाहिए। अमरेश जी सुधा की आँखों में कुछ और ही पढ़ते थे।
एक दिन वे सुधा को शहर के एक पुराने संगीत विद्यालय ले गए। वहाँ के गुरु ने उसकी आवाज़ सुनी और मुस्कुराकर कहा, “सीखोगी?”
उस दिन पहली बार सुधा को महसूस हुआ कि वह सिर्फ़ किसी की पत्नी, माँ या गृहिणी नहीं है। उसके अंदर कुछ था, जिसे उसने खुद भी कभी नहीं पहचाना था—एक स्वर, एक आत्मा, जो आजाद होना चाहती थी।
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आज, इस संगीत कक्ष में स्वर गूँज रहे थे, लेकिन सुधा की आत्मा कहीं अतीत के गलियारों में भटक रही थी…
शादी के बाद सुधा का जीवन किसी भी आम गृहिणी जैसा ही था—सुबह उठना, घर सँवारना, बच्चों के लिए दौड़-भाग, रिश्तेदारों की उम्मीदें… और इन सबके बीच खुद को कहीं बहुत पीछे छोड़ देना।
सुधा ने सीखना शुरू किया। धीरे-धीरे संगीत उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बनने लगा। दिनभर के काम के बाद जब वह हारमोनियम पर बैठती, तो उसका मन जैसे कहीं और चला जाता और अमरेश जी उसके सामने बैठकर आँखें मूँद लेते, मानो कोई दिव्य संगीत सुन रहे हों।
अमरेश जी उसे सुनते, उसकी हौसला-अफ़ज़ाई करते।
“एक दिन लोग तुम्हें स्टेज पर गाते हुए सुनेंगे, सुधा।”
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वह हँस देती, लेकिन उनके शब्द उसकी आत्मा में कहीं गहरे उतर जाते।
लेकिन… जिंदगी को शायद यह मंजूर नहीं था।
और फिर वो शाम आई।
परीक्षा से चार दिन पहले…
अमरेश जी ऑफिस से लौटते ही अचानक गिर पड़े। अस्पताल ले जाने तक बहुत देर हो चुकी थी। जब उनका निष्प्राण शरीर घर पहुँचा, तो सुधा के जीवन के सारे स्वर जैसे मौन हो गए। सुधा की दुनिया अंधेरे में डूब गई। रियाज़ थम गया। आवाज़ भीगी रहने लगी।
जब भी वह हारमोनियम देखती, तो अमरेश जी की हँसी कानों में गूँज गई—”तुम्हें गाते देखना मेरा सपना है, सुधा।”
लेकिन अब… वह सपना अधूरा-सा रह गया था।
कमरे में रखा हारमोनियम, जिसे वे खुद साफ़ करते थे, अब धूल से ढक गया। उनकी हँसी, उनकी बातें, उनका सपना—सब जैसे किसी पुराने गीत की तरह थम गया।
सुधा का जीवन अब एक लयहीन धुन बन चुका था।दिन बीतते गए। सुधा ने संगीत छोड़ दिया। लेकिन उसके बेटे-बहू ने हार नहीं मानी। “माँ, पापा चाहते थे कि आप गाना सीखें, आप अब भी जारी रख सकती हैं।” वह चुप रही।
“माँ, पापा का सपना अधूरा नहीं रहना चाहिए,” बेटे ने जोर देकर कहा।
सुधा ने आँखें उठाकर उसकी तरफ देखा।
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“पर अब किसके लिए?”
“उनके लिए, माँ,” बहू ने प्यार से कहा।
उस रात सुधा बहुत देर तक सो नहीं सकी। वह तस्वीर के सामने बैठी रही।
“तुम गाओगी और लोग खड़े होकर तालियाँ बजाएँगे…”
अमरेश जी की आवाज़ उसके कानों में गूँजी।
उसने धीरे से हारमोनियम खोला। काँपते हाथों से पहली की को हल्के से दबाया।
एक धीमा, टूटा-फूटा सुर कमरे में फैल गया… और उसी पल उसे महसूस हुआ, जैसे कोई अदृश्य हाथ उसके कंधे पर रखा हो।
अमरेश जी अब भी उसके साथ थे।
धीरे-धीरे उसने फिर से सीखना शुरू किया। संगीत की परीक्षा पास करने के बाद गुरुजी ने कहा, “आपमें लगन है, पर आपको और आगे बढ़ना होगा। स्नातक कीजिए संगीत में, इससे आपको पहचान मिलेगी।” यह सुनते ही सुधा ठिठक गई। संगीत में स्नातक? लेकिन इसके लिए बारहवीं पास होना ज़रूरी था और उसने तो सिर्फ दसवीं तक पढ़ाई की थी। उस एक पल को उसे लगा कि शायद यह सपना अधूरा ही रह जाएगा।
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सुधा मुस्कुरा दी, “मैं तो सिर्फ़ दसवीं पास हूँ!”
“तो क्या हुआ? आप पढ़िए, माँ,” बेटे ने कहा।
सुधा के लिए किताबें उठाना उतना ही मुश्किल था, जितना फिर से जीने की कोशिश करना। लेकिन फिर उसने खुद से कहा—”अगर इस उम्र में गाना सीख सकती हूँ, तो पढ़ाई क्यों नहीं?” बेटे-बहू ने भी पूरा साथ दिया और सुधा ने हिम्मत करके बारहवीं में प्रवेश ले लिया। अब वह रुकना नहीं चाहती थी।
रातों को जागकर प्रश्न-उत्तर याद करती, सवाल हल करती, हिंदी के निबंध लिखती। उसकी उँगलियों में अब किताबों की स्याही लगने लगी थी और आँखों में फिर से एक सपना जाग उठा था।
सुबह की चाय से लेकर रात की थकान तक, हर वक्त किताबें और रियाज़ उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गए। उम्र बढ़ने के साथ याद करने की क्षमता कम हो गई थी, लेकिन उसने हार नहीं मानी। कई बार रात में आँखों से आँसू बहते, लेकिन तभी अमरेशजी की आवाज़ कानों में गूंजती—”असंभव कुछ नहीं होता, सुधा।” और वह फिर से किताब खोल लेती।
समय बीता, परीक्षा हुई और जब रिजल्ट आया तो सुधा ने अपनी उम्र को पीछे छोड़ते हुए बारहवीं की परीक्षा पास कर ली। यह सिर्फ एक अंकपत्र नहीं था, यह उस सपने का पहला कदम था, जिसे कभी अमरेशजी ने देखा था।
इसके बाद सुधा ने संगीत में स्नातक के लिए आवेदन किया। अब वह संगीत की दुनिया में पूरी तरह डूब चुकी थी। उसकी उंगलियाँ जब हारमोनियम की चाबियों को छूतीं, तो ऐसा लगता मानो उसके पति की आत्मा हर सुर में बसी हो। तीन वर्षों की कड़ी मेहनत, तपस्या, संघर्ष के बाद, जब उसे संगीत स्नातक की उपाधि मिली, तो उसकी आँखें छलक पड़ीं।
आज वह उसी कमरे में खड़ी थी, जहाँ एक दिन उसका सपना अधूरा रह गया था।
सुधा दरवाजे पर खड़ी थी। दीवार पर अमरेशजी की तस्वीर टंगी थी, चेहरे पर वही हल्की मुस्कान, वही आत्मीयता। उसने धीरे-धीरे कमरे में कदम रखा। आँसू उसके गालों पर बह रहे थे, लेकिन अब उनमें दर्द नहीं था, बल्कि संतोष की रेखा थी।
कमरे की दीवार पर लगी नई नेमप्लेट चमक रही थी—”अमरेश संगीत केंद्र”।
उसने गहरी साँस ली और हारमोनियम के सामने बैठ गई। पहली बार उसके सामने खाली कुर्सी नहीं थी।
सामने अमरेश जी की तस्वीर थी।
“जग से निराली प्रीत हमारी, साजन तुम बिन अधूरी प्यारी…”
स्वर उसके गले से निकले और हवा में घुल गए।
आज अमरेशजी नहीं थे, लेकिन उनकी उपस्थिति हर सुर में थी, हर स्पंदन में थी। सुधा ने हारमोनियम पर उंगलियाँ रखीं और पहला सुर छेड़ा। स्वर गूँज उठा—एक नई शुरुआत का, एक अधूरे सपने के पूरा होने का।
गाते-गाते उसकी आँखें छलछला आईं। आँसुओं की गर्म बूँदें गालों पर ढुलक पड़ीं।
लेकिन इन आँसुओं में अब दर्द नहीं था…उसके आँसू मोती बनकर झिलमिला रहे थे। और उस क्षण उसे महसूस हुआ, जैसे अमरेश जी वहीं खड़े हों… मुस्कुराते हुए… गर्व से, साथ ही कह रहे हों — “मैंने कहा था न, तुम सीख सकती हो।”
आरती झा आद्या
दिल्ली
#आँसू बन गए मोती