मम्मी! बार बार फोन करके मुझे परेशान मत किया करें! सुनीता जी का बेटा सुयश लंदन से फोन करके कह रहा था”आप आधा घर किराए पर दे दें आपकी सिक्युरिटी भी रहेगी और महीने के पैसे भी आते रहेंगे! और सर्वेंट क्वार्टर में एक फैमली वाले को रख लो जिससे आपको डामेस्टिक हैल्प भी हो जाएगी मैं बार बार भाग कर कहां आता फिरूंगा मुझे और भी बहुत काम हैं?और उसने खट् से फोन बंद कर दिया।
सुनीता जी हैलो हैलो कहती रह गई। आंखों में आंसू भरकर वे खिड़की के पास आकर बरसों पुरानी यादों की पोटली खोलकर बैठ गई! रह रहकर उन्हें वे दिन याद आने लगे जब वे नई नई दुल्हन बनकर सुरेश जी के नौकरी में मिले छोटे से फ्लैट में आई थीं।
नई शादी नया घर सबकुछ नया,बड़े चाव से घर सजाने में ब्याह के खुमार में किसी दूसरे की जगह ही कहाँ थी।दोनों अपनी छोटी सी दुनिया में खुश थे।
सुनीता की मां शीला जी अमीर बाप की इकलौती बेटी धमंडी और खुदगर्ज लेडी थीं जिनके लिए पैसा ही सबकुछ था रिश्ते नाते उनके लिए मायने नहीं रखते थे दिखावा उनकी रग-रग में समाया था। आए दिन सुनीता और सुरेश जी की ज़िंदगी में दखल दिये बिना उनका खाना हजम नहीं होता था।
सुनीता के पिता का देहांत होने पर शीला और सुनीता के कहने पर सुरेश जी अपना काम छोड़कर उन्हीं के बिजनेस में लग घर दामाद बन गए। उनकी हालत धोबी के कुत्ते सी हो गई जो ना घर का ना घाट का रहा।
शीला हर वक्त सुरेश जी को उनकी हैसियत का ताना देकर उन्हें छोटे होने का ऐहसास कराने से नहीं चूकतीं!
सुरेश जी के परिवार में बस एक बड़े भाई और विधवा मां थी!
कभी-कभार अगर वो लोग कभी सुरेश को मिलने आ जाते तो शीला अपने व्यंगों के ऐसे बाण चलातीं कि उन्हें अगले दिन ही वहाँ से जाना पड़ता!
सुनीता भी यहाँ आकर अपनी मां के रंग में रंगने लगी थी अगर कभी सुरेश उनसे मिलने जाना चाहते तो सुनीता कलह करती।
सुरेश जी का तो अपना अस्तित्व और आत्मसम्मान जैसे खत्म ही हो गया था जैसे।
वे गुमसुम मशीन की तरह हो कर रह गए।
बेइज्जती सहने की बजाए उन्होनें अपनी मां और भाई से मिलना ही छोड़ दिया।
सुनीता का बेटा सुयश पैदा हुआ तो सुरेश जी की मां पोता देखने का लोभ संवरण ना कर पाई! बच्चे के कपड़े-खिलौने लेकर वे चली आईं
शीला ने उस सामान को लेकर भी खूब ताने दिये और उनके सामने ही सारा सामान काम वाली को पकड़ा दिया!
मां भारी मन से लौट गई।
सुयश बड़ा होता गया पर शीला और सुनीता ने उसे नानी और ननिहाल का ही पाठ पढ़ाया!
दादी-बुआ-ताऊ-चाचा ददिहाल क्या होता है सबसे दूर रखा।
ऐसे माहौल में सुयश बचपन से ही इकलखोरा हो गया उसकी आँखों पर भी पैसों की पट्टी बंध गई! रिश्ते क्या होते हैं उसे बताया ही नहीं गया।
उसकी दादी और बाकी लोगों की बुराइयां शीला ने कूट-कूट कर उसके बाल मन में भर दीं।
उसकी हर जायज-नाजायज मांग को पूरा कर शीला ने उसे स्पाॅईल चाईल्ड बना दिया।
अपने आगे सुयश किसी को कुछ नहीं समझता था।उसके बिगडैल रवैये की वजह से कोई उसका दोस्त नहीं बना।
सुरेश जी कभी सुयश को समझाने की कोशिश करते तो सुयश उल्टा उन्हीं से जबानदराजी करने लगता!उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि पापा हर चीज को मना कर देते हैं नानी हर चीज दिला देती है!पापा कंजूस हैं कहकर शीला सुयश को सुरेश जी के खिलाफ भड़काने से नहीं चूकतीं।
सुनीता कभी समझाने की कोशिश करती तो शीला उसे भी चुप करा देती कि तुमने दुनिया नहीं देखी!
शीला सबकी जिंदगी पर ऐसी हावी थी क्योंकि वह घर सारा बिजनेस उसी का था। नौकरी छोड़कर सुरेश जी ने तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ही ली थी! सुनीता को भी अपने इकलौते होकर सारी जायदाद पाने का लालच तो था ही साथ ही मां के घर में ऐशो-आराम की ज़िंदगी जीने की ललक भी।
सुयश को बड़ा सा डोनेशन देकर लंदन पढ़ने भेज दिया गया।
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा! सुरेश जी को अंदर ही अंदर घुटने की वजह से हार्ट अटैक हुआ और वो चल बसे!
और फिर एक दिन शीला जी भी बड़ा सा महल जैसा घर और बिजनेस छोड़कर दुनिया से चली गईं।
अकेला घर सुनीता को काटने को दौड़ता!कोई रिश्तेदार,सगा सम्बंधी था ही नहीं किसी से संबंध रखे ही नहीं थे तो कौन आता कौन खड़ा होता!
सुयश लंदन में नौकरी कर रहा था वहीं बस गया था उसने भूले से भी सुनीता को लंदन आने को नहीं कहा!जिस पैसे के दम पर सुनीता और शीला को गुमान था उसके होते हुए भी आज कितनी असहाय थी सुनीता!
आज सुनीता को अपनी “गलती” का ऐहसास हो रहा था भले ही पैसे की कमी थी पर वह सुरेश जी के साथ अपने छोटे से घर में कितनी सुखी और खुश थी।क्यूं अपनी मां की बातों में आकर उसने अपनी सोने सी गृहस्थी में आग लगा ली।
काश उसने सुयश को ऐसे संस्कार दिये होते उसे रिश्तों का मूल्य समझाया होता।परिवार के मायने उनकी अहमियत समझाई होती तो वह आज यूं बिल्कुल अकेली ना होती।
सुनीता बार बार सुरेश जी की फोटो के आगे हाथ जोड़कर रो रो कर अपनी इस ब्लंडर के लिए माफी मांग रही थी!पर अब पछताऐ क्या होता है।
कभी कभी पैसे के मद में चूर लोग रिश्तों की अहमियत भूल जाते हैं! उसी परिवेश में उनके बच्चे बड़े होकर संस्कार हीन होकर उन्हें अकेला छोड़ जाते है!जब तक होश आता है बड़ी देर हो चुकती है अपनी गलती का ऐहसास बड़ी देर से होता है और आखिर में पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं आता।कुछ गलतियां ऐसी होती हैं जिनका प्रायश्चित असंभव होता है!
कुमुद मोहन
स्वरचित-मौलिक
#प्रायश्चित