नीलिमा का जीवन हर उस लड़की जैसा था जो एक सीमित लेकिन सहेजे हुए सपनों की गठरी लिए रोज़ सुबह जगती है। वह एक सुलझी हुई, समझदार और आत्मनिर्भर युवती थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने कुछ समय तक घर पर रहकर माँ का हाथ बँटाया, लेकिन उसकी आँखों में नौकरी कर आत्मनिर्भर बनने की चमक हमेशा से रही थी।
आख़िरकार, एक दिन नीलिमा को एक निजी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई। वह हर सुबह अपने भविष्य को आकार देने के लिए बड़ी तन्मयता से तैयार होकर निकलती। उसकी माँ खुश थीं, पिता थोड़े चिंतित रहते थे और आरव, नीलिमा का बड़ा भाई—पहले तो चुप रहा, लेकिन धीरे-धीरे उसकी आँखों में असहजता पनपने लगी। जहाँ नीलिमा बचपन से ही अपने भविष्य को लेकर सजग थी, वही आरव भाग्य के भरोसे बैठा रहता, “यदि रेखाएँ मज़बूत हुईं तो सबकुछ खुद ही चल कर आएगा।” बोल कर आरव अक्सर माता-पिता को चुप करा देता। बचपन से ही आरव को उसके माता-पिता ने मनमर्जी करने की छूट दी थी, तो अब उन्हें कुछ बोलते बनता ही नहीं था।
नीलिमा के स्कूल की राह में एक तंग सी गली पड़ती थी, जिसमें अक्सर एक गुंडा नेता किस्म का लड़का, विकास, अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठा रहता था। वह कभी सीधे कमेंट नहीं करता था, लेकिन उसकी निगाहें, मुस्कुराहट और रास्ता रोकने जैसी हरकतें नीलिमा को असहज कर देती थीं। नीलिमा ने इस बारे में कई बार आरव से बात करनी चाही, लेकिन यह सोचकर चुप रही कि शायद भाई फालतू में रिएक्ट करेगा।
एक दिन नीलिमा विद्यालय के किसी काम से जल्दी लौटी और उसी विकास से एक दुकान के बाहर बात कर रही थी और विकास उसकी कलाई पकड़े मुस्कुरा रहा था। दरअसल वह उससे कह रही थी कि उसे रास्ते में परेशान करना बंद करे। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय आरव भी उसी ओर से लौट रहा था और उसने सिर्फ यही देखा कि नीलिमा बिना किसी झिझक के उस लड़के से बात कर रही है और घर पहुँचते ही आरव का गुस्सा फट पड़ा।
“अबे, क्या चल रहा है तेरे और उस आवारा के बीच?”
नीलिमा हक्की-बक्की रह गई। उसने कहा, “भैया, आप ग़लत समझ रहे हैं, मैं उसे मना कर रही थी—वह रास्ते में परेशान करता है, मैं उसे साफ़ कह रही थी।”
“पहले क्यूँ नहीं बताया”, आरव फिर चिल्लाया।
“क्या हो गया हैं, कोई बताएगा!” नीलिमा की माँ कातर स्वर में पूछती हैं।
“भैया, वो”…
लेकिन आरव सुनने को तैयार नहीं था। उसकी बातों में अब समाज, इज्ज़त, पड़ोसियों की निगाहें और बहन की मर्यादा जैसे शब्द भरे हुए थे, रिक्त था तो बहन के लिए विश्वास।
“सम्भालो अपनी लाडली को, नाक कटाने पर तुली है” कहकर आरव घर के मुख्य द्वारा को जोर से खोलता हुआ घर से बाहर निकल गया और फिर दस मिनट बाद ही वापस आकर कहता है, “अगर इतना ही शौक़ है नौकरी का, तो उसी से शादी कर ले! वैसे भी पूरा मोहल्ला तरह-तरह की बातें बना ही रहा है।”
“नहीं करनी मुझे किसी से भी शादी”, कहकर नीलिमा अपने कमरे में सिमट गई। अब विद्यालय भी उसके पिता पहुँचाने और लेने जाने लगे। नीलिमा ने कई बार पिता और भाई को समझाने का प्रयास किया कि ऐसे तो उसका आत्म विश्वास डगमगा जाएगा। लेकिन उसकी बात कोई भी सुनने को राजी नहीं था और आरव तो एक ही जिद्द पर अड़ चुका था।
“भैया, प्लीज़… मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ, मैं बस अपना करियर बनाना चाहती हूँ… उस लड़के से मुझे नफरत है, शादी की बात मत करिए।” उसका अपना भाई, जिसे विकास के बारे में सबकुछ पता है, वह बार-बार उसी से शादी के लिए जोर डाल रहा हाँ, ऐसी बात कर रहा है, नीलिमा स्तब्ध रह जाती थी और भाई के सामने गिड़गिड़ा पड़ती थी।
पर आरव जैसे किसी और ही जुनून में था। उसने कह दिया, “या तो नौकरी छोड़ दे, या उससे शादी कर ले—हमारी इज्ज़त से बढ़कर कुछ नहीं।”
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“क्यूँ कर रहे हो ऐसा, तुम तो जानते ही हो विकास कैसा लड़का है।” उस रात आख़िरकार खाने पर पिता हिम्मत करके मद्धिम स्वर में आरव से कहते हैं।
“क्या खराबी है उसमें। नेता आदमी है, मेरे पास सामने से चलकर ऐशो आराम आ रहा है और मैं छोड़ दूँ। नीलिमा तो तुरूप का पत्ता निकली।” आरव के चेहरे पर कुटिलता भरी मुस्कुराहट थी।
“ये.. ये क्या कह रहे हो तुम?”
“बस हो गई बात इस पर, नीलिमा की शादी विकास से ही होगी और मेरी किस्मत में ऐश ही ऐश।” आरव जोर से बोलता हुआ माँ की बात को बीच में ही रोक देता है।
उस रात नीलिमा ने बहुत देर तक दरवाज़ा बंद रखा। कोई आहट नहीं, कोई हलचल नहीं। माँ ने सोचा शायद सो गई होगी, लेकिन जब सुबह दरवाज़ा नहीं खुला तो दरवाज़ा तोड़ना पड़ा। नीलिमा की साँसें थम चुकी थीं। एक छोटा सा पर्चा तकिए के पास रखा था:
“भैया, आपसे प्यार किया, सम्मान किया। सोचा था आप मेरी रक्षा करेंगे, मेरी बातों पर विश्वास करेंगे। पर जब वही भाई मेरी आवाज़ सुनने से इनकार कर दे, तो दुनिया में कोई कोना सुरक्षित नहीं रह जाता। मैंने हार मान ली है। माफ़ करना, लेकिन उस आवारा लड़के से दूर रहना भैया, वो किसी का सगा नहीं है।”
“नीलिमा”
घर में जैसे भूकंप आ गया हो। माँ बेसुध हो गईं, पिता दीवार का सहारा लेकर गिर पड़े और आरव… आरव बस वहीं खड़ा रहा, उस पर्चे को हाथ में लिए हुए और भुनभुना उठा, “किए कराए पर पानी फेर गई।” मानो उसे बहन के जाने का कोई दुःख ही नहीं हुआ।
कई महीने बीत गए। घर की दीवारों पर नीलिमा की तस्वीर टंगी रही, उसकी आँखें आज भी मुस्कुरा रही थीं—जैसे पूछ रही हों, “क्या मेरी गलती इतनी बड़ी थी कि मुझे जीने का अधिकार भी नहीं मिला?”
नीलिमा की मृत्यु के बाद घर एक गूंगे शोक में डूब गया था। माँ की आँखें अब हमेशा नम रहती थीं, पिता अब जैसे उम्र से पहले बूढ़े हो गए थे और आरव अब उसी विकास के साथ उठने-बैठने लगा था, जो नीलिमा की असहजता की सबसे बड़ी वजह था। यह दोस्ती आरव की खोखली मर्दानगी, बिखरे आत्मसम्मान और दुनिया को दिखाने के खोखले प्रयास की देन थी। उसे लगने लगा था कि इज्ज़त वह नहीं जो रिश्तों को निभा कर कमाई जाए, बल्कि वह है जो डर दिखाकर, रुतबा जमा कर हासिल की जाए।
विकास ने चुपचाप आरव को अपने खेल में शामिल कर लिया। ज़रा-ज़रा सी मदद के बदले बड़ी-बड़ी बातों का वादा करता और आरव इस भ्रम में था कि वह अब उस समाज के नियमों से ऊपर हो गया है जिसने उसकी ‘इज्ज़त’ को चुनौती दी थी।
नीलिमा की मौत के कुछ ही महीनों बाद विकास को एक अंतरराज्यीय बालिका तस्करी रैकेट में पकड़ा गया। लेकिन बड़े-बड़े लोगों से जान-पहचान का फायदा उठाकर विकास तो साफ-साफ बच निकला लेकिन आरव उसमें उलझता ही चला गया। जाँच चली, साक्ष्य जुटे और अदालत में मुकदमा चला। आरव के मोबाइल से विकास के साथ हुई कई बातचीत, पैसों का लेन-देन और कुछ संदिग्ध दस्तावेज़ सामने आए। वह सब तोड़-मरोड़ कर विकास ने इस तरह पेश किया जैसे आरव ही मास्टरमाइंड था। अदालत ने दोनों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई। विकास को तो जैसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा, लेकिन आरव… बेटी की मौत और बेटे के जेल जाने से आरव की माँ एक रात जो सोई, तो फिर नहीं उठी। पिता ने आरव को माँ की मुखाग्नि देने से मना कर एक तरह से सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए। आरव खुद को कोसता हुआ बिल्कुल टूट गय।
आरव ने कभी सोचा भी नहीं था कि वह जिस आदमी के साथ शामें गुजारता था, जिसके साथ मिलकर बहन की ज़िंदगी का सौदा कर बैठा था, वही आदमी उसकी सांसों की कीमत तय कर देगा।
हर गिनती पर, हर खाना बाँटते समय, हर गाली सुनते हुए—उसके कानों में वो ही पंक्ति गूंजती थी:
“जब वही भाई मेरी आवाज़ सुनने से इनकार कर दे,
तो दुनिया में कोई कोना सुरक्षित नहीं रह जाता।”
कभी-कभी, वह खुद से कहता—काश उस दिन सुन लेता। काश एक बार रुक जाता। काश एक भाई, एक मर्द, एक इंसान होने की बजाय सिर्फ एक भरोसेमंद कंधा बन जाता।
जेल की दीवारें अब उसे हर समय नीलिमा की मुस्कराहट में जकड़ लेतीं। हर कोना उसकी याद दिलाता—उसकी बहन, जिसने उससे सिर्फ़ भरोसे की उम्मीद की थी। अब वो उम्मीद राख बनकर उसकी साँसों पर बोझ बन चुकी थी। अब वह कभी दिन भर नीलिमा की बातें याद कर हँसता रहता, कभी कई कई दिन चुप्पी साधे जेल की कोठरी के कोने में पड़ा रहता है। कभी दिन-रात वह दीवार से टकरा कर रोता है, उसी चिट्ठी को याद करता है—
“वो किसी का सगा नहीं है…”
आरव अब न विकास का है, न अपना।
नीलिमा से माफ़ी माँगता हुआ आरव पागलों की तरह इधर से उधर छटपटाता हुआ भागता रहता है, शायद यही अब उसका प्रायश्चित है।
आरती झा आद्या
दिल्ली