बूढ़े पिता हरि को गाँव में अकेला छोड़कर उसका बेटा जो शहर में इंजीनियर था बम्बई चला गया और वहीं अपने साथ काम करने वाली वसुधा से शादी करली और बम्बई में ही सैटिल होगया- –अकेला बेटा लेकिन निर्मोही– जिसको अपने पालक पिता का तनिक भी ख्याल नही– चला गया अकेला छोड़कर असहाय। लेकिन उसके बूढ़े बाप– हरि को थोड़े दिन तो बहुत खराब लगा क्योंकि वो भी और बुजुर्गों की तरह अपने बेटे से उम्मीद लगाए बैठा था–
समय ने उसे सिखा दिया कि,” ऐसे नामुराद बेटे से कोई उम्मीद रखना बेकार है।”अब हरि ने अपने को संयत कर लिया।उसकी खेती बाड़ी बारिश ना होने से सूख गई थी लेकिन उसने हार नही मानी– वो खेतों में मजूरी करता और फिर रात को आकर अपने लिए टिक्कड़ सेक लेता और कभी आलू भून कर उसमें नमक मिर्च मिलाकर सूखी रोटी खा पानी पी लेता।
वो बहुत स्वाभिमानी था।अपने बेटे का भेजा हुआ एक भी पैसा नही लेता।यदि कोई गाँव का आदमी उसे अपने यहाँ खाना खाने की कहता तो वो मना कर देता।वो अपनी मेहनत से कमाई सूखी रोटी में खुश रहता। उसे आत्म सम्मान की सूखी रोटी खाना मंजूर था बजाय किसी की दी हुई घी चुपड़ी रोटी खाने में।हरि बड़ा ही आत्म सम्मान वाला आदमी था।
हरि दिन भर मेहनत करता और फिर शाम को घर आकर नहाता धोता– भगवान के आगे शीश झुकाता और कहता कि,” हे भगवान– मुझे कोई धन वैभव– कुछ नही चाहिए– बस मैं किसी की दी भीख पर नही रहना चाहता– मुझे भूखे रहना मंजूर है पर दया समझ कर दी हुई खैरात मंजूर नही।”
गाँव के सब लोग उसके बेटे को भला बुरा कहते–वे कहते कि,” कैसा नाशुकरा बेटा है– कभी ना मिलने आता है ना कभी हरि को बुलाता है,”लेकिन हरि कभी कुछ नही कहता।वो शांत रहता।
अब उसके एक चार साल का पोता भी था लेकिन उसने उसकी शकल भी नही देखी थी।बड़ा मन था हरि का अपने पोते को देखने का–
एकदिन अचानक ही हरि का बेटा अपने परिवार के साथ अपने गाँव आया।वो अपने पिता से भी मिलने गया लेकिन हरि तब मजदूरी करने खेत पर गया हुआ था — जब वो लौटकर आया तो उसे अपना बेटा दिखाई दिया और बगल मैं खड़ी उसकी घरवाली– पास ही उसका चार साल का बेटा भी खड़ा था– हरि ने जैसे ही अपने पोते को देखा उसकी आँख से खुशी के आँसू बहने लगे और उसने दौड़कर अपने पोते को गले से लगा लिया– उसका पोता भी ,”दद्दु दद्दु” कहकर हरि के गले से लग गया।दोनों बड़े खुश थे।हरि का बेटा कुछ और ही सोच रहा था।” अगर पिताजी– पोते के लालच में मेरे साथ चले चलेंगे तो नौकर की समस्या हल हो जायेगी।”
हरि के बेटे ने अपने पिता से माफी मांगने का नाटक करते हुए कहा कि,” पिताजी– आप चलिए अपने पोते के लिए, ” हरि उसके नाटक को ना समझकर उसके साथ चलने के लिए तैयार होगया।रात को उसका बेटा बहू अंदर सोने चलेगए और उसने बाहर खाट डाल ली।आज उसे खुशी के मारे नींद नही आरही थी कि तभी उसे बेटे बहू की आवाज सुनाई दी–,” नीता– अब तुम्हारी नौकर की समस्या तो हल होगई और तुम्हारे बेटे के लिए भी नौकर मिल गया,” बस ये सुनते ही हरि की आँखें टपकने लगीं दुख से कि,” उसका बेटा कितना खुदगर्ज है– उसके आत्म सम्मान को मिटाकर उसे नौकर बनाकर ले जाना चाहिए रहा है,” उसने मन ही मन में कुछ सोच लिया और सो गया।
सुबह उठकर हरि नहाकर तैयार होगया।उधर बेटा बहू भी तैयार होगए। बेटा बाजार जाकर गाँव के मशहूर हलवाई सीताराम की कचौड़ी और जलेबी ले आया।सबने बैठकर बड़े प्रेम से खाया।पोता भी बहुत खुश था कि,” दद्दु साथ जा रहे हैं—अब मैं भी दद्दु के साथ खेला करूंगा– दद्दु से कहानियाँ सुनुँगा,” तभी हरि के बेटे ने कहा कि,” पिताजी– चलिए गाड़ी में बैठ जाइये अपने पोते के साथ “— लेकिन तभी हरि बोला कि,” बेटा– बहुत बहुत आशीर्वाद तुम्हे और तुम्हारे बच्चे को मेरा– लेकिन मैं तुम्हारे साथ नही चल सकता–
मैने तुम्हारी सब बातें सुनी हैं बेटा– तुम्हारी दया नही चाहिए मुझे– तुम्हारी घी लगी रोटी खाना मुझे स्वीकार नही– मैं यहाँ मेहनत मजूरी करके सम्मान की सूखी रोटी खाता हूँ– मैं बहुत खुश हूँ बेटा उसमें और मैंने अपने पोते को देख लिया– मुझे संतोष होगया लेकिन मुझे तेरा नौकर बनकर नही जाना है अपनी बेइज्जती कराने के लिए ,
सम्मान की सूखी रोटी भले ही सादा होती है लेकिन आत्मा को तृप्त कर देती है।”
दरअसल इंसान का असली धन तो उसका आत्म सम्मान होता है– भले ही उसके लिए उसे भूखा रहना पड़े–किसी के सामने झुक कर– अपमानित होकर घी चुपड़ी रोटी भी बेकार है।।
लेखिका: डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ