समझौता अब नहीं – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

जैसे-जैसे मानसी के मौसेरे भाई तेजस के विवाह का शुभ दिन निकट आ रहा था, उसके हृदय में उल्लास की लहरें हिलोरे ले रही थीं। “घुड़चढ़ी की रस्म में यह मखमली हरी साड़ी पहनूँगी और बारात के लिए वह सुनहरी लहंगा। सभी आत्मीयजनों से भेंट होगी! अहा, कितना आनंद आएगा!” मानसी अपने मन के भीतर उमड़ते भावों को सँजो रही थी।

अपने दोनों बच्चों, विन्नी और पुरु को पास बुलाकर, उन्हें परिधान पहनाकर, मानसी उनकी वेशभूषा भी निश्चित करने में तल्लीन थी। उनके लिए चॉकलेट और खिलौनों का उपहार लाने वाले तेजस मामू के विवाह की बात सुनकर, दोनों बाल हृदय भी प्रसन्नता से भर उठे थे।

“पापा आ गए।”

“आज तेजस मामा आए थे और हमारे लिए ये स्वादिष्ट चॉकलेट लाए थे। उनके विवाह में हम खूब धमाल मचाएंगे,” गाड़ी के हॉर्न की ध्वनि सुनते ही दोनों उत्सुक बच्चे अपने पिता हरीश को यह शुभ समाचार देने और दिखाने के लिए घर के द्वार की ओर दौड़ पड़े।

कुछ क्षणों पश्चात, मानसी रसोई में चाय बनाते हुए अपने पति हरीश की ऊँची ध्वनि सुन रही थी। न जाने किस बात पर वे बच्चों पर बरस रहे थे, “आवश्यकता नहीं है अधिक उछल-कूद मचाने की! कोई कहीं नहीं जा रहा! चलो दोनों चुपचाप बैठकर पढ़ाई करो!”

“बच्चे हैं! अवश्य ही कोई शरारत की होगी! उनके पापा के तीव्र स्वभाव से परिचित हैं, फिर भी ध्यान नहीं रखते। कितना समझाती हूँ कि पापा को क्रोधित न किया करो….” मन में सोचते-सोचते मानसी चाय लेकर हरीश के समीप पहुँची।

“लीजिए, तेजस के विवाह की यह मिठाई चखिए। आज मौसी जी, मौसा जी और स्वयं तेजस विवाह का निमंत्रण पत्र लेकर पधारे थे। बार-बार आग्रह कर रहे थे कि मांजी, पिताजी सहित हम सभी को विवाह की प्रत्येक रस्म में सम्मिलित होना है।” मानसी ने मिष्ठान्न की प्लेट हरीश की ओर बढ़ाते हुए कहा।

मिष्ठान्न के साथ चाय की चुस्कियाँ लेते हुए ही हरीश ने मानसी पर व्यंग्य बाण छोड़े, “क्यों अल्पबुद्धि की बातें करती हो? बच्चों से भी कह दिया तुमने कि हम सब विवाह में जाएँगे। क्यों जाएँगे हम विवाह में जब उन्होंने माँ को ही निमंत्रित नहीं किया? क्या हम मूर्ख हैं कि बिन बुलाए मेहमान की भाँति कहीं भी मुँह उठाकर चल देंगे?”

अपने पति के कटु वचनों को सुनकर मानसी स्तंभित रह गई। अब उसे ज्ञात हुआ कि हरीश बच्चों पर क्यों क्रोधित थे। फिर भी स्वयं को संयमित रखते हुए वह बोली, “मौसी-मौसाजी ने निमंत्रण पत्र और मिष्ठान्न का डिब्बा माँजी के कर कमलों में ही सौंपा था और उनसे और पिताजी से हाथ जोड़कर विशेष अनुरोध किया था कि वे बड़े हैं, उनके आशीर्वाद से वर-वधू के भावी जीवन का शुभारंभ होगा तो अत्यंत शुभ होगा। इसलिए वे विवाह में अवश्य पधारें।”

“मानसी, तो क्या माँ असत्य कह रही हैं?” हरीश ने प्रश्न किया।

“कहीं कोई भ्रांति हुई है! मेरे समक्ष ही उन्होंने माँजी को विनयपूर्वक विवाह का निमंत्रण दिया है। आप तो अभी घर आए हैं। माँजी से आपकी वार्तालाप कहाँ हुई है? चलिए हम माँजी के पास चलते हैं। आप उन्हीं से सत्य जान लीजिए।” मानसी ने उत्तर दिया।

“मैं घर में नहीं था तो क्या? सच मैं पहले ही जान चुका हूँ। माँ ने मुझे फोन पर सब कुछ बता दिया था। परंतु तुम्हें तो अपने मायके का पक्ष लेने, उनकी त्रुटियों पर आवरण डालने की आदत है! तुम्हारे पति की अनुपस्थिति में वे लोग निमंत्रण पत्र देने आ गए और तुम्हें किंचित भी फर्क नहीं पड़ रहा! दामाद किस प्रकार नखरे दिखाते हैं और किस भाँति उन्हें मनाया जाता है, तुम क्या जानो!” हरीश ने अपनी भड़ास निकाली।

“आप जानते हैं कि वे आज इसलिए निमंत्रण पत्र देने आए थे क्योंकि आज आप का अवकाश था। वे लोग रास्ते में थे तो आपको एक आवश्यक मीटिंग में जाना पड़ा। इसमें उनकी क्या गलती है? परंतु उन्होंने मेरे सामने ही आपको फोन किया था और मैंने सुना था कि आपसे भेंट न कर पाने का खेद प्रकट करते हुए किस प्रकार मौसा जी ने आपको सम्मान देते हुए विवाह में सम्मिलित होने का अनुरोध किया था।” मानसी ने स्पष्टता से कहा।

“क्या हम सड़क पर बैठे हैं जो फोन द्वारा निमंत्रण देने से ही उठकर चल देंगे। ध्यान से सुन लो, जब तक वे पुनः आकर, मेरी उपस्थिति में मांजी और पिताजी को मान-सम्मान सहित नहीं बुलाएंगे, हमारे घर से कोई विवाह में सम्मिलित नहीं होगा। तुम भी नहीं!” हरीश ने मानसी को अपना अंतिम निर्णय सुना दिया।

यह सब सुनकर मानसी के हृदय में क्रोध की अग्नि प्रज्वलित हुई। परंतु फिर भी उसने हरीश को समझाने का प्रयास किया, “हमारा कर्तव्य है कि मौसी-मौसा जी को नखरे दिखाने के बजाय हम उन्हें सहयोग प्रदान करें। हम उनके सगे पुत्री-दामाद नहीं हैं, वे फिर भी हमें इतना आदर देते हैं। जब हमारा संबंध निश्चित हुआ था तो मौसी-मौसा जी कितने प्रसन्न हो गए थे कि मैं वधू बनकर उन्हीं के नगर में आ रही हूँ। हमारे विवाह को दस वर्ष होने को आए, परंतु मौसी-मौसाजी ने दीपावली, संक्रांति आदि प्रत्येक पर्व पर नेग भेजा, तेजस भी प्रत्येक रक्षाबंधन पर राखी बँधवाने आया। अपनी बारी आने पर हमारा भी कर्तव्य है कि हम उनकी खुशी में सहर्ष शामिल हों।”

हरीश अभी भी अपने निर्णय पर अटल था, “देखो मानसी मैंने कहा ना कि जैसे दामाद और उसके माता-पिता को निमंत्रित किया जाना चाहिए, वैसे बुलाएंगे तो जाने के विषय में विचार करेंगे अन्यथा नहीं।”

“विचार करेंगे?……..” हरीश के इन शब्दों ने मानसी के तन-मन को भेद दिया।

बातों को अधिक तूल न देने वाली मानसी से अब सहन न हुआ, “हम विवाह में नहीं भी गए, तो उनकी अपनी दो पुत्रियाँ और दामाद हैं, संपूर्ण रस्में निभाने के लिए। आजकल कोई सगे दामाद के नखरे नहीं उठाता, हमारे क्यों उठाएगा? विवाह में सम्मिलित होकर हम उन पर कोई अहसान नहीं कर रहे। रिश्ते परस्पर सम्मान से पोषित होते हैं। दोनों पक्षों को एक दूसरे की आवश्यकता होती है। मैं न केवल विवाह की रस्मों में शामिल होऊँगी बल्कि उनसे फोन करके भी कहूँगी कि विवाह के कुछ कार्य मुझे भी सौंप दें। आप सब की जैसी इच्छा हो, वैसा करें।”

हरीश ने मानसी से ऐसे उत्तर की अपेक्षा स्वप्न में भी नहीं की थी। विवाह में तो वह स्वयं भी जाना चाहता था परंतु वह और उसके माता-पिता ‘लडके वाले’ होने के अपने दंभ को त्यागते ही नहीं थे। सम्मान देने से सम्मान प्राप्त होता है, यह वे कभी समझना ही नहीं चाहते थे। वे तो मानसी के मायके वालों को झुकाने के अवसर की प्रतीक्षा में रहते थे। उन्हें नखरे दिखाकर स्वयं को श्रेष्ठ अनुभव करते थे।

हरीश क्रोध से आपा खोने लगा, “मानसी, क्या बोल रही हो? क्या तुम्हारी होश ठिकाने हैं? तुम्हारे माता-पिता ने क्या यही संस्कार दिए हैं तुम्हें, अपने पति के समक्ष प्रतिवाद करने के?”

मानसी ने दृढ़ता से कहा, “आज तक मेरे मायके की रिश्तेदारी में जितने भी आयोजन हुए हैं, प्रत्येक बार आपने नाटकबाजी की है, प्रत्येक बार मेरा हृदय दुखाया है। और अब आप मेरे माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं! आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि उन्हीं संस्कारों के कारण ही प्रत्येक बार मैंने समझौता किया है। मेरे माता पिता ने मुझे सदैव समझाया कि ससुराल में तुम्हें सबका हृदय जीतना है इसके लिए पति और बड़ों के समक्ष थोड़ा झुकना पड़े तो झुक जाओ……….।”

मानसी की बात को बीच में काटते हुए हरीश बोला, “झुक कहाँ रही हो तुम? जुबान लड़ा रही हो तुम तो? यह सब कहाँ से सीखा?”

मानसी ने आत्मविश्वास से कहा, “आप लोगों की नाटकीय हरकतों से सीखा। भलीभाँति स्मरण है मुझे कि मेरे भाई के विवाह में कितनी मान-मनौव्वल करवाई, कितने नखरे दिखाए आपने। अपने माता-पिता की खातिर मैं शांत रही। बुआजी के बेटे के विवाह में भी आपने जब कहा कि उन्होंने ठीक से नहीं बुलाया तो मैंने स्वीकार कर लिया। परंतु आज मैं प्रत्यक्षदर्शी रही कि किस प्रकार शादी वाले घर से निकलकर मौसी-मौसाजी स्वयं पधारे, माँजी को बड़ा मानकर उन्हें मान-सम्मान से निमंत्रण दिया और फिर भी आप लोगों का अकारण अहं प्रदर्शन..।”

अब जैसे ही हरीश ने कहा, “विवाह में जाने का स्वप्न त्याग दो और अपना कार्य करो।” तो मानसी ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया, “बहुत हो गया। कोई जाए या न जाए। मैं तेजस के विवाह में अवश्य जाऊँगी। समझौता अब नहीं!”

दृढ़ निश्चय कर, घुड़चढ़ी के दिन मानसी अत्यंत सुसज्जित हुई। उसने अपने दोनों बच्चों को भी सुंदर रूप से तैयार किया और उनको लेकर अपने घर से कुछ दूरी पर स्थित ऑटो रिक्शा स्टैंड की ओर चल दी।

ड्राइंगरूम में बैठे मानसी के सास-ससुर और पति हरीश विस्मित रह गए। मौसी-मौसा एक और बार न सही, कम से कम वधू मानसी तो विवाह में चलने की अनुनय-विनय करती, सास-ससुर की इच्छा अधूरी रह गई।

हरीश को भी एक झटका सा लगा। वह तैयार होकर बैठा था और सोच रहा था कि घुड़चढ़ी में उनको न आया देख, अभी मौसा-मौसी की ओर से मनुहार भरा फोन आएगा और वे लेने के लिए अपनी गाड़ी भेजेंगे। परंतु मानसी ने तो उसकी अभिलाषा पर पानी फेर दिया। स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने का सुअवसर मानसी के कारण हवा हो गया।

पर मानसी सचमुच चली गई, हरीश के लिए यह अप्रत्याशित था। इस घटना ने उसे चिंतन करने पर विवश कर दिया। कुछ ही क्षणों में वह आत्मविश्लेषण कर बैठा। उसे अपने हाथों से सब कुछ फिसलते हुए प्रतीत हुआ।

हरीश के मन में यह विचार कौंधा, “क्या मैं सचमुच इतना कठोर और संवेदनहीन हो गया हूँ? क्या मेरी अकड़ ने मुझे इतना अंधा बना दिया है कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रिश्ते की महत्ता को ही भूल गया हूँ? उन्हें ही खो दूंगा तो मेरे पास क्या रह जाएगा? इससे समाज में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी?

उसके मन में एक तीव्र वेदना उठी। उसे अपने व्यवहार पर लज्जा आई। उसने महसूस किया कि वह अपने माता-पिता की अनुचित बातों का समर्थन करके, मानसी का अपमान कर रहा था। वह स्वयं भी इस विवाह में सम्मिलित होना चाहता था, परंतु उसके अहं ने उसे रोक रखा था।

उसने स्वयं से पूछा, “क्या मैं अपने माता-पिता की झूठी शान के लिए अपनी पत्नी और बच्चों की प्रसन्नता को दांव पर लगा रहा हूँ? क्या यह उचित है? क्या यही प्रेम है? क्या यही मेरा कर्तव्य है? क्या यही मेरे संस्कार हैं?”

नहीं! नहीं! ये तो मेरी बहुत बड़ी हार होगी! मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा! मुझे स्वयं को बदलना होगा!” हरीश जैसे गहरी नींद से जागा और त्वरित निर्णय लेते हुए कार लेकर मानसी और बच्चों के पीछे भागा।

उधर मानसी और बच्चे ऑटो में बैठ चुके थे। बस ऑटो चलने ही वाला था कि वहां हरीश पहुंच गया और ऑटो वाले को कुछ रुपए देकर मानसी और बच्चों को ऑटो से उतरकर कार में बैठने के लिए कहा।

मानसी के मुंह से सहसा निकला, “शादी में आप भी चल रहे हैं क्या? मौसा-मौसी अथवा तेजस का फिर से फोन आया है क्या?”

“नहीं! वे फोन कैसे कर पाएंगे! इस समय वे घुड़चढ़ी की रस्म और अतिथियों की आवभगत में बहुत व्यस्त होंगे। तुम ठीक कह रही हो, हमें चलकर उनको सहयोग देना चाहिए।” बच्चों की मौजूदगी में हरीश ने प्रत्यक्षरूप से मानसी से इतना ही कहा।

लेकिन हरीश की आंखें और भाव भंगिमाएं जैसे पश्चाताप की भावना से कह रही हों, “तुमने मेरी आंखें खोल दी हैं, मानसी। तुम कठोर फैसला न लेती तो शायद मैं सुधार की दिशा में एक कदम भी  नहीं बढ़ाता।”

उधर हरीश‌ के पीछे-पीछे घर के बाहर निकल आए उसके माता-पिता ने जब दूर से सब को कार में बैठते हुए देखा तो समझ लिया कि अब अपनी सोच को बदलकर बेटा-बहू का साथ देने में ही भलाई है। उन्होनें निश्चय किया कि कल बिना किसी नाज-नखरे के कुछ देर के लिए वे शादी में अवश्य शरीक होंगें।

मौसा-मौसी के यहां पहुंच कर जब मानसी ने हरीश को सबसे सम्मानपूर्वक बात करते देखा तो उसे ‘समझौता अब नहीं’ वाले अपने फैसले पर गर्व होने लगा और उसके अधरों पर मुस्कान छा गई।

– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

साप्ताहिक विषय: #समझौता अब नहीं

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