सिलसिला – गीतांजलि गुप्ता

मंजूषा कुछ दिनों पहले ही हमारे पड़ोस वाले फ़्लैट में आई थी। पतली दुबली स्मार्ट दिखने वाली कुछ चालीस वर्ष की आयु होगी उसकी। परिवार के नाम पर वो और उसकी माँ ही थे। घर के बाहर एक कार खड़ी रहती पर वो उसे कभी कभार ही निकालती, तब जब माँ बेटी साथ में कहीं जाते। मुझे आस पड़ोस की जानकारी रखने में बहुत मज़ा आता था परंतु पूरे तीन महीने की कोशिश के बाद भी उनके विषय में कुछ नहीं जान पाई।

बस इधर उधर आती जाती मंजूषा पर नजरें गड़ाए रखती सोचती रहती कैसे उस से बात करूँ वो तो नजर भी नहीं मिलाती किसी से। अपनी सहेलियों से भी पूछा कि कोई कुछ बताए मेरे बिल्कुल पड़ोस में कोई आये और मुझे अपना ना समझे ये बात मुझे बहुत खल रही थी। मंजूषा के पहनावे से समझ आता था कि वो सादगी पसंद करती है। हमेशा कॉटन के सादे कपड़े पहन बाहर निकलती थी। सोसाइटी के जिस फ़्लोर पर हमारा फ़्लैट था वहाँ पांच फ्लैट्स और भी थे और उन्हीं में से एक में मंजूषा रहती थी।

उसका नाम भी मैनें उसके दरवाज़े पर लगी नेम प्लेट से जाना था। इंसान की उत्सुकता तब और भी बढ़ जाती हैं जब उस का स्वभाव मेरे जैसा हो। खैर मैं भी उस दिन के इंतजार में थी जब मंजूषा से मुलाक़ात होगी।

मेरे इकलौता बेटा व्योम विदेश में रहता है और पति सुबह ही फैक्टरी निकल जाते। मैं अपने काम निपटा पास पड़ोस की सहेलियों में समय बिताती थी।

एक दिन सुबह सुबह दरवाज़े की घण्टी बजी। कोई आने वाला तो था नहीं इसलिए शंकित सी दरवाज़े की तरफ गई। दरवाजा खोला तो मंजूषा को खड़ा पाया। बदन में एकाएक झटका लगा आँखों को झपका कर विश्वास किया। मंजूषा जल्दी से बोली, “आप मेरे घर चलो मेरी माँ को कुछ  हो गया है।” वहां जा कर देखा मंजूषा की माँ प्रतिभा देवी ज़मीन पर लेटी थी और उनका मुँह नीला पड़ गया था। मंजूषा ने एम्बुलेंस बुला रखी थी मेरे पति घर पर ही थे हम दोनों मंजूषा के साथ अस्पताल पहुंच गए। वहाँ जाते ही उपचार शुरू हो गया और डॉक्टर ने ब्रेन में क्लोटिंग बताया। कई टेस्ट किये गए मेरे पति को जरूरी काम था वो मुझे अस्पताल में छोड़ गए।




प्रतिभा जी को तो अभी अस्पताल में रखा जाएगा हालत सुधरने में समय लगेगा। मैं भी वहाँ से वापिस चलने लगी मंजूषा धन्यवाद देने के लिये पास आई उसका हाथ अपने हाथों में रख सांत्वना दी और मैं भी चल दी।

बात आई गई  हो गई। एक दो बार मैं उनका हाल पूछ आई। किसी चीज़ की उन्हें जरूरत होती तो उन्हें उपलब्ध करा देती। एक दिन दोपहर में घण्टी बजी दरवाजे पर खड़ी मंजूषा ने कहा कि उसे कुछ बात करनी है। उसे अंदर लाते समय मैं कुछ उत्सुक थी अब ये क्या कहेगी ?

उसने बोलना शुरू किया, “आप को मेरी मदद करनी पड़ेगी। दीदी, क्या मैं दीदी पुकार सकती हूँ।”

“अरे, इसमें पूछने की क्या बात है।” तपाक से मैंनें बोला। “क्या मदद चाहिए मुझसे बताओ।”

“आप नहीं जानती हम बहुत परेशानी में हैं मेरे पिता ने कर्ज उठा भाई रितेश को अमेरिका पढ़ने भेजा था। होशियार था उसे वहाँ ही नौकरी मिल गई और मेरा भाई अमेरिका में ही सेटल हो गया। वहाँ ही इंडियान मूल की लड़की से शादी कर ली चार साल पहले आया था हमसे मिलने। तब पापा से बहुत सी आर्थिक सहायता भी ली उसने, माँ ने बहुत मना किया दीदी, पर पापा से बेटे का दुःख देखा नहीं गया उसकी पत्नी बड़ी लापरवाह थी उसने बस इतना ही बताया। हम से मिलाने उसे कभी नहीं लाया।

कभी कभार कॉल आ जाता तो पापा उसे दिलासा देते रहते और अपने परिवार को संभालने की सलाह देते। उसकी अपनी पत्नी माधुरी से लड़ाई रहने लगी रितेश के दो बच्चे भी हैं। चाहे दूर रहें दीदी,परंतु माता पिता का स्नेह वैसा ही बना रहता है। मेरी शादी हमारे आर्थिक अभाव के कारण टूट गई। उसके बाद मैंनें शादी नहीं करने का फैसला लिया।




रितेश दो साल से बीमार चल रहा था पता लगा था। विदेश जाने की हम में से किसी की हिम्मत नहीं थी यहाँ बैठे बैठे उसके लियें प्रार्थना करते रहते। पापा अंदर ही अंदर टूट चुके थे और एक दिन दिल के दौरे से पीड़ित हो हमें छोड़ गए। पापा को गये एक वर्ष हो गया अपने पुराने मकान में माँ बहुत घबरा जाती थी और भाई के लिये जो कर्ज चढ़ा था वह भी उतारना हमारी जिम्मेदारी बन चुका था इसलिए पुराना मकान बेच कर यहाँ किराया पर इस मकान में आ गए।

मंजूषा बोलती ही जा रही थी और मैं उस की आप बीती सुन रही थी लगा जैसे पहली बार वह अपनी दुःखद कहानी किसी को सुना रही है कितना दर्द भरा था उसकी बातों में। ” कुछ दिन पहले रितेश के गुजरने की खबर आई जिसे माँ सह नहीं पाई और आज पेरालेटिक हो गिर गईं। दीदी, इस सब में मेरा क्या कसूर था ?” उसकी आँखों से झर झर आँसू बहने लगे उठकर मंजूषा को गले लगाया और सांत्वना दी।

“दीदी आप को मेरी माँ को दिन में थोड़ा देखना होगा वैसे आया रख ली पर आप एक बार देखा लेना मुझे कल से काम पर जाना होगा।”

भविष्य में मंजूषा के साथ मेरा संबंध गहराई से जुड़ गया।

दोनों घरों में आना जाना सहजता से निभाया जाने लगा। प्रतिभा देवी की हालत अच्छी नहीं थी। फिर भी उनका अकेलापन हमारे परिवारों के मिलाप से कुछ घट जाता।

मेरा बेटा व्योम भी अमेरिका में नौकरी करता है मंजूषा के भाई की बातें सुन मैं परेशान रहने लगी। हमने तय किया जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर दी जाए। मंजूषा के भाई के साथ जो हुआ उसमें उसके माता पिता की भी कोई कमी बेशक़ रही पर व्योम को संभलना हमारी जिम्मेदारी बन गई।




मेरी निगाह में एक दो लड़कियां थीं जिनसे व्योम की शादी की बात की जा सकती थी। मंजूषा की कहानी दिमाग़ में घर कर गई थी। पति का कहना कि हमारे बेटे के साथ रितेश जैसा न हो जाए ये सोच कर परेशान होने की क्या जरूरत।

इस बार जब व्योम का कॉल आया तो उसने अपने और सिजल के रिश्ते के बारे में बताया। ये भी कहा कि दोनों इंडिया आकर जल्दी ही शादी करेंगें। सिजल के माता पिता इंडिया में ही रहते हैं। मंजूषा को जब ये सब बताया तो वो ख़ुश हो कहने लगी , ” सिजल के माता पिता से मिल लो दीदी। एक बार उनके रहन सहन का और उनके व्यवहार का तो पता चल ही जायेगा।”

बेटे से पता ले कर सिजल के माता पिता से मिलने दूसरे शहर पहुँचे। समय कितना बदल गया है पहले लड़की के पिता को खोज ख़बर रखनी पड़ती थी कि उनकी बेटी कहीं किसी गलत घर में न चली जाए और हम बेटे के माता पिता हो कर घबरा रहे हैं। सिजल एक छोटे शहर व साधरण से परिवार की बेटी निकली जो खुद की मेहनत के बल पर विदेश पढ़ने गई है। हमने सिजल और व्योम की शादी की बात मान ली।

कुछ समय बाद व्योम घर आया शादी करने आया था। तभी उसने बताया कि सिजल उसके साथ ही पढ़ती थी। दोनों ने एक साथ विदेश में पढ़ने का प्लान बनाया था। आप को व पापा को कुछ बताता तो शायद आप मुझे विदेश नहीं भेजते। व्योम की बात सुनकर मेरा सर चक्करा गया। ये मेरा बेटा तो मंजूषा के भाई से चतुर है इसने तो अपने माता पिता को ही छल लिया इसे कोई लड़की क्या बेबकूफ़ बनाएगी।

शादी के सारे शौक मन में ही समाप्त हो गए। इकलौता बेटा है इसलिए कोई दुख नहीं दे सकते परन्तु जीवन के सारे ख़ुशी के पल एक झटके में बिखर गए। मंजूषा की कहानी से अलग मेरी खुद की एक कहानी तैयार हो चुकी थी।।

गीतांजलि गुप्ता

नई दिल्ली

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