“बाहर झाँक कर देखा तो आसमां गहराने लगा था। साँझ की खिड़की से सूरज हौले हौले उतर रहा था। लेकिन धरा पर उसकी तपिश अभी भी महसूस की जा सकती थी….मैं वहीं खिड़की के समीप खड़ा गहराता आसमान देखने लगा।”
“सूरज के उतरने और चाँद के निकलने के बीच ये जो समय होता है ना बहुत मुश्किल होता है। जहाँ उजाले की कोई किरण नहीं होती। होता है तो सिर्फ़ घना धूसर अँधेरा। क्रोध/गुस्सा ऐसा ही होता है ना अँधेरे से भरा जहाँ हमें कुछ दिखाई नहीं देता..”
“मेरे बाई ओर दीवार पर लगा कैलेंडर हवा के झोंके से फड़फड़ा रहा था या यूँ कहूँ कि मुझे याद दिला रहा था कि आज ‘स्वप्न’ काे मुझसे दूर गये पूरे छ: महीने हाे गये। पर ना जाने क्यूँ मेरा मन ये मानने को तैयार नहीं था। क्यूँकि जो लोग दिल में रहते हैं ना वो शरीर से भले दूर हों लेकिन मन से दूर कभी नहीं जाते।
“प्रेम को याद करते हुए या उदासी के किसी क्षण मैंने जब भी उसे पुकारा वो यहीं मिली, मेरे होंठो पर खेलती और पलकों से उलझती हुई। पर हाँ..जबसे गई थी वो, मुझे एकांत कभी नहीं मिल पाया। बहुत बातें करने लगी थी वो मुझसे…”
“प्रेम गंगा में स्नान करते हुए दूर आसमां से आती नारंगी प्रकाश की किरणें धीरे धीरे मेरे इर्द-गिर्द बिखरने लगी। अमावस की रात ढ़ल चुकी थी। आज पूर्णिमा थी…चाँद अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत खूबसूरत और करीब नज़र आया।”
“पर मेरे भीतर मन का आसमां अभी तक सूना था। लेकिन मुझे यकीन है ‘स्वप्न’ जिस तरह सूरज के दिन भर तपने के बाद उसकी उष्णता कम हो जाती है ना और वो थक कर लौट जाता है। ठीक उसी तरह तुम्हारा गुस्सा उतरते ही तुम भी लौट आओगी…लौट आओगी ना..?”
-मंजुला