समधी जी, हमें भी अपना मान-सम्मान प्यारा है!! – चेतना अग्रवाल 

“कुछ फैसले अचानक ही लिये जाते हैं, और मुझे अपने फैसले पर कोई गिला नहीं है… ये फैसला मुझे बहुत पहले ले लेना चाहिए था, लेकिन कोई बात नहीं… देर आये दुरूस्त आये!!” कमला जी ने अपने परिवार से शादी के मंडप से ही वापस चलने के लिए कहा।

कमला जी घर में चलती थी, कोई उनकी बात को टाल नहीं सकता था, फिर भी बड़ी बहू तान्या ने कहा, “मम्मी जी, थोड़ा रूककर चलते हैं। कोई क्या कहेगा।”

“कोई क्या कहेगा, मुझे उससे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मैं अपने परिवार की इससे ज्यादा बेइज्जती नहीं करा सकती। अरे मैंने तो छोटी बहू को सिर-आँखो पर बैठाकर रखा था, और इसने उसका ये सिला दिया। खैर उसे क्या कहूँ, जब अपना सिक्का ही खोटा हो।” कमला जी की बात पर सब चुप थे, उनकी बात थी भी सोलह आने सच…

कमला जी और अनिल जी के दो बेटे हैं। बड़े बेटे की शादी को 5 साल हो चुके हैं। घर में कमला जी का दबदबा है। अनिल जी उनके आगे कुछ नहीं बोलते। बड़ी बहू सुधा, कहने को तो अरेंज मैरिज थी, लेकिन कभी सास कमला के दिल में जगह ना बना सकी। उसकी सारी कोशिशें बेकार गई।

अभी करीब एक साल पहले छोटे बेटे की भी शादी हो गई। कमला जी सुधा को नीचा दिखाने के लिए छोटी बहू निशा को बहुत लाड-प्यार करती। यहाँ तक कि जो बंदिश सुधा पर लगी थी निशा के लिए उन बंदिशो का नामोनिशान भी नहीं था। सुधा को बहुत बुरा लगता, अपने पति से भी कहती। लेकिन वो भी यही समझा देता, कुछ दिन में सब ठीक हो जायेगा।

 

आज निशा के भाई की शादी थी। निशा तो एक महीने पहले ही आ गई थी। ससुराल में काम की तो उसे फिक्र ही नहीं थी क्योंकि घर की सर्वे सर्वा सासू माँ का हाथ उसके सिर पर जो था। जब सुधा के भाई की शादी हुई थी तो कमला जी ने उसे एक ही दिन पहले भेजा था कि घर के काम कौन करेगा।

 




जब निशा अपने मायके गई थी तब भी सुधा को बहुत बुरा लगा था लेकिन हमेशा की तरह कह कुछ ना सकी।

 

निशा के पापा ने उसकी ससुराल में कार्ड भी भेज दिया था और एक फोन भी कर दिया था। लेकिन आज जब सब लोग वहाँ पहुँचे तो ना तो कोई नाश्ता पूछने को आया और ना ही दो बोल आदर और मान-सम्मान के… बस नमस्ते करके सब अपने काम से लग गये।

 

बुरा तो सबको बहुत लगा लेकिन फिर सोचा शादी का घर है, ऐसा होना स्वाभाविक है। सुधा के छोटे बच्चे, उन्हें भूख लगी थी… कमला जी ने कह दिया रसोई में जाकर खुद देख लो। सुधा ने रसोई में जाकर रसोई सहायिका से दूध लेकर बच्चों को दिया। तब तक सुधा ने सहायिका के साथ मिलकर सबके लिए कुछ नाश्ता भी लगवा लिया।

 

थोड़ी देर बाद सब तैयार होकर शादी के मंडप में पहुँचे। वहाँ भी वो सब एक तरफ बैठ गये, उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई दूर के मेहमान हो। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि लड़की के ससुराल वाले हैं।

 

वहाँ भी डिनर के बाद कमला जी और अनिल जिन्हें सफर की थकान थी, उन्होंने सोने के लिए कमरा पूछा। बच्चे भी नींद के लिए रो रहे थे। सुधा और उसका पति तो फेरों पर सबके साथ बैठने वाले थे। इस बीच निशा का पति यानि कमला जी का छोटा बेटा भी बस एक बार आकर अपने घरवालों से मिल गया। और जाकर ससुराल वालों के साथ मस्त हो गया ना तो निशा ने और ना ही उसके पति ने एक बार भी जेठ-जेठानी को किसी रस्म के लिए आगे बुलाया और ना ही डाँस के लिए बुलाया।

 

कमला जी के कहने पर बेटे ने ससुर से कहकर एक कमरा अपने घरवालों को दिलवा दिया। भाई-भाभी को भी कह दिया कि आप फेरो पर रूककर क्या करोगे। कमरे पर जाकर सो जाओ।

 

कमरे में एक डबल बैड… उस पर कौन-कौन सो सकता था। उस पर कमरे में केवल एक पंखा… जून की भयंकर गर्मी में एक कूलर भी नहीं। बच्चे मच्छर से परेशान हो रहे थे।

 

अब कमला जी से ये सब सहन नहीं हुआ। इतना अपमान… सुधा के भाई की शादी में तो सब उनके आगे-पीछे घूम रहे थे। उस पर भी वो शादी के अगले ही दिन तुनक कर वापस आ गई थी।

 




और यहाँ, निशा को जितना प्यार दिया। उसने सब पर पानी फेर दिया… इतना अपमान तो कोई दुश्मन का भी ना करे। जैसे इन्हीं के घर में शादी हो रही है, आगे हमारे कभी कोई फंक्शन नहीं होगा।

कमला जी ने तभी छोटे बेटे को बुलवाया, “हम लोग अभी वापस जा रहे हैं। निशा को घर वापस लाने से पहले उसके लिए अलग घर का इंतजाम कर लेना। मेरे घर में अब तुम्हारे लिए और तुम्हारी बीबी के लिए कोई जगह नहीं है।”

 

अनिल जी बोले, “ये क्या कह रही हो कमला… आवेश में आकर ऐसे फैसले नहीं होते। जब बच्चे वापस आ जायेंगे, तब आराम से बैठकर बात कर लेंगे।”

 

“कुछ फैसले अचानक लिये जाते हैं जी… उन्हें सोचने के लिए वक्त की जरूरत नहीं होती। वक्त देने पर फैसलों की अहमियत खत्म हो जाती है। ये फैसला मुझे बहुत पहले ले लेना चाहिए था। कम से कम मेरे परिवार का इतना अपमान तो ना होता।”

 

सुधा ने भी कमला जी को रोकने की कोशिश की। लेकिन आज वो अपने फैसले पर अडिग थी।

 

“बहू, तू भी मुझे माफ कर दे। मैंने हीरे को पहचानने में भूल कर दी थी। लेकिन अब मुझे सब साफ दिखायी दे रहा है।” और कमला जी ने सुधा को गले से लगा लिया।

 

छोटे बेटे की भी भी अक्ल नहीं आई थी। वो वहाँ से मंडप में वापस चला गया। उसके सास-ससुर ने समधी-समधन को विदा भो नहीं किया। वो लोग वहाँ से गैरों की तरह ही वापस आ गये।

 

एक हफ्ते बाद जब निशा और उसका पति वापस आये तो तब निशा और उसके मम्मी-पापा को उसकी सास के फैसले के बारे में पता लगा तो वो लोग समधी-समधन के लिए खूब सारी मिठाई और कपडे आदि लेकर पहुँचे।

 

कमला जी बोली, “आपके मान का मैं सम्मान करती हूँ। लेकिन हम सामान के नहीं मान-सम्मान के भूखे हैं। समधी जी, हमें भी अपना मान-सम्मान प्यारा है। आप अपना सामान वापस ले जाइये। निशा बहू के बारे में मैंने जो फैसला लिया है वो बदल नहीं सकता। मेरी सुधा बहू उसकी नौकर नहीं है जो उसका काम करेगी। निशा हमारी तरफ से फ्री है वो जहाँ चाहे अपना घर बसा सकती है लेकिन अब इस घर में उसके लिए कोई जगह नहीं…”

 कमला जी अंदर कमरे में चली गई और वो लोग भी वापस अपने घर चले गये। उन लोगों को अपनी गलती कितनी समझ आई ये तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन उन्होंने अपनी गलती आज तक नहीं मानी।

 

सखियों कैसी लगी मेरी कहानी। लाइक और कमेन्ट करके बताइए।  कहानी मौलिक और स्वरचित है।

 

धन्यवाद

 

चेतना अग्रवाल

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