पिता – कंचन श्रीवास्तव

जिद्दी मां-बेटे के बीच,रवि पिसकर रह गया था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा कि वो क्या करे। बब्बू की बढ़ती उम्र और मां के आंचल की छांव के बीच ,उसे एक तरफ कठोर कदम उठाने पर मजबूर करती तो दूसरी ओर उसकी ममता आड़े आ जाती ।इससे वो बहुत परेशान रहता। सबसे बड़ी बात तो ये कि सारी सुख सुविधाओं के बावजूद भी उसका बेटा जिद्दी के साथ साथ लापरवाह भी हो गया था।

न पढ़ने में मन लगता न किसी की बात सुनता,और न ही किसी जिम्मेदारी का अहसास होता।

बस अपनी जरूरत कैसे भी करके पूरी करवा लेता फिर दिनभर दोस्तों के साथ और रात टी.वी से चिपक के बिताता।

इसका अहसास उसकी मां को भी तब हुआ जब उसके साथ वाले लड़कों की नौकरी लग गई और अब कुछ ही दिनों में उनकी शादी होने वाली थी।

फिर तो फ़िक्र ऐसी की गया वक्त वापस ला भी नहीं सकती और पति के साथ अपनी चिंता को साझा भी नहीं कर सकती।

और खुद को ही उसके बिगड़ने का जिम्मेदार मानकर चिंतित रहती।

अरे अरे चिंतिंत ही नहीं एक रोज एंजाइना का अटैक भी पड़ गया। पूछने पर

पता ऐसे चला कि डाक्टर ने बताया कि गहरे सदमे के कारण ऐसा हुआ।

और खुलासा उसकी सहेली रीमा से बात करते हुए उन्होंने किया। कि अब वो क्या करे कुछ समझ नहीं आ रहा वक्त हाथ से निकला जा रहा और बेटा उनका बिगड़ गया

जिसकी चर्चा वो अपने पति से भी नहीं कर सकती ।




क्योंकि उन्होंने हमेशा ही आगाह किया पर नज़र अंदाज़ हमने ही किया।

जिसका परिणाम अब भुगतना पड़ रहा।

काश!

उनकी बात पहले मान ली होती तो ये दिन देखना न पड़ता।

कहते हुए वो बिफर पड़ी।

जिसे चाय लेके आते राकेश ने सुन लिया। पर कुछ बोला नहीं उसने पलटकर देखा तो बेटा दवाई लेके आ रहा था जिसे उसने भी सुन लिया। पर कुछ बोला नहीं बस दवा देकर बाहर चला गया।

और जाकर बहुत रोया। ,ये सोचकर कि मां को ये तकलीफ उसकी वजह से हुई है,इस पर  ढूंढते हुए आए पापा ने देख लिया, और उसके पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर ढांढस बंधाते हुए दिलासा दिया कि , परेशान न हों सब ठीक हो जाएगा।

खैर वक्त बीतने लगा,मां चार पांच दिनों बाद घर वापस आ गई। पर पहले जैसी चुस्त दुरुस्त नहीं रहती।

हमेशा मुर्झाई सी रहती पहले जैसी ताजगी,फुर्ती और हंसी चेहरे पर नहीं रह गई।

जिसे दोनों बाप बेटे ने महसूस किया।

और आपस में बातचीत करके ये संकल्प लिया कि आप जो कुछ कहेंगे वो मैं करूंगा।

और एक अच्छा इंसान बनकर हांके चेहरे की हंसी वापस लाऊंगा।

फिर क्या था।

उम्र ही अभी क्या थी ।यूं कह लो कि इसी उम्र में लोग बनते और बिगड़ते हैं ।तो अभी शुरुआत ही थी बिगड़ने की ,और पापा ने हाथ पकड़ लिया।

फिर क्या था धीरे धीरे करके सभी गलत आदतें उसकी छूट गई, घर पर रहने लगा और तो और  मां की देखभाल के साथ साथ अपना मन पढ़ाई में भी लगाने लगा।ये कह लो कि पिता के बताएं हुए मार्गदर्शन पर चलने लगा।

और एक रोज वो अच्छी नौकरी पा गया।और जब काल ज्वाइनिंग लेटर लेकर मां – पिता जी के पैर छुए तो उनके चेहरे की चमक बढ़ गई।

आज उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि मां सिर्फ़ ममता और आंचल की छांव ही देती है पर पिता कठोर अनुशासन में रखकर बच्चे को परिश्रमी और अच्छा इंसान भी बनाता है । क्योंकि उसे पता होता है कि पुरुष की इज्ज़त,मान सम्मान, स्वाभिमान उसके पैसे से है।

और पैसा उसके परिश्रम का पर्याय है।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरजू

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