फिर तेरी कहानी याद आई – प्रेम बजाज

राधा पहाड़ की ओट से सड़क पर नज़र रखे हुए है आज फिर उसमें एक नई आस जागी है। 

सर्दियां शुरू हो गई है, उसे भरोसा है कि शायद अब की सर्दी में मेरा बाबू आएगा।

मां और भाई, भाभी, छोटा भाई मोहन सब रोज समझाते हैं, ” राधा पगली मत बन, वो नहीं आएगा, सब शहरी ऐसे ही होते हैं, झूठे-सच्चे वादों में भोली-भाली गांव की लड़कियों को बहला-फुसलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और फिर पीछे मुड़कर भी नहीं देखते”

मगर वो कहां सुनने वाली थी, उसे भरोसा था उसका बाबू ज़रूर आएगा, और वो हर रोज़ उसकी कहानियां कहती।

“अरे मोहन तुझे याद नहीं जब बाबू जा रहा था तो उसने तुझे क्या कहा था, ज़रा अपने दिमाग पर ज़ोर देकर याद कर”

” हां जिज्जी, बाबू ने कहा था वो जल्दी ही आएगा और मुझे कहा था कि तुझसे नया रिश्ता शुरू करूंगा, मैं बाबू को भैया कहता था ना, बाबू कहता था कि मैं उसे फिर भैया नहीं कहूंगा, तब मैं उसका मतलब नहीं समझा था”

“हांआआआआ  बाबू यही तो कहता था, जब मेरी शादी होगी बाबू से फिर तू उसे भैया कैसे कह सकता है”

बस इन्हीं कहानियों में उलझी रहती राधा। 

 कोई कहता पागल हो गई है, कोई कहता इसकी शादी कर दो ठीक हो जाएगी।

मगर राधा………  शादी के नाम पर ही बवाल खड़ा कर देती थी, कहती,” बाबू का नाम लिखा है मेरे तन-मन पर, किसी और की इस पर परछाई भी कैसे पड़ने दूं “

और खो जाती बीते दिनों की यादों में।

जब वो टूरिस्ट पहली बार इन पहाड़ों पर घूमने आया था।

जहां बाबू ठहरा था राधा रोज़ वहां खाना बनाने जाती थी।

दो-चार दिनों में ही राधा और उस बाबू‌ की अच्छी खासी दोस्ती हो गई थी।

बाबू अर्थात बृजेश राधा के भोलेपन पर अपना दिल हार बैठा, और राधा भी कहीं ना कहीं उसे चाहने लगी थी शायद, मगर डरती थी कहीं उसके साथ भी कजरी जैसा ना हो।




कजरी उसी के गांव की थी, भोली-भाली।

एक शहरी को दिल दे बैठी, शहरी बाबू कुछ दिन यहां घूम-फिरकर उसका सबकुछ लेकर चला गया। 

फिर ना आया कभी, और वो कुंवारी मां बन कर गांव वालों की नज़रों में गिर गई, और बाबू के ग़म में पागल हो गई।

 पागलपन के दोरे में एक दिन बाबू की राह तकते हुए, सड़क पर किसी ट्रक की चपेट में आ गई थी। कजरी और उसका अजन्मा बच्चा दोनों की जीवन लीला समाप्त हो गई थी।

बाबू ने उसे अपने प्यार का भरोसा तो दिला दिया था, मगर फिर भी उसने अभी शादी से पहले उसे अपने आप को छूने की इजाजत नहीं दे रही थी।

मगर उस दिन……. 

होनी को कौन टाल सकता है…….

“हमारे यहां ठंड ज़रा जल्दी शुरू हो जाती है और इत्मिनान से जाती है….. 

आप जैसे शहरी बाबू हर साल नये साल का जश्न मनाने ऐसे ना जाने कितने ही शांत सुन्दर पहाड़ों पर आते हैं। 




हम जैसी भोली भाली राधा आपके झूठे सच्चे वादों और बातों में दिल हारते-हारते राह तकते जिंदगी से भी हार जातीं हैं”

“नहीं राधा मेरा यकीन मानो मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो इन पहाड़ों के घुमावदार रास्ते की तरह अपनी बातों में तुम्हें घुमा दुंगा। दिल्ली जाकर अपने घरवालों से बात करते ही तुम्हारे घर रिश्ता भेजूंगा”

“नहीं ब्रिजेश जी मेहरबानी करके आप मुझे भूल जाइए….. 

पहाड़ी लड़की हो या कहीं की लड़की की इज्ज़त कांच की तरह होती है एक खरोंच भी साफ़ नज़र आती है। मैं अपनी इजा ( मां ) और दाज्यू ( बड़ा भाई ) से बहुत प्यार करती हूं। हमारे छोटे से गांव में मेरे कारण उनकी बदनामी मैं नहीं सहन कर सकती। 

मोहन की नौकरी लगवा कर आपने पहले ही बहुत एहसान कर दिया हम पर अब और नहीं”

राधा तुम्हीं बताओ कि तुम्हें मुझ पर कैसे भरोसा होगा ????

“मुझे आप पर भरोसा है बृजेश जी मगर वक्त से डर लगता है” 

“राधा वक्त हमारा है, और हमारे साथ होगा, मैं दिल्ली जाते ही बरात की तैयारी करता हूं” 

बृजेश ने ऐसा कह कर उसी समय चाकू से अपने अंगुठे पर ज़ख्म कर लिया और उस खून से राधा की मांग भर दी। 

बृजेश के हाथ से खून‌ बहता देख राधा मोम की तरह पिघल गई, उसका हाथ पकड़ कर झट से उसका अंगूठा अपने मूंह में डाल लिया, यही वक्त था जब वो बृजेश के बहुत करीब थी, दोनों की सांसे टकरा रही थी। बृजेश ने उसके भाल पर चुम्बन किया तो वो कटी पतंग सी उसके सीने पर गिर गई।

 बस वही हुआ जिससे वो बचना चाहती थी, उसी आग के दरिया में डूब गई वो भी, और दे बैठी अपना सर्वस्व उस शहरी बाबू को। 

उसके तन‌ पर अमिट छाप छोड़ गया था वो शहरी, कुछ कहानियां लिख गया था उसके दिल-दिमाग पर, जिसे आई सर्दी में दोहराती थी। आई सर्दी वो रोज़ पहाड़ों की ओट से आते-जाते वाहनों को निहारती इस भरोसे कि शायद किसी में उसका बाबू नज़र आ जाए।

प्रेम बजाज ©®

जगाधरी ( यमुनानगर)

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